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धर्म एवं दर्शन >> कामना और वासना की मर्यादा

कामना और वासना की मर्यादा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :50
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9831

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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।

वासना-त्याग के बिना चैन कहाँ?


अनादिकाल से मनुष्य सुख-शांति की कामना करता और उसको प्राप्त करने का प्रयत्न एवं उपाय करता आ रहा है। मनुष्य का शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक प्रत्येक कर्म एकमात्र सुख और शांति प्राप्त करने का ही प्रयत्न है। वह धनदौलत कमाता है सुखशांति के लिए। मकान-महल बनाता है सुख-शांति के लिए। स्त्री-बच्चों को करता है सुख-शांति के लिए।

जंगली युग से लेकर आज के उन्नत एवं वैज्ञानिक युग तक मनुष्य लगातार सुख-शांति के साधनों को उन्नत करता, बढ़ाता तथा संचय करता आया है। सुखशांति की खोज में उसने आकाश पाताल एक कर दिए हैं। किंतु क्या उसे अब तक सुख-शांति की प्राप्ति हो सकी है? यदि विचारपूर्वक देखा जाए तो विपरीत निष्कर्ष ही सामने आएगा। पूर्वकाल की अपेक्षा आज का मनुष्य कहीं अधिक उन्नत व समृद्ध है। उसने अपरिमित साधन एवं सुविधाएँ एकत्र कर ली हैं। किंतु अपने साध्य सुख और शांति को तब भी नहीं पा सका है। बल्कि सत्य यह है कि वह पूर्वकाल की अपेक्षा आज कहीं अधिक व्यस्त एवं व्यग्र है। सुखशांति की खोज करते-करते वह उल्टा दुःख और अशांति के अंधकार में भटक गया है। सुख-शांति को खोज करता करता मनुष्य आखिर दुःख एवं अशांति का ग्रास क्यों बनता जा रहा है, इस खेदपूर्ण आश्चर्य का स्पष्टीकरण बहुत आवश्यक है।

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