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दोंकना  : अ० [अनु०] गुर्राना।
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दोंकी  : स्त्री० १.=धौंकनी। २.=गुर्राहट।
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दोंच  : स्त्री० दोच।
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दोँचना  : स०=दोचना।
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दोँर  : पुं० [देश०] एक प्रकार का साँप।
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दो  : वि० [सं० द्वि] १. जो गिनती में एक से एक अधिक हो। तीन से एक कम। पद—दो-एक=एक से एक या दो अधिक। कुछ। जैसे—उनसे दो-एक बातें कर लो। दो चार=दो, तीन अथवा चार। कुछ। थोड़ा। जैसे—दो-चार दिन बाद आना। दो दिन की=बहुत थोड़े समय का। हाल का। जैसे— यह तो अभी दो दिन की बात है। किसके दो सिर हैं?=किसे फालतू सिर हैं ? कौन व्यर्थ अपने प्राण गवाना चाहता है। मुहा०—(आँखें) दो-चार होना=सामना होना। (किसी से) दो चार होना=भेंट या मुलाकात होना। दो दो बातें करना=संक्षिप्त परन्तु स्पष्ट प्रश्नोत्तर करना। साफ-साफ कुछ बातें पूछना और कहना। दो नावों पर पैर रखना=दो आश्रमों या दो पक्षों का अवलंबन करना। ऐसी स्थिति में रहना कि जब जिधर चाहे, तब उधर मुड़ या हो सकें। २. विभिन्न या परस्पर-विरोधी। जैसे—देश की सुरक्षा के संबंध में दो राय हो ही नहीं सकती। पुं० १. एक के ठीक बादवाली संख्या। एक और एक का जोड़। २. उक्त का सूचक अंक जो इस प्रकार का लिखा जाता है—२। ३. जोड़ा। ४. दुक्की।
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दो-आतशा  : वि० [फा०] जो दो बार भभके से खींचा या चुआया गया हो। दो बार का उतारा हुआ। जैसे—दो आतशा अरक या शराब।
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दोआब  : पुं०=दोआबा।
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दोआबा  : पुं० [फा० दोआबः] दो नदियों के बीच का अथवा उनसे घिरा हुआ प्रदेश।
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दोइ  : वि०, पुं०=दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोउ  : वि० [हिं० दो] दोनों।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोऊ  : वि० [हिं० दो] दोनों।
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दोक  : पुं० [हिं० दो+का (प्रत्य०)] दो वर्ष की उम्र का बछेड़ा।
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दोकड़ा  : पुं० [हिं० दो+टुकड़ा] टुकड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दो कला  : वि० [हिं० दो+कल] दो कलों या पेचोंवाला। पुं० १. वह ताला जिसके अंदर दो कलें या पेंच होते हैं। २. उक्त प्रकार की बेड़ी जो साधारण बेड़ी से अधिक मजबूत होती है।
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दोका  : पुं०=दोक।
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दो-कोहा  : पुं० [हिं० दो+कोह=कूबड़] वह ऊँट जिसकी पीठ पर दो कूबड़ होते हैं।
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दो-खंभा  : पुं० [हिं० दो+खंभा] एक प्रकार का नैचा जिसमें कुल्फी नहीं होती।
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दोख  : पुं०=दोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोखना  : स० [हिं० दोष+ना (प्रत्य०)] किसी पर दोष लगाना।
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दोखी  : वि० [हिं० दोष] १. अपराधी। दोषी। २. ऐबी। ३. दुष्ट। पाजी। ४. वैरी। शत्रु। (ङिं०)
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दो-गंग  : पुं० [हिं० दो+गंगा] नदियों के बीच का प्रदेश। दोआब।
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दोगंडी  : स्त्री० [हिं० दो+गंडी=गोल घेरा या चिह्न] १. वह चित्ती कौड़ी या इमली की चिआँ जिसे लड़के जुआ खेलने में बेईमानी करने के लिए दोनों ओर से घिस लेते हैं। २. उक्त प्रकार की कौड़ियों से खेलनेवाला अर्थात बेईमान आदमी। ३. उपद्रवी या शरारती आदमी।
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दोगर  : पुं०=डोगरा।
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दोगला  : पुं० [फा० दोगलः] [स्त्री० दोगली] १. ऐसा जीव जो दो विभिन्न जातियों या नस्लों के माता-पिता के योग से उत्पन्न हुआ हो। वर्ण-संकर। २. उक्त के आधार पर उत्पन्न होनेवाला ऐसा जीव जो प्रायः कुरूप तथा अशक्त होता है। ३. ऐसा मनुष्य जो अपनी माता के गर्भ से परन्तु उसके उपपति या यार के योग से उत्पन्न हुआ हो। जो ऐसे व्यक्ति की संतान हो जिससे उसकी माता का विवाह न हुआ हो। जारज। पुं० [हिं० दो+कल] बाँस की कमाचियों का बना हुआ एक प्रकार का गोल और कुछ गहरा पात्र जिससे किसान खेतों में पानी उलीचते हैं।
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दोगा  : [सं० द्विक, हिं० दुक्का] १. लिहाफ के काम आनेवाला एक तरह का मोटा कपड़ा। २. पानी में घोला हुआ चूना, सीमेंट आदि जिसे दीवारों छतों आदि पर पोतकर उन्हें चिकना बनाया जाता है।
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दोगाड़ा  : पुं० [हिं० दो+?] दोनली बंदूक।
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दोगाना  : पुं० [हिं० दो+गाना] एक तरह का गीत जिसके एक चरण में एक व्यक्ति कुछ प्रश्न करता है और दूसरे चरण में दूसरा व्यक्ति उसका उत्तर देता है। स्त्री०=दुगाना। (देखें)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोगुना  : वि०=दुगना (दूना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोग्ध्री  : स्त्री० [सं०√दूह (दुहना)+तृच्—ङीप्] १. दूध देनेवाली गाय। २. दूध पिलानेवाली दाई। धाय।
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दोघ  : वि० [सं०] गौ आदि दुहनेवाला।
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दोघरा  : वि० [हिं० दो+घर] १. जिसमें दो घर (खाने या विभाग) हों। २. दो घरों से सम्बन्ध रखनेवाला।
