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ओ  : हिंदी वर्णमाला का दसवाँ स्वर वर्ण। भाषा विज्ञान और व्याकरण की दृष्टि से यह अर्द्ध संवृत दीर्घ पश्च स्वर है। पूर्वी हिंदी में यह ‘वह’ का वाचक है। जैसे—ओकर=उसका। पुं० [सं० ] ब्रह्मा।
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ओं  : पुं० [सं० ] परब्रह्म का वाचक शब्द। प्रणव मंत्र।
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ओंइछना  : स० [सं० अंचन=पूजा करना] निछावर करना। वारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओंकना  : अ० [अनु] १. खिंचना। २. दूर करना। हटना। उदाहरण—कांदि उठी कमला मन सोचति मोसों कहा हरि को मन ओंको।—सुदामा। अ० दे० ‘ओकना’।
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ओंकार  : पुं० [सं० ओं+कार] १. ‘ओं’ शब्द जो परब्रह्म का वचाक है। २. सोहन चिड़ियाँ नामक पक्षी। ३. उक्त पक्षी पर जो शोभा के लिए टोपी, पगड़ी आदि में लगाया जाता है।
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ओंकार-नाथ  : पुं० [कर्म० स०] शिव के बारह लिंगों में से एक।
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ओंगन  : पुं० [हिं० ओंगना] गाड़ी की धुरी में दिया जानेवाला तेल।
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ओंगना  : स० [सं० अञ्जन] गाड़ी की धुरी में तेल देना।
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ओंगा  : पुं० [सं० अपामार्ग] चिचड़ा। लटजीरा।
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ओंठ  : पुं० [सं० ओष्ठ, प्रा० ओट्ठ] मुँह के ऊपर और नीचे के दोनों बाहरी मांसल परत या भाग। होंठ। मुहावरा—ओंठ काटना या चबाना=अत्यधिक क्रुद्ध होने पर अपने आपको प्रतिकार करने से बलपूर्वक रोकना। ओठ चाटना=कोई स्वादिष्ट वस्तु खाने के समय ओंठों पर जीभ फेरते हुए उसका और अधिक स्वाद लेना। ओंठ फड़कना=क्रोध प्रकट करने या कुछ कहने के लिए आतुरता के लक्षण के रूप में ओंठों का रह-रहकर हिलना। ओंठों में कहना=बहुत मंद स्वर में कुछ कहना। बहुत धीरे-धीरे कहना या बोलना। ओंठो में मुस्कराना=बहुत धीरे-धीरे हँसना। ओंठ हिलना=बहुत देर तक मौन रहने के बाद मुँह से कोई बात निकलना। ओंठ हिलाना=बहुत कठिनता से कुछ कहना या बोलना। कोई बात ओंठों पर होना=विस्मृत बात फिर से स्मरण होने पर मुँह से निकलने को होना।
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ओंड़ा  : वि० [सं० कुंडी] गहरा। पुं० १. गड्ढा। २. सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओंहट  : क्रि० वि० [हिं० ओट का पू रूप] १. ओट या आड़ में० २. दूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओआ  : पुं० [हिं० चोआ=गड्ढा] हाथी फँसाने के लिए बनाया हुआ गड्ढा।
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ओई  : पुं० [देश] एक प्रकार का वृक्ष। वि०=वही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओऊ  : वि० [हिं० ओ-वह+ऊ+भी] वह भी। उदाहरण—जद्यपि मीन पतंग हीनमति मोहिं नहिं पूजहिं ओऊ।—तुलसी।
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ओक  : पुं० [सं० उच् (समूह)+क, नि० सिद्धि] १. निवास स्थान। रहने की जगह। २. घर। मकान। ३. आश्रय। ठिकाना। उदाहरण—ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ…—तुलसी। ४. ढेर। राशि। ५. ग्रहों, नक्षत्रों आदि का समूह। स्त्री० [अनु०] कै। मिचली। पुं० [हिं० बूक] अंजलि। अंजुली।
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ओकण  : पुं० [सं० ] १. खटमल। २. जूँ।
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ओकना  : [अनु] १. ओ ओ करते हुए कै या वामन करना। २. भैंस आदि की तरह चिल्लाना।
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ओक-पति  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य। २. चंद्रमा।
