शब्द का अर्थ
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बाह :
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पुं० [हिं० बाहना] खेत जोतने की क्रिया। खेत की जोताई। पुं०=बाँट। पुं०=वाह। (प्रवाह) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बाहक :
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पुं० [सं० वाहक] [स्त्री० बाहकी] १. ढोने या ले चलनेवाला कहार। उदाहरण—सजी बाहकी सखी सुहाई।—रघुराज। २. कहार। |
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बाहड़ी :
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स्त्री० [देश] वह खिचड़ी जो मसाला और कुम्हड़ौरी डालकर पकाई गई हो। |
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बाहन :
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पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जिसके पत्ते जाड़े के दिनों में झड़ जाते हैं। सफेदा। पुं०=वाहन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बाहना :
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स० [सं० वहन] १. वहन करना। २. उठा या ढोकर ले चलना। २. (अस्त्र-शस्त्र) चलाना या फेंकना। उदाहरण—बाहत अस्त्र नृपति पर आये।—पद्याकर। ३. (जानवर या सवारी) हाँकना। ४. ग्रहण या दारण करना। ५. उत्तरदायित्व, कर्त्तत्व आदि के रूप में अपने ऊपर लेना। अंगीकरण करना। ६. (खेत या जमीन) हल चलाकर जोतना। ७. (गौ० बकरी, भैंस आदि) नर से मिलाकर गाभिन करना। अ० इधर-उधर घूमना। भटकना। उदाहरण—भूलै भरम दुनी कत बाहौ—कबीर। |
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बाहनी :
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स्त्री० [सं० वाहिनी] सेना। फौज। |
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बाहन :
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क्रि० वि० [फा०] एक-दूसरे के प्रति या साथ। आपस में। परस्पर। |
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बाहर :
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अव्य० [सं० बहिस् का दूसरा रूप बहिर] [वि० बाहरी] १. किसी क्षेत्र, घेरे, विस्तार आदि की सीमा से परे। किसी परिधि से कुछ अलग, दूर या हटकर। अंदर और भीतर का विपर्याय। जैसे—यह सामान कमरे के बाहर रख दो। पद—बाहर-बाहर=बिना किसी क्षेत्र घेरे विस्तार के अन्दर आये हुए। बिना अन्तुर्भुक्त हुए। जैसे—वे पटने, से लौटे तो पर बाहर-बाहर लखनऊ चले गये। २. किसी देश या स्थान की सीमा से अलग या दूर अथवा किसी दूसरे देश या स्थान में जैसे—महीने में दस-बारह दिन तो उन्हें दौरे पर बाहर ही रहना पड़ता है। ३. किसी प्रकार के अधिक्षेत्र, मर्यादा संपर्क आदि से भिन्न या रहित। अलग। जैसे—हम आपसे किसी बात में बाहर नहीं है, अर्थात् आप जो कहेगें या चाहेगें हम वही करेगें। ४. बगैर। सिवा। (क्व०) पुं० [हिं० बाहना] वह आदमी जो कुएँ की जगत् पर खड़ा रहकर मोट का पानी नाली में उलटता या गिराता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बाहरजामी :
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पुं० [सं० बाह्ययामी] ईश्वर का सगुण। रूप राम, कृष्ण इत्यादि अवतार। |
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बाहरला :
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वि०=बाहरी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बाहरी :
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वि० [हिं० बाहर+ई (प्रत्यय)] १. बाहर की ओर का। बाहर वाला। भीतरी का विपर्याय। २. जो अपने देश, वर्ग या समाज का न हो। पराया और भिन्न। जैसे—बाहरी आदमी। ३. जो ऊपर या केवल से देखने भर को हो। जिसके अन्दर कुछ तथ्य न हो। जैसे—कोरा बाहरी ठाट-बाट। ४. बिलकुल अलग या भिन्न। उदाहरण—पंच हँसिहै री हो तो पचन तें बाहरी।—देव। |
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बाहस :
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पुं० [डि०] अजगर। |
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बाहाँ-जोरी :
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अव्य० [हिं० बाँह+जोड़ना] हाथ से हाथ मिलाये हुए। |
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बाहा :
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पुं० [हिं० बाँधना] वह रस्सी जिससे नाव का डाँड़ बँधा रहता है। पुं० [हिं० बहना] १. पानी बहने की नहर या नाली। २. वह छेद जिसमें से होकर कोल्हू का तेल या रस बहकर नीचे गिरता है। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बाहिज :
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अव्य० [सं० बाह्म] ऊपर से। बाहर से देखने में। वि०=बाह्म (बाहरी)। |
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बाहिनी :
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वि० स्त्री०=वाहिनी। |
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बाहिर :
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अव्य०=बाहर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बाही :
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वि०=वाही। स्त्री०=[हिं० बाहना] बाहने की क्रिया या भाव। स्त्री० [सं० बाहु०] पहाड़ की भुजा या किसी पक्ष की लंबाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बाहीक :
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पुं०=बाहलीक। |
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बाहु :
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स्त्री० [सं०√बाध्+कु, ह-आदेश] भुजा। बाँह। |
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बाहुक :
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पुं, ० [सं० ०] १. राजा नल का उस समय का नाम जब वे अयोध्या के राजा के सारथी थे २. नकुल का एकनाम। वि०=वाहक। |
