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शुक्रवार व्रत कथा

गोपाल शुक्ला

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :18
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9846

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इस व्रत को करने वाला कथा कहते व सुनते समय हाथ में गुड़ व भुने चने रखे, सुनने वाला सन्तोषी माता की जय - सन्तोषी माता की जय बोलता जाये


वहां जाकर बोला-
“हम जावें परदेस, आवेंगे कुछ काल।
तुम रहियो संन्तोष से धर्म आपनो पाल।”

वह बोली-
“जाओ पिया आनन्द से हमारो सोच हटाय।
राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय।

देउ निशानी आपनी देख धरूं मैं धीर।
सुधि हमरी न बिसारियो रखियो मन गम्भीर।”

वह बोला- “मेरे पास तो कुछ नहीं, यह अंगूठी है सो ले और अपनी कुछ निशानी मुझे दे।“

वह बोली- “मेरे पास क्या है, यह गोबर भरा हाथ है। यह कह कर उसकी पीठ पर गोबर के हाथ की थाप मार दी।“

वह चल दिया, चलते-चलते दूर देश पहुंचा। वहां एक साहूकार की दुकान थी। वहां जाकर कहने लगा- “भाई मुझे नौकरी पर रख लो।”

साहूकार को जरूरत थी, बोला- “रह जा।”

लड़के ने पूछा- “तनखा क्या दोगे?”

साहूकार ने कहा- “काम देख कर दाम मिलेंगे।”

साहूकार की नौकरी मिली, वह सुबह 7 बजे से रात तक नौकरी बजाने लगा। कुछ दिनों में दुकान का सारा लेन-देन, हिसाब-किताब, ग्राहकों को माल बेचना सारा काम करने लगा। साहूकार के सात-आठ नौकर थे, वे सब चक्कर खाने लगे, यह तो बहुत होशियार बन गया। सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में ही उसे आधे मुनाफे का हिस्सेदार बना लिया। वह कुछ वर्ष में ही नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छोड़कर बाहर चला गया।

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