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दोचंद  : वि० [फा० दुचंद] दुगना। दूना।
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दोच  : स्त्री०=दोचन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोचन  : स्त्री० [हिं० दबोच] १. दुबधा। असमंजस। २. कष्ट। तकलीफ। दुःख। ३. विपत्ति। संकट। ४. किसी ओर से पड़ने वाला दबाव।
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दोचना  : पुं० [हिं० दोच] कोई काम करने के लिए किसी पर बहुत जोर देना। दबाव डालना।
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दोचल्ला  : पुं० [हिं० दो+चल्ला (पल्ला) ?] वह छाजन जो बीच में उभरी हुई और दोनों ओर ढालुईं हो। दो-पलिया छाजन।
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दो-चित्ता  : वि० [हिं० दो+चित्ता] [स्त्री० दोचित्ती] जिसका चित्त एकाग्र न हो, बल्कि दो कामों या बातों में बँटा आ लगा हुआ हो।
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दोचित्ती  : स्त्री० [हिं० दो+चित्त] १. ‘दो-चित्ता’ होने की अवस्था या भाव। ध्यान का दो कामों या बातों में बँटा रहना। २. चित्त की उद्विग्नता या विकलता।
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दो-चोबा  : पुं० [हिं० दो+फा चोब] वह बड़ा खेमा जिसमें दो दो चोबें लगती हों।
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दोज  : स्त्री० [हिं० दो] चांद्र मास के किसी पक्ष की द्वितिया तिथि। दूज। पुं० [सं०] संगीत में, अष्टताल का एक भेद। वि० [फा०] १. सिलाई करने या साने वाला। जैसे—जरदोज। २. किसी के साथ बिलकुल मिला या सटा हुआ। जैसे—जमीन दोज मकान, अर्थात ऐसा मकान जो ढहकर जमीन के बराबर हो गया हो।
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दोजई  : स्त्री० [देश०] वह उपकरण जिससे नक्काश लोग वृत्त आदि बनाते हैं।
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दोजख  : पुं० [फा० दोजख] १. इस्लामी धर्म के अनुसार नरक जिसके सात विभाग कहे गये हैं और जिसमें दुष्ट तथा पापी मनुष्य मरने के उपरांत रखे जाते हैं। २. नरक। पुं० [?] सुंदर फूलों वाला एक प्रकार का पौधा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोजखी  : वि० [फा०] १. दोजख-संबंधी। दोजख का। २. दोजख में जाने वाला या रहनेवाला। नरकी। ३. बहुत बड़ा दुष्ट और पापी।
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दो-जरबा  : वि० [फा०] दो बार भभके में खींचा या चुआया हुआ। दो-आतशी।
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दोजर्बी  : स्त्री० [फा०] १. दोनली बन्दूक। २. दो बार चुआई हुई शराब।
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दोजा  : पुं० [हिं० दो] [स्त्री० दोजी] पुरुष जिसका दूसरा विवाह हुआ हो। वि०=दूजा (दूसरा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोजानू  : अव्य० [हिं० दो+सं० जानू (घुटना)] घुटनों के बल या दोनों घुटने टेककर।
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दोजिया  : स्त्री०=दोजीवा।
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दोजी  : स्त्री० [फा०] सीने का काम। सिलाई। जैसे—जरदोजी।
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दोजीरा  : पुं० [हिं० दो+जीरा] एक प्रकार का चावल।
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दोजीवा  : स्त्री० [हिं० दो+जीव] वह स्त्री जिसके पेट में एक और जीव या बच्चा हो। गर्भवती स्त्री।
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दोढ़  : वि०=डेढ़।
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दोत  : पुं०=दूत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दवात।
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दो-तरफा  : वि० [फा० दुतुर्फ़ः] [स्त्री० दोतरफी] दोनों तरफ का। दोनों ओर से संबेध रखने वाला। क्रि० वि० दोनों ओर। दोनो तरफ। इधर भी और उधर भी।
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दोतर्फा  : वि०=दो-तरफा।
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दोतला  : वि०=दो-तल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दो-तल्ला  : वि० [हिं० दो+तल्ला] (घर या मकान) जिसमें दो खण्ड या मंजिले हों। दो-मंजिला।
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दोतही  : स्त्री० [हिं० दो+तह] एक प्रकार की देशी मोटी चादर जो दोहरी करके बिछाने के काम में आती है। दोसूती।
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दोता  : पुं०=दोहता (दौहित्र)।
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दोतारा  : पुं० [हिं० दो+तारा] १. एक प्रकार का दुशाला। २. सितार की तरह एक बाजा, जिसमें दो तार लगे होते हैं।
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दोदना  : स० [हिं० दो (दोहराना)] १. किसी की कही हुई बात सुनकर भी यह कहना कि तुमने ऐसा नहीं कहा था। २. किसी के सामने एक बार कोई बात कहकर भी बार-बार यह कहना कि हमनें तो ऐसा नहीं कहा था। वि० दोदने या मुकरनेवाला।
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दोदरी  : स्त्री० [नैपाली] एक तरह का सदाबहार पेड़ जो पूर्वी बंगाल, सिक्किम और भूटान में होता है।
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दोदल  : पुं० [सं० द्विदल] १. चने की दाल और उससे बनी हुई तरकारी। २. कचनार की कलियाँ जिनकी तरकारी बनती और अचार पड़ता है।
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दोदस्ता  : वि० [फा० दुदस्तः] १. दोनों हाथों से किया जानेवाला या होनेवाला।
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दोदा  : पुं० [देश०] एक तरह का डेढ़-दो हाथ का लंबा कौआ।
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दोदाना  : स० [हिं० दोदना] किसी को दोदने में प्रवृत्त करना। (दे० ‘दोदना’)
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दोदामी  : स्त्री०=दुदामी।