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ओकाई  : स्त्री० [हिं० ओकना] १. ओकने या ओकाने की क्रिया या भाव। २. कै करने को जी चाहना। जी मिचलाना। मिचली होना। ३. कै। वमन।
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ओकार  : पुं० [सं० ओ+कार] १. ‘ओ’ स्वर वर्ण या उसकी ध्वनि। २. ‘ओ’ की सूचक मात्रा।
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ओकारांत  : वि० [सं० ओकार-अंत, ब० स०] (शब्द) जिसके अंत में ‘ओ’ की मात्रा हो।
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ओकी  : स्त्री०=ओकाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओखद  : पुं०=ओषध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओखरी  : स्त्री०=ऊखल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओखल  : पुं०=ऊखल। पुं० [सं० ऊपर] परती भूमि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओखली  : स्त्री० दे० ‘ऊखल’।
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ओखा  : वि० [हिं० चोखा का अनु] १. जो चोखा या तेज न हो। साधारण या हलका। जैसे—ओखा वार। २. जिसकी धार तेज न हो। जैसे—ओखा चाकू। ३. रूखा-सूखा। ४. कठिन। विकट। ५. जो खरा या शुद्ध न हो। मिलावटवाला। ६. (वस्त्र) जिसकी बुनावट ठस न हो। झीना। ७. जो आस-पास या सटा न हो। विरल। पुं० [सं० ओख=वारण ?] बहाना। मिस।
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ओखाण (न)  : पुं०=उपाख्यान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओखापन  : पुं० [हिं० ओखा] ओखे होने की अवस्था या भाव।
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ओग  : पुं० [हिं० उगहना] कर, चन्दे आदि के रूप में उगाहा हुआ धन। उगाही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओगरना  : अ० [सं० अवगरण] १. पानी आदि का जमीन में से धीरे-धीरे निकलना। रसना। २. किसी पात्र से जल आदि टपकना। स० दे० ‘ओगारना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओगल  : पुं० [सं० ऊषर] १. ऊसर या परती भूमि। २. एक प्रकार का कुआँ।
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ओगारना  : स० [हिं० ओगरना का स० रूप] १. टपकना। २. जल या कोई तरल वस्तु उलीचकर बाहर निकालना या फेंकना। ३. कुएँ को साफ करने के लिए गंदा पानी बाहर निकालना।
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ओघ  : पुं० [सं०√उच् (समूह)+घञ्, पृषो० सिद्धि] १. ढेर। राशि। समूह। २. घनता। घनत्व। ३. पानी की धार या बहाव। ४. सांख्य के अनुसार एक प्रकार की तुष्टि। काल-तुष्टि।
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ओछ  : वि०=ओछा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओछना  : स०=ओंइछना।
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ओछा  : वि० [सं० तुच्छ, प्रा० उच्छ] [स्त्री० ओछी] १. तुच्छ। हीन। २. जिसमें गंभीरता या प्रौढ़ता न हो। जिसमें छिछलापन हो। जैसे—ओछा व्यक्ति, ओछी बात-चीत। ३. जिसमें शालीनता या शिष्टता का अभाव हो। जैसे—ओछा वार।
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ओछाई  : स्त्री० =ओछापन।
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ओछापन  : पुं० [हिं० ओछा+पन (प्रत्यय)] ओछे होने की अवस्था या भाव।
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ओज (स्)  : पुं० [सं० उब्ज् (सीधा होना)+असुन्, बलोप] [वि० ओजस्वी, ओजित] १. वह सक्रिय शारीरिक शक्ति जिसके आधार पर प्राणी जीवित रहते हैं तथा परिश्रम, साहस आदि के काम करते हैं। (विगर)। विशेष—वैद्यक के अनुसार, यह शरीर में बननेवाले रसों का भाग है। २. साहित्य में कविता, भाषण लेख आदि का वह गुण जिससे सुननेवाले के चित्त में आवेश, साहस आदि का संचार होता है। ३. उजाला। प्रकाश।
