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वृत्ति  : स्त्री० [सं०√वृ (वरण करना)+क्तिन्] १. वह जिसने कोई चीज घेरी या ढकी जाय। २. नियुक्ति। ३. छिपाना। गोपन।
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वृत्ति  : स्त्री० [सं०√वृत्त+क्तिन्] १. चक्कर खाना। घूमना। २. किसी वृत्त या गोल की परिधि। वृत्त। ३. वर्तमान होने की अवस्था, दशा या भाव। ४. चित्त, मन आदि का कोई व्यापार। जैसे—चित्तवृत्ति। ५. उक्त के आधार पर योग में चित्त की विशिष्ट अवस्थाएँ जो पाँच प्रकार की मानी गई है। यथा-क्षिप्त, मूढ विक्षिप्त, एकाग्र और विरुद्ध। ६. कोई ऐसी क्रिया गति जिसके फलस्वरूप कुछ होता हो। कार्य। व्यापार। ६. कोई काम करने का ढंग या प्रकार। ७. आचरण और व्यवहार तथा इनसे संबंध रखनेवाला शास्त्र। आचार-शास्त्र। ८. वह कार्य या व्यापार जिसके द्वारा किसी की जीविका चलती हो। जीवन निर्वाह का साधन। धंधा। पेशा। जैसे—आकाश, वृत्ति, यजमानी वृत्ति, वेश्यावृत्ति, सेवावृत्ति आदि। ९. जीविका निर्वाह भरण पोषण आदि के लिए नियमित रूप से मिलनेवाला धन। जैसे— छात्रवृत्ति। १॰. किसी ग्रन्थ विशेषतः सूत्रग्रन्थ का अर्थ और आशय स्पष्ट करनेवाली संक्षिप्त परन्तु गंभीर टीका या व्याख्या। जैसे—अष्टाध्यायी की कोशिका वृत्ति। ११. शब्दों की अभिधा, लक्षणा और व्यंजना नाम की अर्थ-बोधक शक्तियाँ। शब्द-शक्ति। १२. व्याकरण में ऐसी गूढ़ वाक्य-रचना जिसकी व्याख्या करनी पड़ती हो। १३. नाटको में आशय और भाव प्रकट करने की एक विशिष्ट शैली जिसे कुछ आचार्य काव्य की रीतियों के अन्तर्गत और कुछ शब्दालंकार के अन्तर्गत मानते हैं। विशेष—प्राचीन आचार्य कायिक और मानसिक चेष्टाओं को ही वृत्ति मानते थे, परन्तु परवर्ती आचार्यों ने इसे विकसित और विस्तृत करके इन्हें काव्यगत रीतियों के समकक्ष कर दिया था, और इनके ये चार भेद कर दिये थे-कौशिकी, आरभटी, भारती और सात्वती तथा अलग-अलग रसों के लिए इनका अलग-अलग विधान कर दिया गया था। नाटको में भिन्न-भिन्न रसों के साथ अलग-अलग वृत्तियों का संबंध होने के कारण प्रत्येक रस के लिए अनुकूल और उपर्युक्त वर्ण रचना को भी ‘वृत्ति’ कहने लगे थे, जिससे वृत्यनुप्रास पद बना है। परवर्ती आचार्यों ने इन वृत्तियों का नाटकों के सिवा काव्य में भी आरोप किया था, और इनके उपनागरिका, कोमला, परुषा आदि भेद निरूपित किये थे। नाट्यशास्त्र की प्रवृत्ति, और वृत्ति के लिए दे० प्रवृत्त ६ का विशेष। १५. वृत्तान्त। हाल। १६. प्रकृति। स्वभाव। १७. प्राचीन काल का एक प्रकार का संहारक अस्त्र।
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वृत्ति-कर  : पुं० [सं० ष० त०] वह कर जो कोई पेशा या वृत्ति करनेवाले लोगों पर लगता है। पेशे पर लगनेवाला कर (प्रोफेशन टैक्स)।
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वृत्तिकार  : पुं० [सं० वृत्ति√कृ+घञ्] वह जिसने वार्तिक लिखा हो। व्याख्या ग्रन्थ लिखनेवाला।
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वृत्ति-विरोध  : पुं० [सं० स० त] भारतीय साहित्य में रतना का एक दष जो उस समय माना जाता है जब वृत्तियों (विशेष दे० वृत्ति ५ और ६) के नियमों का ठीक तरह से पालन नहीं होता। जैसे—श्रृंगार रस के वर्णन में परुष वर्णों का प्रयोग करना वृत्ति-विरोध है।
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