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दोदिन  : पुं० [देश०] रीठे की जाति का एक प्रकार का पेड़ जिसके फलों की फेन से कपड़े साफ किये जाते हैं।
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दोदिला  : वि० [हिं० दो+फा० दिल] [भाव० दोदिली] दोचित्ता (दे०)।
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दोध  : पुं० [सं०√दुह्+अच, नि० सिद्धि] [स्त्री० दोधी] १. ग्वाला। अहीर २. गौ का बच्चा। बछड़ा। ३. पुरस्कार के लोभ से कविता करनेवाला कवि।
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दोधक  : पुं० [सं०] एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसमें तीन भगड़ और अंत में दो गुरू वर्ण होते हैं। इसे ‘बंधु’ भी कहते हैं। वि० दूहनेवाला।
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दोधार (ा)  : वि० [हिं० दो+धार] [स्त्री० दोधारी] जिसके दोनों ओर धार या बाढ़ हो। पुं० बरछा। भाला। पुं० [देश०] एक प्रकार का थूहर।
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दोन  : पुं० [हिं० दो] १. दो पहाड़ों की बीच की नीची जमीन। दून। २. दो नदियों के बीच का प्रदेश। दो आबा। ३. दो नदियों का संगम स्थान। ४. दो वस्तुओं का एक में होनेवाला मेल या संगम। पुं० [सं० द्रोण] काठ का वह खोखला लंबा टुकड़ा जिससे धान के खेतों में सिंचाई की जाती है।
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दोनली  : वि० [हिं० दो+नल्] जिसमें दो नालियाँ या नल हों। स्त्री० दो नलोंवाली बंदूक या तोप।
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दोना  : पुं० [सं० द्रोण] [स्त्री० अल्पा० दोनियाँ, दोनी] १. पलास, महुए आदि के पत्ते या पत्तों को सीकों से खोंसकर बनाया जाने वाले अंजलि या कटोरे के आकार का पात्र। २. उक्त में रखी हुई वस्तु। जैसे—एक दोना उन्हें भी तो दो। मुहा०—दोना चढ़ाना= समाधि आदि पर फूल-मिठाई चढ़ाना। दोना या दोनें चाटना=बाजार से पूड़ी, मिठाई आदि खरीद कर पेट भरने का शौक होना। दोना देना=(क) किसी बड़े आदमी का अपने भोजन के थाल में से कुछ भोजन किसी को देना जिससे देने वाले की प्रसन्नता और पानेवाले का सम्मान प्रकट होता है। (ख) दोना चढ़ाना। (देखें ऊपर) दोना लगाना=दोने में रखकर फूल-मिठाई आदि बेचने का व्यवसाय करना। दोनों की चाट पड़ना या लगना=बाजारी चीजें खाने का चस्का पड़ना। पुं०=दौना (पौधा)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोनों  : वि० [हिं० दो+नों (प्रत्य०)] दो में से प्रत्येक। यह भी और वह भी। उभय। जैसे—दोनों भाई काम करते हैं।
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दोपट्टा  : पुं०=दुपट्टा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोपलका  : पुं० [हिं० दो+फलक या पलक] १. वह दोहरा नगीना जिसके अन्दर या नीचे नकली या हलका नग हो और ऊपर या चारों ओर असली या बढ़िया नग हो। दोहरा नगीना जो कम मूल्य का और घटिया होता है। २. एक प्रकार का कबूतर।
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दोपलिया  : वि०=दोपल्ला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=दोपल्ली।
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दोपल्ला  : वि० [हिं० दो+पल्ला] [स्त्री० दोपल्ली] १. जिसमें दो पल्ले हों। २. दो परतोंवाला। दोहरा।
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दोपल्ली  : वि० [हिं० दो+पल्ला+ई (प्रत्य०)] दो पल्लोंवाला जिसमें दो पल्ले हों। जैसे—दोपल्ली टोपी। स्त्री० मलमल आदि पुरानी चाल की एक प्रकार की टोपी जो कपड़े के दो टुकड़ों या पल्लों को एक में सीकर बनायी जाती थी।
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दोपहर  : स्त्री० [हिं० दो+पहर] १. दिन के ठीक मध्य का समय। मध्याह्न। २. दिन के बारह बजे और उसके आस-पास का कुछ समय। क्रि० प्र०—चढ़ना।—ढलना
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दोपहरिया  : स्त्री०=दोपहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोपहरी  : [हिं० दो+पहर] हर दो पहरों पर होनेवाला। जैसे—दोपहरी नौबत। स्त्री०=दोपहर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दो-पीठा  : वि० [हिं० दो+पीठा] १. जो दोनों पीठों अर्थात दोनों ओर समान रंग-रूप का हो। दोरुखा। २. (छापेखाने में, ऐसा कागज) जो दोनों ओर छपा हो।
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दो-पौआ  : पुं० [हिं० दो+पाव] १. किसी वस्तु का दो पाव, आधा अंश या भाग। २. दो पाव का बटखरा। अध-सेरा। ३. पानी की आधी ढोली। (तमोली)
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दो-प्याजा  : पुं० [फा०] अधिक मात्रा में डालकर पकाया हुआ मांस।
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दो-फसली  : वि० [फा० दुफस्ली] १. (पौधा या वृक्ष) जो दो वर्ष में दो बार फलता और फूलता हो। २. दोनों फसलों से संबंध रखनेवाला। ३. (खेत या जमीन) जिसमें रबी और खरीफ दोनों फसलें होती हों। ४. (बात) जो दोनों पक्षों में लग सके। जिसका उपयोग दोनों ओर हो सके। फलतः अनिश्चित और संदिग्ध।
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दोबल  : पुं० [?] दोष। अपराध। लांछन। क्रि० प्र०—देना।—लगाना।
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दोबा  : पुं०=दुबिधा।
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दो-बाजू  : पुं० [हिं० दो+फा० बाज] १. वह कबूतर जिसके दोनों पैर सफेद हों। २. एक प्रकार का गिद्ध।
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दोबारा  : क्रि० वि० [फा० दुबारः] एक बार हो चुकने के उपरान्त फिर दूसरी बार। दूसरी दफा। पुनः। फिर। वि० दूसरी बार होनेवाला। पुं० १. वह अरक या शराब जो एक बार चुआने के बाद फिर दूसरी बार भी चुआई गई हो और फलतः बहुत तेज हो। दो-आतशा। स्त्री० १. एक बार साफ करने के बाद फिर दूसरी बार साफ की हुई चीना। २. एक बार चैयार करने के उपरान्त उसी तैयार चीज से फिर दूसरी बार तैयार या ठीक हुई चीज।
