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अप्रस्तुत  : वि० [सं० न० त०] १. जो प्रस्तुत या सामने न हो। अनुपस्थित। २. जो उद्यत या तैयार न हो। ३. जिसका वर्तमान या वर्ण्य विषय से कोई प्रत्यक्ष संबंध न हो। ४. अप्रासंगिक। पुं० साहित्य में कोई अलग या दूर का ऐसा विषय या व्यक्ति जिसकी चर्चा किसी प्रस्तुत मुख्य वर्ण्यविषय या व्यक्ति को चरचा के समय उपमा तुलना आदि के रूप में अथवा यों हि प्रसंग-वश या गौण रूप से होती है। ‘प्रस्तुत’ का विपर्याय।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
अप्रस्तुत-प्रशंसा  : स्त्री० [ष० त०] साहित्य में एक अलंकार जिसमें कोई उद्देश्य सिद्धि करने या किसी की प्रशंसा आदि करने के लिए प्रस्तुत की चर्चा न करके अप्रस्तुत की चर्चा की जाती है और उसी से प्रस्तुत का ज्ञान कराया जाता है। (इन्डाइरेक्ट डिस्क्रिप्शन) जैसे—(क) उसके मुख के सामने चंद्रमा पानी भरता है। (ख) यह कहना कि कमलों से कोमलता, चंद्रमा से प्रकाश, सोने से रंग और अमृत से माधुर्य लेकर यह मुख बनाया गया है। (साहित्यकारों ने इसके पाँच भेद माने है।) यथा कारण-निबंधता, कार्य-निबंधना, विशेष—निबंधना, सामान्य-निबंधना और सारूप्य-निबंधना।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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