शब्द का अर्थ
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बहिरंग :
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वि० [सं० बहिस्-अंग, ब० स०] १. बाहर का। बाहरी। ‘अंतरंग’ का विपर्याय। २. जो किसी क्षेत्र, दल, वर्ग आदि से अलग, बाहर या भिन्न हो। ३. अनावश्यक। फालतू। (क्व०) पुं० १. किसी प्रकार की रचना का बाहरी अंग जो ऊपर से दिखाई देता है। जैसे—इस पुस्तक का अन्तरंग और बहिरंग दोनों बहुत ही सुन्दर है। २. ऐसा व्यक्ति जो यों ही कहीं से आ गया या आ पहुँचा हो। ३. पूजन आदि के आरंभ में किये जानेवाले औपचारिक कृत्य। |
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समानार्थी शब्द-
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बहिर :
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वि०=बहरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बहिरत :
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अव्य० [सं० बहिः] बाहर। |
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बहिरति :
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स्त्री०=बहिरति। |
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बहिरर्थ :
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पुं० [सं० कर्म० स०] बाहर या ऊपर से दिखाई देनावाला उद्देश्य। |
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बहिराना :
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स०=बहराना (बाहर करना)। पुं०=बहराना। |
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बहिरिंद्रिय :
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स्त्री० [सं० बहिस्-इंद्रिय, मध्य० स०] बाह्य विषयों को ग्रहण करनेवाली इंद्रिय। कर्मेन्द्रिय। जैसे—आँख, नाक, कान, आदि। |
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बहिर्गत :
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भू० कृ० [सं० बहिस्-गत, द्वि० त०] १. बाहर आया या निकला हुआ। २. बाहरवाला। बाहर का। ३. अलग, जुदा, पृथक्। |
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बहिर्गमन :
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पुं० [सं० बहिस्-गमन, सुप्सुपा स०] बाहर जाना। बाहर निकलना। |
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बहिर्गामी (मिन्) :
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वि० [सं० बहिस्√गम् (जाना)+णिनि] बाहर या बाहर की ओर जानेवाला। |
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बहिर्गिरि :
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पुं० [सं० बहिस्-गिरि, मध्य० स०] १. पर्वत-माला की बाहरी या सिरे पर की पहाड़ी या पहाड़। २. हिमालय की वह बाहरी श्रृंखला जिसमें ६ हजार फुट तक की ऊँचाई के पर्वत हैं। जैसे—नैनीताल, मसूरी, शिमला आदि। |
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बहिर्जगत् :
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पुं० [सं० बहिस्-जगत्, मध्य० स०] बाह्य अर्थात् दृश्य जगत्। |
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बहिर्जानु :
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अव्य० [सं० बहिस्-जानु, अव्य० स०] हाथों को दोनों घुटनों के बाहर किये हुए या निकाले हुए। |
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बहिर्जीवन :
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पुं० [सं० बहिस्-जीवन, मध्य० स०] १. बाहरी अर्थात् दृश्य और लौकिक जीवन। ‘आध्यात्मिक जीवन’ से भिन्न। २. इस जीवन के आचरण, व्यवहार आदि। |
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बहिर्देश :
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पुं० [सं० बहिस्-देश, मध्य० स०] १. गाँव या नगर के बाहर का स्थान। परदेश। विदेश। ३. अनजानी या नई जगह। |
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बहिर्द्वार :
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पुं० [सं० बहिस्-द्वार, मध्य० स०] घर का बाहरी दरवाजा। |
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बहिर्द्वारी (रिन्) :
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वि० [सं० बरिर्द्वार+इनि] जो घर के बाहर हो या होता हो। पुं० फुटबाल, हाकी आदि का खेल जो खुले मैदानों में खेला जाता हो। (आउटडोर) |
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बहिर्ध्वजा :
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स्त्री० [सं० बहिस्-ध्वजा, ब० स०] दुर्गा। |
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बहिर्भूत :
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वि० [सं० बहिस्-भूत, सुप्सुपा स०] १. जो बाहर हुआ हो। २. बाहर का। बाहरी। ३. अलग। जुदा। पृथक्। |
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बहिर्भूमि :
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स्त्री० [सं० बहिस्-भूमि, मध्य० स०] बस्ती से बाहर की भूमि, जहाँ लोग प्रायः शौच के लिये जाते हैं। |
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बहिर्मनस्क :
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वि० [सं० बहिस्-मनस्, ब० स०+कप] जिसका मन किसी दूसरी तरफ लगा हो। |
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बहिर्मुख :
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वि० [सं० बहिस्-मुख, ब० स०] १. जिसका मुँह बाहर की ओर हो। २. जो प्रवृत्त या दत्तचित्त न हो। पराङ्मुख। विमुख। ३. विपरीत। पुं०=देवता। |
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बहिर्मुखी (खिन्) :
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वि० [सं०] १. जिसका मुँह या अगला भाग बाहर की ओर हो। २. जो बाहर की ओर उन्मुख या प्रवृत्त हो। |
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बहिर्योग :
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पुं० [सं० बहिस्-योग, स० त०] १. बाह्य विषयों पर ध्यान जमाना। २. हठ-योग। |
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बहिर्रति :
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स्त्री० [सं० बहिस्-रति, मध्य० स०] रति के दो भेदों में से एक। ऐसी रति या समागम जिसके अन्तर्गत, आलिंगन, चुंबन, स्पर्श, मर्दन, नखदान, रददान और अधर पान हैं। (लैंगिक’ रति से भिन्न) |
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बहिर्लब :
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पुं० [सं० बहिस्-लंब, मध्य० स०] रेखा गणित में वह लंब जो किसी क्षेत्र के बाहर आये हुए आधार पर आकर गिरता और अधिक कोण बनाता है। |
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बहिर्लापिका :
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स्त्री० [सं० बहिस्-लापिका, ष० त०] एक प्रकार की पहेली जिसमें उसके उत्तर का शब्द उस पहेली के शब्दों में नहीं रहता है। ‘अन्तर्लापिका’ का विपर्याय। |
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बहिर्लोम, बहिर्लोमा (मन्) :
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वि० [सं० बहिस्-लोमन्, ब० स०] जिसके बाल बाहर की ओर निकले हों। |
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बहिर्वाणिज्य :
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पुं० [सं० बहिस्-वाणिज्य, मध्य० स०] किसी देश का दूसरे या बाहरी देशों के साथ होनेवाला वाणिज्य या व्यापार। (एक्स्टर्नल ट्रे़ड) |
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बहिर्वासा (सस्) :
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पुं० [सं० बहिस्-वायस्, मध्य० स०] कोपीन के ऊपर पहनने का कपड़ा। |
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बहिर्विकार :
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पुं० [सं० बहिस्-विकार, मध्य० स०] गरमी नाम की बीमारी। आतशक। |
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बहिर्व्यसन :
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पुं० [सं० बहिस्-व्यसन्, मध्य० स०] [वि० बहिर्व्यसनी] लंपटता। |
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