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बाहु-कुब्ज :
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वि० [ब० स०] जिसके हाथ कुबड़े या टेढ़े हो। लूला। |
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बाहुगुण्य :
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पुं० [पुं० बहुगुण+ष्यञ्] १. बहु-गुण होने की अवस्था या भाव। बहुत से गुणों का होना। |
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बाहुज :
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पुं० [सं० बाहु√जन्+ड] क्षत्रिय जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के हाथ मे मानी जाती है। वि० बाहु से उत्पन्न या निकला हुआ। |
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बाहुजन्य :
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वि० [सं० बहुजन+ष्यञ्] जो बहुजन अर्थात् बहुत बड़े जनसमाज में फैला अथवा उससे संबंध रखता हो। बहुजन संबंधी। |
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बाहुटा :
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पुं० [सं० बाहु] बाँह पर पहनने का बाजूबंद (गहना)। |
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बाहुडना :
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अ०=बहुरना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बाहुड़ि :
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अव्य०=बहुरि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बाहु-त्राण :
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पुं० [ब० स०] चमड़े या लोहे आदि का वह दस्ताना जो युद्ध में हाथों की रक्षा के लिए पहना जाता है। |
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बाहुदंती (तिन्) :
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पुं० [सं० बहु-दंत, ब० स०+अण्(स्वार्थे)+इनि] इंद्र। |
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बाहुदा :
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स्त्री० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक नदी। २. राजा परीक्षित् की पत्नी। |
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बाहु-पाश :
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पुं० [सं० कर्म० स०] दोनों बाहों को मिलाकर बनाया हुआ वह घेरा जिसमें किसी को लेकर आलिंगन करते हैं। भुज-पाश। |
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बाहु-प्रलंब :
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वि० [सं० ब० स०] जिसकी बाँहें बहुत लंबी हों। आजानु-बाहु। |
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बाहू-बल :
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पुं० [सं० ष० त०] पराक्रम। बहादुरी। |
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बाहु-भूषण :
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पुं० [ष० त०] भुज-बंद नाम का गहना। |
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बाहु-मूल :
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पुं० [ष० त०] कंधे और बाँह का जोड़। |
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बाहु-युद्ध :
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पुं० [ष० त०] कुश्ती। |
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बाहु-योधी (धिन्) :
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पुं० [सं० बाहु√युध्+णिनि] कुश्ती लड़नेवाला। पहलवान। |
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बाहुरना :
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अ०=बहुरना। |
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बाहुरूप्य :
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पुं० [सं० बहुरूप+ष्यञ्] बहुरूपता। |
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बाहुल :
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पुं० [सं० बहुल+अण्] १. युद्ध के समय हाथ में पहनने का एक उपकरण जिससे हाथ की रक्षा होती थी। दस्ताना। २. कार्तिक मास ३. अग्नि। आग। |
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बाहुल-ग्रीव :
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पुं० [सं० ब० स०] मोर। |
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बाहुल्य :
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पुं० [सं० बहुल+ष्यञ्] बहुल होने की अवस्था या भाव। बहुतायत। अधिकता। ज्यादती। |
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बाहु-विस्फोट :
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पुं० [सं० ष० त०] ताल ठोंकना। |
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बाहु-शाली (लिन्) :
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पुं० [सं० बाहु√शाल्+णिनि] १. शिव। २. भीम। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र। ४. एक दानव। |
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बाहुशीष :
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पुं० [सं० ष० त०] बाँह में होनेवाला एक प्रकार का वायु रोग जिसमें बहुत पीड़ा होती है। |
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बाहु-श्रुत्य :
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पुं० [सं० बहुश्रुत्य+ष्यञ्] बहुश्रुत होने की अवस्था या भाव। बहुत सी बातों को सुनकर प्राप्त की हुई जानकारी। |
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बाहु-संभव :
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पुं० [सं० ब० स०] क्षत्रिय, जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा की बाँह से मानी जाती है। |
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बाहु-हजार :