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दोबाला  : वि० [फा० दुबाला] दूवा। दुगुना।
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दोभाषिया  : पुं०=दुभाषिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोमंजिला  : वि० [फा० दुमंजिलः] (इमारत) जिसमें दो खण्ड या तल्ले हों। पुं० दो खंडोवाला मकान।
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दोमट  : स्त्री० [हिं० दो+मिट्टी] ऐसी जमीन जिसकी मिट्टी में बालू भी मिला हो। बलुई जमीन।
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दो-मरगा  : पुं० [हिं० दो+मार्ग] १. पुरानी चाल का एक प्रकार को देशी मोटा कपड़ा।
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दो-महला  : वि० दे० ‘दोमंजिला’।
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दोमुँहा  : वि० [हिं० दो+मुँह] १. जिसके दो मुँह हों। २. जिसके दोनों ओर मुँह हो। जैसे—दो मुँहा साँप। ३. दो तरह की बातें करने वाला। ४. दोहरी चाल चलनेवाला।
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दोमुँहा साँप  : पुं० [हिं० दो+मुँहा+साँप] १. एक प्रकार का साँप जो प्रायः हाथ भर लंबा होता है और जिसकी दुम मोटी होने के कारण मुँह के समान ही जान पड़ती है। इसमें न तो विष होता है और न यह किसी को काटता है। २. एक तरह का साँप जिसके सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि छः महीने इसके एक तरफ मुँह रहता है और छः महीने दूसरी तरफ। (चुकरैंड) ३. ऐसा व्यक्ति जो दोहरी चालें चलकर बहुत अधिक घातक सिद्ध होता हो।
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दोमुँही  : स्त्री० [हिं० दो+मुँह] नक्काशी करने का सुनारों का एक उपकरण।
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दोय  : वि०, पुं०=दो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=दोनों।
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दोयण  : पुं० [फा० दुश्मन ?] शत्रु। उदा०—दाटक अनड़ दंड नह दीधो, दोयण घड़ सिर दाव दियो।—दुरसाजी।
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दोयम  : वि० [फा०] १. जो क्रम या गिनती में दूसरे स्थान पर पड़े। दूसरा। २. जो महत्व, मान आदि के विचार से अद्वितीय श्रेणी का हो।
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दोयरी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार का जंगली पेड़ जिसकी लकड़ी का कोयला बनाया जाता है।
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दोयल  : पुं० [देश०] बया पक्षी।
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दोरंगा  : वि० [हिं० दो+रंग] [स्त्री० दोरंगी] १. दो रंगोवाला। जिसमें दो रंग हो। जैसे—दोरंगा कागज। २. जिसमें दोनों ओर दो रंग हों। ३. (कथन) जो दोनों पक्षों में समान रूप से लग सकें। ४. दे० ‘दोगला’।
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दोरंगी  : स्त्री० [हिं० दोरंगा] १. दो रंगोवाला होने की अवस्था या भाव। २. ऐसी बात या व्यवहार जो दोनों पक्षों में लग सके।
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दोर  : पुं० [सं० दोः या दोषा] हाथ। भुजा। (राज०) उदा०—दोर सु वरुण तंणा किरि डोर।—प्रिथीराज। स्त्री० [हिं० दौड़] १. पहुँच। २. स्थान। उदा०—मेरे आसा चितवनि तुमरी, और न दूजी दोर।—मीराँ। पुं०=द्वार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० द्वार] दरवाजा। (बुन्देल०) उदा०—रोको बीरन मोरे दोर बहिन तोरी कहाँ चली।—लोक-गीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० [हिं० दो] दो बार जोती हुई जमीन। वह जमीन जो दो दफे जोती गई हो। स्त्री०=डोर (रस्सी)।
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दोरक  : पुं० [सं०=डोरक नि० ड को द] ? वीणा के तारों को बाँधने की ताँत। २. डोरी।
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दोरदंड  : वि०=दुर्दंड।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोरस  : स्त्री० [हिं० दो+रस] ऐसी जमीन जिसकी मिट्टी में बालू मिला हुआ हो।
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दो-रसा  : वि० [हिं० दो+रस] १. एक प्रकार के रस या स्वादवाला। जिसमें दो तरह के रस या स्वाद हों। जैसे—दो-रसा तमाकू (पीने का)। २. (दिन या समय) जिसमें थोड़ी-थोड़ी गरमी या सरदी दोनों पड़ती हों। ऋतु परिवर्तन के समय का। जैसे—दो-रसे दिन। ३. (स्त्रियों के संबंध में स्थिति) जिसमें दो अथवा अनेक प्रकार के भाव या विचार मन में उठते हों (अर्थात गर्भवती होने के दिन)। पुं० एक प्रकार का पीने का तमाकू जिसका धूआँ कुछ कड़ुआ और कुछ मीठा होता है।
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दोरा  : पुं० [देश०] हल की मुठिया के पास लगी हुई बाँस की वह नली जिसमें बोने के लिए बीज डाले जाते हैं।
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दोराब  : स्त्री० [देश०] एक तरह की छोटी समुद्री मछली।
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दो-राहा  : पुं० [हिं० दो+राह] वह स्थान जहाँ से दो मार्गों को जाया जा सकता हो।
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दोरी  : स्त्री०=डोरी।
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दो-रुखा  : वि० [फा०] [स्त्री० दोरुखी] १. जिसके दोनों ओर समान रंग या बेल-बूटे हों। जैसे—कपड़े का दोरुखा छापा। २. जिसमें एक ओर एक रंग दूसरी ओर दूसरा रंग हो। जैसे—ओढ़ने की दोरुखी चादर। ३. (आचरण या व्यवहार) जिसका आशय दोनों ओर या दोनों पक्षों मे प्रयुक्त हो सकता हो। पुं० सुनारों का एक प्रकार का उपकरण।
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दो-रेजी  : स्त्री० [फा० दोरेज़ी] नील की वह फसल जो एक फसल कट जाने के उपरान्त उसकी जड़ों से फिर होती है।
