| कहानी संग्रह >> शुक्रवार व्रत कथा शुक्रवार व्रत कथागोपाल शुक्ला
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इस व्रत को करने वाला कथा कहते व सुनते समय हाथ में गुड़ व भुने चने रखे, सुनने वाला सन्तोषी माता की जय - सन्तोषी माता की जय बोलता जाये
 वह कहने लगा- “माता सोता भी नहीं, जागता भी नहीं हूं कहो क्या आज्ञा है?” 
 
 मां कहने लगी- “तेरे घर-बार कुछ है कि नहीं?” 
 
 वह बोला- “मेरे पास सब कुछ है मां-बाप है बहू है क्या कमी है।” 
 
 मां बोली- “भोले पुत्र तेरी बहू घोर कष्ट उठा रही है, तेरे मां-बाप उसे त्रास दे रहे हैं। वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुध ले।” 
 
 वह बोला- “हां माता जी यह तो मालूम है, परंतु जाऊं तो कैसे? परदेश की बात है, लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कोई जाने का रास्ता नहीं आता, कैसे चला जाऊं?” 
 
 मां कहने लगी- “मेरी बात मान, सवेरे नहा धोकर संतोषी माता का नाम ले, घी का दीपक जला दण्डवत कर दुकान पर जा बैठ। देखते-देखते सारा लेन-देन चुक जाएगा, जमा का माल बिक जाएगा, साझ होते-होते धन का भारी ढेर लग जाएगा।” 
 
 अब सवेरे जल्दी उठ भाई-बंधुओं से सपने की सारी बात कहता है। वे सब उसकी अनसुनी कर दिल्लगी उड़ाने लगे। कभी सपने भी सच होते हैं। एक बूढ़ा बोला- “देख भाई मेरी बात मान, इस प्रकार झूंठ-सांच करने के बदले देवता ने जैसा कहा है वैसा ही करने में तेरा क्या जाता है।” 
 			
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