धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी कामना, वासना, इच्छाओं को 'स्व' से हटाकर 'पर' की ओर प्रेरित करें। स्थूल जीवन से हटकर आत्मा-परमात्मा की ओर अभिमुख हों। जनहित के लिए लोक संग्रह करें, सबसे प्रेम करें, विश्वात्मा में रमण करें। हमारे कर विराट का आलिंगन करने के लिए जन-जन से गले मिलने के लिए फैल जाएँ। हमारी जीवनी शक्ति, हमारे प्राण 'विश्व प्राण' में समा जाएँ और कोटि-कोटि मूर्तियों में स्पंदित हो उठें। खंड-खंड में, पदार्थ मात्र में फैली हुई आत्मा को हम अपने अंक में समेट लें, उसे प्यार करें, दुलार करें, उसमें रमण करें। हम देखेंगे कि हमारी कामना, वासना हमारे जीवन की सहचरी बनकर जीवन यात्रा को सुखद, आनंदमय बनाती हुई हमें मंजिल की ओर प्रेरित कर रही है। तब सहसा हमें सोचने को बाध्य होना पडेगा- ''कौन कहता है, कामना और वासना निकृष्ट है, हेय है अथवा त्याज्य है।''
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