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दोर्ज्या  : स्त्री० [सं० दोस्-ज्या उपमि० स०] सूर्य सिद्धान्त के अनुसार वह ज्या जो भुज के आकार की हो।
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दोर्दंड  : पुं० [सं० दोस्-दंड ष० त०] भुजदंड।
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दोर्मूल  : पुं० [सं० दोस्-मूल ष० त०] भुज-मूल।
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दोर्युद्ध  : पुं० [सं० दोस्-युद्ध तृ० त०] कुश्ती।
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दोल  : पुं० [सं०√दुल् (झूलाना)+घञ्] १. झूला। हिंडोला। २. डोली।
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दो-लड़ा  : वि० [हिं० दो+लड़] [स्त्री० दोलड़ी] जिसमें दो लड़े हों। दो लड़ों वाला।
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दोलत्ती  : स्त्री०=दुलत्ती।
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दोलन  : पुं० [सं० दुल्+ल्युट्—अन] झूलना।
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दोल-यात्रा  : स्त्री० [मध्य० स०]=दोलोत्सव।
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दोला  : स्त्री० [सं० दोल+टाप्] १. झूला। २. हिंडोला। ३. डोली या पालकी। ३. ऐसी स्थिति जिसमें किसी विषय में मनुष्य का विचार कभी एक ओर, और कभी दूसरी ओर होता है। जैसे—विमर्श-दोला। ४. नील का पौधा।
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दोलाधिरूढ़  : वि० [सं० दोला-अधिरूढ़ द्वि० त०] १. झूले पर चढ़ा हुआ। २. जिसके संबंध में अभी तक कोई निश्चय न हुआ हो।
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दोला-यंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] वैद्यक में, औषधियों का अरक उतारने या निकालने का एक यंत्र।
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दोलायमान  : वि० [सं० दोला+क्यङ्+शानच्] झूलता हुआ। हिलता हुआ।
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दोलायित  : वि० [सं० दोला+क्यङ+क्त] दोलित।
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दोला-युद्ध  : पुं० [सं० उपमि० स०] वह युद्ध जिसमें कभी किसी एक पक्ष का पलड़ा भारी रहता हो और कभी दूसरे पक्ष का।
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दोलावा  : पुं० [?] वह कुआँ जिसमें दो और दो गराड़ियाँ लगी हों।
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दोलिका  : स्त्री० [सं० दोला+कन्-टाप्, इत्व] १. हिंडोला। झूला। २. डोली।
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दोलित  : वि० [सं० दुल्+णिच्+क्त] १. झूलता हुआ। २. हिलता-डुलता हुआ।
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दोली  : स्त्री० [सं० √दुल्+णिच्+इन्—ङीष्] १. डोली। २. पालना। ३. झूला।
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दोलोही  : स्त्री०=दुलोही।
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दोलू  : पुं० [?] दाँत। (ङि०)
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दोलोत्सव  : पुं० [सं० दोल-उत्सव मध्य० स०] फाल्गुन की पूर्णिमा को होने वाला वैष्णवों का उत्सव जिसमें भगवान कृष्ण को हिंडोले पर झुलाते हैं।
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दोवटी (वडी)  : स्त्री० [सं० द्विपट्ट, पुं० हिं० दोवटा] १. साधारण देशी मोटा कपड़ा। गजी। गाढ़ा। (राज०) उदा०—गौणों तो म्होरो माला दोवड़ी और चंदन की कुटकी।—मीराँ। २. चादर। दुपट्टा। उदा०—पाँच राज दोवटी माँगी, चून लियौ सानि।—कबीर। ३. दो पाट की चादर।
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दोवा  : पुं०=देवबाँस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोश  : पुं० [देश०] एक प्रकार का लाख जिसका व्यवहार रंग बनाने में होता है। पुं० [फा०] कंधा। पुं०=दोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोशमाल  : पुं० [फा०] वह अँगोछा या तौलिया जो कसाई अपने पास कंधे पर रखते हैं।
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दोशाखा  : पुं० [फा० दुशाखः] १. वह शमादान जिसमें दो बत्तियाँ जलती हों। २. लकड़ी का वह उपकरण जिसमें दो छोटी लकड़ियों के बीच में कपड़ा लगा रहता है और जिसमें पीसी हुई भंग, दूध आदि छानते हैं। वि० दो शाखाओं या डालोंवाला।
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दोशाला  : पुं०=दुशाला। पुं० [फा० दुशालः] एक प्रकार की बढ़िया कामदार ऊनी चादर।
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दोशीजगी  : स्त्री० [फा० दोशीज़गी] १. लड़कियों की कुमारावस्था। कौमार्य। २. अल्हड़पन।
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दोशीज़ा  : स्त्री० [फा० दोशीज़ा] १. कुमारी कन्या। २. अल्हड़ लड़की।
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दोष  : पुं० [सं०√दुष् (विकृति)+णिच्+घञ्] १. किसी चीज या बात में होने वाली कोई ऐसी खराबी या बुराई जिसके कारण उसकी उपदेयता, महत्ता आदि में कमी या बाधा होती हो। ऐब। खराबी बुराई। (फॉल्ट) विशेष—इसके अनेक प्रकार और रूप होते हैं। यथा— (क) पदार्थ या रचना में किसी अंग या अंश का अभाव या न्यूनता। जैसे—आँख या कान का दोष, जिससे ठीक तरह से दिखाई या सुनाई नहीं देता। (ख) पदार्थ या रचना में होनेवाला कोई प्राकृतिक या स्वाभाविक दुर्गुण या विकार। जैसे—नीलम या हीरे का दोष; औषध या खाद्य पदार्थ का दोष। (ग) कर्त्ता के रचना-कौशल की कमी के कारण होनेवाली कोई खराबी या त्रुटि। जैसे—वाक्य में होनेवाला व्याकरण-संबंधी दोष। (घ) रूप-रंग, शोभा, सौन्दर्य आदि में बाधक होनेवाला तत्त्व। जैसे—चन्द्रमा का दोष। सारांश यह कि किसी पदार्थ या वस्तु का अपने सम्यक् रूप में न होना अथवा आवश्यक गुणों से रहित होना ही उसका दोष माना जाता है। कुछ अवस्थाओं में परम्परा, परिपाटी, रीति-नीति आदि के आधार पर भी कुछ क्षेत्रों में पारिभाषिक वर्ग की भी कुछ बातें स्थिर हो जाती