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शुक्रवार व्रत कथा

गोपाल शुक्ला

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :18
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9846

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इस व्रत को करने वाला कथा कहते व सुनते समय हाथ में गुड़ व भुने चने रखे, सुनने वाला सन्तोषी माता की जय - सन्तोषी माता की जय बोलता जाये


यह सुनकर उसकी सास बाहर आकर अपने दिए हुए कष्टों को भुलाने हेतु कहती है- “बहू ऐसा क्यों कहती है? तेरा मालिक ही तो आया है। आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े-गहने पहिन।”

उसकी आवाज सुन उसका पति बाहर आता है। अंगूठी देख व्याकुल हो जाता है। मां से पूछता है- “मां यह कौन है?”

मां कहती है-“बेटा यह तेरी बहू है। आज १२ बर्ष हो गए, जब से तू गया है तब से सारे गांव में जानवर की तरह भटकती फिरती है। घर का काम-काज कुछ करती नहीं, चार पहर आकर खा जाती है। अब तुझे देख भूसी की रोटी और नारियल के खोपड़े में पानी मांगती है।”

वह लज्जित हो बोला- “ठीक है मां मैने इसे भी देखा और तुम्हें भी देखा है, अब दूसरे घर की ताली दो, उसमें रहूंगा।”

अब मां बोली-“ठीक है बेटा, जैसी तेरी मरजी हो सो कर।”

यह कह ताली का गुच्छा पटक दिया। उसने ताली लेकर दूसरे मकान की तीसरी मंजिल का कमरा खोल सारा सामान जमाया। एक दिन में राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। अब क्या था? बहू सुख भोगने लगी।

इतने में शुक्रवार आया। उसने अपने पति से कहा- “मुझे संतोषी माता के व्रत का उद्यापन करना है।”

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