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पुं०=सहस्रबाहु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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बाहू :
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स्त्री०=बाहु। |
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बाह्मन :
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पुं०=ब्राह्मण। |
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बाह्म :
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पुं० [सं०=बहिस्+यञ्, लि-लोप] १. बाहरी। बाहर का। २. प्रस्तुत विषय से भिन्न। ३. किसी भूल से अलग या भिन्न। जैसे—ब्राह्म प्रभाव। ४. समस्त पदों के अंत में क्षेत्र परिदि सीमा के बाहर रहने या होनेवाला। जैसे—आलंबन ब्राह्य=स्वयं आलंबन में न होकर उससे अलग और खुले हुए स्थान में होनेवाला। जैसे—ब्राह्य खेल। पुं० [सं० बाह्म] १. भार ढोनेवाला पशु। जैसे—बैल आदि। २. यान। सावरी। |
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बाह्य-द्रुति :
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पुं० [सं० कर्म० स०] पारे का एक संस्कार। (वैद्यक) |
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बाह्य-नाम :
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पुं० [सं० कर्म० स०] किसी का नाम और ठिकाना जो उसे भेजे जानेवाले पत्र के ऊपर लिखा जाता है। ठिकाना। पता। (एड्रेस) |
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बाह्यनामिक :
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पुं० [सं० वाह्मनामन्+ठक्—इक] वह जिसके नाम पर पते से पत्र या और कोई चीज भेजी गई हो। (एड्रेसी) |
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बाह्य-पटी :
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स्त्री० [सं० कर्म० स०] नाटक का परदा। (यवनिका। |
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बाह्यप्रद :
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पुं० [सं० कर्म० स०] वह जो किसी चीज के बिलकुल अन्तिम सिरे पर स्थित हो। विस्तार के अन्तिम भाग का अंश। (एक्ट्रीम) |
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बाह्य-प्रयत्न :
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पुं० [सं० कर्म० स०] व्याकरण में कंठ से लघु ध्वनि उत्पन्न करने के उपरांत होनेवाली क्रिया या प्रयत्न। इसके घोष और अघोष दो भेद हैं। |
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बाह्य-रति :
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स्त्री० [सं० कर्म० स०] आलिंगनस, चुबन आदि कार्य जो बाहरी रति के विशेष रूप माने गये हैं। |
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बाह्य-रूप :
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पुं० [सं० कर्म० स०] ऊपरी या बाहरी रूप। दिखाऊ रूप। |
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बाह्यवासी :
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वि० [सं० वाह्म√वस् (निवास)+णिनि, उप० स०] बस्ती के बाहर रहनेवाला। पुं० चांडाल। |
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बाह्य-विद्रधि :
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स्त्री० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर के किसी स्थान में सूजन और फाडे़ की सी पीड़ा होती है। इसमें रोगी के मुँह अथवा गुदा से मवाद भी निकलती है। |
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बाह्य-वृत्ति :
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स्त्री० [सं० कर्म० स०] प्राणायाम का एक भेद जिसके अन्दर से निकलते हुए श्वास को धीरे-धीरे रोकते हैं। |
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बाह्यांचल :
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वि० [सं० बाह्म-अंचल, कर्म० स०] बस्ती के बाहर का स्थान। (आउटस्कर्टस) |
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बाह्यांतर :
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वि० [सं० ] बाहर और अंदर दोनों का। जैसे—ब्राह्मांतर शुद्धि। क्रि० वि० बाहर और अन्दर दोनों ओर। |
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बाह्यचरण :
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पुं०=बाह्माचार। |
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बाह्याचार :
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पुं० [सं० बाह्य-अचार, कर्म० स०] वह आचरण विशेषतः धार्मिक या नैतिक आचरण जो केवल दूसरों को दिखलाने के लिए हो शुद्ध मन से न हो। आडम्बर। ढकोंसला। |
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बाह्याभ्यंतर :
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पुं० [सं० द्व० स०] प्राणायाम का एक भेद जिससे आते और जाते हुए श्वास को कुछ-कुछ रोकते रहते हैं। |
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बाह्याभ्यंतराक्षेपी (पिन्) :
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पुं० [सं० बाह्याभ्यंतर-आक्षेप, ष० त०+इनि, दीर्घ, न-लोप] प्राणायाम का एक भेद जिसमें श्वास वायु को भीतर से बाहर निकलते समय निकलने न देकर उलटे लौटाते और अन्दर जाने के समय उसको बाहर रोकते हैं। |
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बाह्येंद्रिय :
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स्त्री० [सं० बाह्मा-इंद्रिय, कर्म० स०] आँख, कान, नामक, जीभ और त्वचा ये पाँच इंद्रियाँ जिनसे बाहरी विषयों का ज्ञान होता है। |
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बाहलीक :
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पुं०=वाहलीक। |
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