हैं जिनकी गणना दोषों में होती है। २. किसी चीज या बात में होनेवाला कोई ऐसा अभाव जिससे उसका ठीक या पूरा उपयोग न हो सकता हो। अपूर्णता। कमी। त्रुटि। (डिफेक्ट) ३. न्याय शास्त्र में, मिथ्या ज्ञान के कारण उत्पन्न होनेवाले मनोविकार जो मनुष्य को अच्छे और बुरे कामों में प्रवृत्त करते हैं। जैसे—राग, द्वेष आदि हमारे मनोगत दोष हैं। ४. नव्य न्याय में, तर्क के अवयवों के प्रयोग में होने वाली त्रुटि या भूल। ५. मीमांसा में, वह अदृष्ट फल जो विधियों का ठीक तरह से पालन न करने अथवा उनके विपरीत आचरण करने से प्राप्त होता है। ६. वैद्यक में, शरीर के अन्तर्गत रहनेवाले कफ, पित्त और वात नामक तत्त्वों अथवा अन्यान्य रसों का प्रकोप या विकार जिससे अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। ७. साहित्य में, वे बातें जिनमें काव्य या रचना के निश्चित गुणों या स्वरूपों में कुछ कमी रहती या बाधा होती हो। जैसे—अर्थ-दोष, काव्य-दोष, रस-दोष। ८. आचार, चरित्र या व्यवहार में, कोई ऐसा काम, तत्त्व या बात जो धार्मिक, सामाजिक आदि दृष्टियों से अनुचित या निंदनीय मानी जाती हो। (गिल्ट) मुहा०—(किसी को) दोष देना= यह कहना है कि इसके कारण अमुक खराबी या बुराई हुई है। (किसी में) दोष निकालना= यह कहना कि इसमें अमुक दोष या बुराई है। ९. किसी पर लगाया जानेवाला अभियोग, कलंक या लांछन जो नैतिक, विधिक आदि दृष्टियों से अपराध माना जाता या दंडनीय समझा जाता हो। अपराध। कसूर। जुर्म। (गिल्ट) क्रि० प्र०—लगाना। १॰. पातक। पाप। ११. सन्ध्या का समय। प्रदोष। १२. भागवत के अनुसार आठ वसुओं में से एक। पुं०=द्वेष। उदा०—सो जन जगत-जहाज है जाके राग न दोष।—तुलसी।
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दोषक  : पुं० [सं० दोष+कन्] गौ का बच्चा। बछड़ा।
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दोषग्राही (हिन्)  : पुं० [सं०दोष√गह् (ग्रहण)+णिनि] १. वह जो केवल दूसरों के दोषों पर ध्यान दे। २. दुर्जन। दुष्ट।
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दोषघ्न  : पुं० [सं० दोष√हन् (मारना)+टक्] वह औषध जिससे शरीर के कुपित कफ, वात और पित्त का दोष शांत हो।
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दोषज्ञ  : पुं० [सं० दोष√ज्ञा (जानना)+क] पंडित।
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दोषण  : पुं० [सं०√दुष+णिच्+ल्युट्—अन] दोषारोपण।
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दोषता  : स्त्री० [सं० दोष+तल्—टाप] दोष का भाव।
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दोषत्व  : पुं० [सं० दोष+त्व] दोष का भाव।
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दोषन  : पुं० [सं० दूषण] १. दोष। २. दूषण।
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दोषना  : स० [हिं० दूषण+न (प्रत्य०)] किसी पर दोषारोपण करना। दोष लगाना।
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दोष-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें अपराधी के अपराधों, दोषों आदि का विवरण लिखा होता है।
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दोष-प्रमाणित  : वि० [ब० स०] जिसका दोष प्रमाणित हो चुका हो। जो दोषी सिद्ध हो चुका हो।
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दोषल  : वि० [सं० दोष+लच्] दोष या दोषों से भरा हुआ। दूषित।
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दोषसिद्ध  : वि० दे० ‘दोष-प्रमाणित’।
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दोषा  : स्त्री० [सं०√दुष्+आ] १. रात्रि का अंधकार। २. रात्रि। रात। ३. सांयकाल। सन्ध्या। ४. बाँह। भुजा।
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दोषाकार  : पुं० [सं० दोष-आकर ष० त०] १. दोषों का केन्द्र या भण्डार। २. [दोषा√कृ+ट] चन्द्रमा।
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दोषाक्लेशी  : स्त्री० [सं० दोषा√क्लिश् (कष्ट देना) +अण्-ङीप्] बन-तुलसी।
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दोषाक्षर  : पुं० [सं० दोष-अक्षर ब० स०] किसी पर लगाया हुआ अपराध। अभियोग।
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दोषा-तिलक  : पुं० [ष० त०] दीपक। दीया।
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दोषारोपण  : पुं० [सं० दोष-आरोपण ष० त०] १. यह कहना कि इसमें अमुक दोष है। २. यह कहना कि इसने अमुक दोष किया है।
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दोषावह  : वि० [सं० दोष-आ√वह् (वहन)+अच्] जिसमें दोष हों। दोषपूर्ण।
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दोषिक  : पुं० [सं० दोष+ठन्—इक्] रोग। बीमारी। वि० १.=दोषी। २. दूषित।
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दोषित  : वि०= दूषित।
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दोषिता  : स्त्री० [सं० दोषिन्+तल्—टाप] दोषी होने की अवस्था या भाव। (गिल्ट)
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दोषिन  : स्त्री० [हिं० दोषी का स्त्री०] १. अपराधिनी। २. पापपूर्ण आचरणवाली स्त्री। ३. दुष्ट स्वभाववाली और दूसरों पर दोष लगाती रहनेवाली स्त्री। ४. वह कन्या जिसने विवाह से पहले किसी से संबंध स्थापित कर लिया हो।
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दोषी (षिन्)  : पुं० [सं० दोष+इनि] १. जिसने कोई अपराध या दोष किया हो। २. जिस पर कोई दोष लगा हो। ३. दोषपूर्ण। ४. दुष्ट। ५. पापी। वि० [सं० द्वेष] द्वेष करनेवाला। उदा०—गुरु-दोषी सग की मृतु पाव।—गुरु गोविंद सिंह। विशेष—यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘दोष’ का प्रयोग ‘द्वेष’ के अर्थ में गोस्वामी तुलसीदास ने भी किया है। (दे० ‘दोष’)
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दोस  : पुं०=दोष।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसदार  : पुं०=दोस्तदार (मित्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसदारी  : स्त्री०=दोस्ती।
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दोसरता  : पुं० [हिं० दूसरा+ता (प्रत्य०)] द्विरागमन। गौना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=दुजायगी। (भेद-भाव)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसरा  : वि० [स्त्री० दोसरी]=दूसरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसरी  : स्त्री० [हिं० दो] दो बार जोती हुई जमीन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसा  : पुं० [देश०] जल में होनेवाली एक तरह की घास जिसमें एक प्रकार के दाने अधिकता से होते हैं। पुं० [?] मदरास देश में बननेवाला एक प्रकार का पकवान जो उलटे या चीले की तरह होता है और जिसके अन्दर कुछ तरकारियाँ आदि भरी होती हैं। स्त्री०=दोषा (रात)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसाध  : पुं०=दुसाध।
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दोसाल  : पुं० [?] एक तरह का हाथी।
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दोसाला  : वि० [हिं० दो+साल=वर्ष] १. जिसकी अवस्था दो वर्ष की हो। २. जिसके दो वर्ष बीत चुके हों। ३. (विद्यार्थी) जो दो वर्षों तक प्रायः अनुत्तीर्ण होने के कारण एक ही कक्षा में रहे।
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दोसाही  : वि० [हिं० दो+?] (जमीन) जिसमें साल में दो फसलें पैदा हों। दो-फसला।
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दोसी  : पुं० [देश०] दही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=घोसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) वि०=दोषी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोसूती  : स्त्री०=दुसूती।
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दोस्त  : पुं० [फा०] १. प्रायः समान अवस्था का तथा संग रहनेवाला वह व्यक्ति जिससे किसी का स्नेहपूर्ण संबंध हो। मित्र। २. वह जिससे किसी का अनुचित संबंध हो। (बाजारू)
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दोस्तदार  : पुं०=दोस्त
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दोस्तदारी  : स्त्री०=दोस्ती।
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दोस्ताना  : पुं० [फा० दोस्तानः] १. दोस्ती। मित्रता। २. मित्रता का आचरण या व्यवहार। वि० दोस्तों या मित्रों का-सा। दोस्तों या मित्रों की तरह का। जैसे—दोस्ताना बरताव।
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दोस्ती  : स्त्री० [फा०] १. दोस्त अर्थात मित्र होने की अवस्था या भाव। २. स्त्री और पुरुष का होनेवाला पारस्परिक अनुचित संबंध। (बाजारू)
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दोस्तीरोटी  : स्त्री० [फा० दोस्ती+हिं० रोटी] दो परतोंवाला एक तरह का पराठा जो लोइयाँ बेलकर और साथ मिलाकर बनाया जाता है। दुपड़ी।
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दोह  : पुं०=द्रोह।
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दोहग  : पुं०=दोहगा। (राज०)
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दोहगा  : स्त्री० [सं० दुर्भगा] पर-पुरुष के साथ पत्नी के रूप में रहनेवाली विधवा स्त्री।
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दोहज  : पुं० [सं०] दूध।
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दोहड़ा  : वि०=दोहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहता  : पुं० [सं० दौहित्र] [स्त्री० दोहती] लड़की का लड़का। नाती। नवासा।
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दोहती  : स्त्री० १.=दोस्ती। २.=दोस्ती-रोटी। स्त्री० हिं० ‘दोहता’ का स्त्री०।
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दोहत्थड़  : वि० [हिं० दो+हाथ] दोनों हाथों से किया जाने या होने वाला। जैसे—दोहत्थड़ मार पड़ना। पुं० ऐसा आघात या प्रहार जो दोनों हाथों की हथेलियों से एक साथ हो। क्रि० वि० दोनों हाथों की हथेलियों से एक साथ प्रहार करते हुए। जैसे—दोहत्थड़ छाती या सिर पीटना।
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दोहत्था  : वि० [हिं० दो+हाथ] [स्त्री० दोहत्थी] १. दोनों हाथों से किया जानेवाला। जैसे—दुहत्थी मार। २. जिसमें हत्थे या दस्ते लगे हों। दो मूठोंवाला। क्रि० वि० दोनों हाथों से।
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दोहत्थाशासन  : पुं०=द्विदल शासन।
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दोहत्थी  : स्त्री० [हिं० दो+हाथ] मालखंभ की एक कसरत जिसमें माल खंभ को दोनों हाथों से कुहनी तक लपेटा जाता है और फिर जिधर का हाथ ऊपर होता है उधर की टाँग को उठाकर मालखंभ को पकड़ा जाता या उस पर सवारी की जाती है।
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दोहद  : पुं० [सं० दोह√दा (देना)+क] १. गर्भकाल में गर्भवती स्त्री के मन में उत्पन्न होनेवाली अनेक तरह की इच्छाएँ या कामनाएँ। २. वह काम, चीज या बात जिसकी उक्त अवस्था और रूप में इच्छा या कामना होती हो। ३. गर्भवती रहने या होने की दशा में होनेवाली मिचली या ऐसा ही कोई सामान्य शारीरक विकार। डकौना। ४. गर्भवती होने की अवस्था या भाव। ५. गर्भवती होने के चिह्न या लक्षण। ६. भारतीय साहित्य में, कविसमय के अनुसार कुछ विशिष्ट पौधों, वृक्षों आदि के सम्बन्ध में यह मान्यता कि जब वे खिलने या फूलने को होते हैं, तब उनमें गर्भवती स्त्रियों की तरह कुछ इच्छाएँ और कामनाएँ होती हैं जिनकी पूर्ति होने पर वे जल्दी, समय से पहले और खूब अच्छी तरह खिलने या फूलने लगते हैं। जैसे—सुन्दरी स्त्री के पैरों की ठोकर से अशोक, पान की पाक थूकने से मौलसिरी, गाने से गम या नाचने से कचनार लिखने अथवा फलने-फूलने लगते हैं। (दे० ‘वृक्ष दोहद’) ७. फलित ज्योतिष के अनुसार यात्रा के समय ऐसी विशिष्ट चीजें खाने या पीने का विधान जिनसे तिथि, दिशा, वार आदि से संबंध रखनेवाले दोषों का परिहार या शान्ति होती है।
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दोहदवती  : स्त्री० [सं० दोहद+मतुप् ङीप्] गर्भवती स्त्री। गर्भिणी।
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दोहदान्विता  : स्त्री० [सं० दोहद+अन्वित तृ० त०]= दोहदवती।
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दोहदी (दिन्)  : वि० [सं० दोहद+इनि] जिसे प्रबल इच्छा हो। स्त्री० गर्भवती स्त्री।
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दोहदोहीय  : पुं० [सं०] एक प्रकार का वैदिक गीत या साम।
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दोहन  : पुं० [सं०√दुह् (दुहना)+ल्युट्—अन्] गाय-भैंस आदि के स्तनों से दूध निकालने की क्रिया या भाव। पुं०=दोहनी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहना  : स० [सं० दोष+ना] १. दोष लगाना। दूषित ठहराना। २. तुच्छ या हीन ठहराना। स०=दूहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहनी  : स्त्री० [सं० दोहन] १. दूध दुहने की क्रिया या भाव। २. [सं० दोहन+ङीप्] वह पात्र जिसमें दूध दुहा जाता हो।
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दोहर  : स्त्री० [हिं० दो+धड़ी=तह] दो पाटोंवाली चादर। दोहरी सिली हुई चादर।
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दोहर-कम्मा  : पुं० [हिं० दोहरा+काम] व्यर्थ परिश्रम करके दोबारा किया जाने वाला ऐसा काम जो पहली बार ही ठीक तरह से किया जा सकता था।
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दोहराना  : स० [हिं० दोहरा] १. दोहरा करना। २. दोबारा करना। दोहराना। अ० १. दोहरा होना। २. दोबारा किया जाना। दोहराया जाना।
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दोहरक  : पुं० [हिं० दो+हरा (प्रत्य०)] [स्त्री० दोहरी] १. दो तहों, परतों या पल्लोंवाला। २. जो दो बार किया जाय या किया जाता हो। जैसे—दोहरी सिलाई। ३. दुगुना। दूना। ४. दो पक्षों पर लागू होनेवाला (कथन)। पुं० १. लगे हुए पानों के दो बीड़े जो एक ही पत्ते में लपेटे हुए हों। २. कतरी हुई सुपारी। पुं० [दोहा] दोहे की तरह का एक छन्द जो दोहे के विषम पादों में एक एक मात्रा घटा देने से बनता है।
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दोहराई  : स्त्री० [हिं० दोहराना] १. दोहराने की क्रिया या भाव। दोबारा कोई काम करना। २. किसी काम को अधिक ठीक बनाने के लिए उसे अच्छी तरह देखना। ३. दोहराने के बदले में मिलनेवाला पारिश्रमिक।
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दोहराना  : स० [हिं० दोहरा] १. किसी चीज को दो तहों या परतों में मोड़ना। दोहरा करना। २. कोई काम या बात फिर से उसी प्रकार करना या कहना। पुनरावृत्ति करना। ३. किये हुए काम को फिर से आदि से अंत तक इस दृष्टि से देखना कि उसमें कहीं कोई कसर या भूल तो नहीं रह गयी है। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—देना।
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दोहरापाट  : पुं० [हिं० दोहरी+पट] कुश्ती का एक पेंच।
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दोहल  : पुं० [सं० दोह√ला (लेना)+क] दोहद। (दे०)
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दोहलवती  : वि० [सं० दोहल+मतुप् ङीप्]=दोहदवती।
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दोहला  : वि० स्त्री० [हिं० दो+हल्ला] दो बार की ब्याही हुई (गाय या भैंस)। (गौ या भैंस) जो दो बार बच्चा दे चुकी हो।
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दोहली  : वि० [सं०] १. अशोक वृक्ष। २. आक। मदार। स्त्री० [?] ब्राह्मण को दान करके दी हुई जमीन।
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दोहा  : पुं० [सं० दोधक या द्विपदा] १. चार चरणोंवाला एक प्रसिद्ध छंद जिसके पहले और तीसरे चरणों में १३-१३ और दूसरे तथा चौथे चरणों में ११-११ मात्राएँ होती हैं। २. संगीत में, संकीर्ण राग का एक भेद।
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दोहाई  : स्त्री०=दुहाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहाक  : पुं०=दोहाग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहाग  : पुं० [सं० दौर्भाग्य] दुर्भाग्य। बदनसीबी।
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दोहागा  : पुं० [हिं० दोहाग] [स्त्री० दोहागिन] अभागा। बदकिस्मत।
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दोहान  : पुं० [देश०] गौ का जवान बछड़ा।
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दोहाव  : पुं०=दुहाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोहित  : पुं०=दोहता (दौहित्र)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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दोही (हिन्)  : वि० [सं०√दुह+घिनुण्] दूहनेवाला। पुं० ग्वाला। स्त्री० [हिं० दो] एक प्रकार का छंद जिसके पहले और तीसरे चरण में १५-१५ और दूसरे तथा चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं। इसके अंत में एक लघु होना आवश्यक है।
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दोहिया  : पुं० [?] एक प्रकार का पौधा। वि० [हिं० दूहना] दूहनेवाला।
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दोहुर  : स्त्री० [देश०] अधिक बलुई जमीन।
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दोह्य  : वि० [सं०√दुह+ण्यत्] जो दूहा जा सके। दूहे जाने के योग्य। पुं० १. दूध। २. ऐसे मादा पशु जो दूहे जाते या दूध देते हों।
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दोह्या  : स्त्री. [सं० दोह्य+टाप्] गाय।
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दोवारिक  : पं० [सं० द्वार+ठक्—इक] [स्त्री० दौवारिकी] १. द्वारपाल। २. एक प्रकार के वास्तुदेव।
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