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ओजना  : स० [सं० अवरुन्धन, प्रा० ओरुज्झन, हिं० ओझल] १. (भार) अपने ऊपर लेना। अंगीकरण या धारण करना। २. (आघात या वार) अपने ऊपर लेना। सहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओजस्विता  : स्त्री० [सं०√ओजस्विन्+तल्-टाप्] ओजस्वी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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ओजस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० ओजस्+इनि] [स्त्री० ओजस्विनी] १. (व्यक्ति) जिसमें ओज हो। शक्तिशाली। २. (तत्त्व) जिसमें ओज हो। प्रभावशाली। जैसे—ओजस्वी भाषण। ३. तेजपूर्ण। जैसे—ओजस्वी आचरण।
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ओजित  : वि० [सं०√ओज्+क्त] १. ओज से युक्त किया हुआ। २. ओज-युक्त।
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ओझ  : पुं० [सं० उदर, पुं० हिं० ओझ] १. पेट की थैली। २. आँत। पु० [सं० उपाध्याय, हिं० ओझा] उपाध्याय, पंडित या विद्वान। उदाहरण—तुलसी रामहिं परिहरे निपट हानि, सुनु ओझ।—तुलसी।
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ओझइती  : स्त्री० [हिं० ओझा] ओझा का कार्य,पद या व्यवसाय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओझर  : पुं० [सं० उदर, पुं० हिं० ओदर, ओझर] [स्त्री० अल्प० ओझरी] १. पेट की थैली। २. आँत। अँतड़ी।
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ओझरी  : स्त्री० ओझर। उदाहरण—ओझरी की झोरी काँधे, आँतनि की सेल्ही बाँधे…।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओझल  : वि० [प्रा० ओरुज्झन] १. जो आँखों से दूर या परे अर्थात् अदृश्य हो गया हो। २. छिपा या लुका हुआ। पुं० आड़। ओट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओझा  : पुं० [सं० उपाध्याय, प्रा० उवज्झाअ] [स्त्री० ओझाइन] १. सरयूपारी, मैथिल, गुजराती आदि ब्राह्मणों की एक जाति या वर्ग का अल्ल। २. भूत-प्रेत आदि झाड़नेवाले व्यक्ति। सयाना।
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ओझाई  : स्त्री० [हिं० ओझा] १. ओझा का काम, पद या वृत्ति। २. भूत-प्रेत आदि झाड़ने का काम या वृत्ति।
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ओझैती  : स्त्री०=ओझाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओट  : स्त्री० [सं० ओढ़=पास लाया हुआ] १. ऐसी आड़ या रोक जिसके पीछे कोई छिप सके। ऐसी वस्तु जिसके पीछे छिपने से सामनेवाला व्यक्ति देख न सके। पद—ओट में दूसरों से छिपकर। मुहावरा—ओट में शिकार खेलना=आड़ में रहकर आगात या वार करना। २. रक्षा या शरण का स्थान पनाह। उदाहरण—नाम ओट लेत ही निखोट होत खोटे खल...।—तुलसी।
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ओटना  : स० [सं० आवर्त्तन, पा० आवट्ठन] १. कपास या रूई को इस प्रकार ओटनी में से निकालना कि उसके बिनौले अलग हो जायँ। २. अपनी ही बात बराबर कहते या दोहराते चलना। [हिं० ओट=आड़] आड़ या ओट में होना। छिपना। स०=ओड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओटनी  : स्त्री० [हिं० ओटना] लकड़ी या लोहे का वह उपकरण या चरखी जिससे कपास में से बिनौले अलग किये जाते हैं।
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ओट-पाई  : स्त्री०=औटपाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओट-पाय  : पुं०=औटपाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओटा  : पुं० [हिं० ओट] १. ओट या आड़ करने के लिए खड़ी की हुई दीवार। २. आड़। ओट। उदाहरण—घर घर सावन खेलैं अहेरा पाथर ओटा लेइ।—कबीर। ३. चक्की के पास का वह स्थान जहाँ बैठकर चक्की पीसी जाती है। ४. दरवाजे के दोनों ओर बैठने के लिए छोटे चबूतरे। ५. सुनारों का एक औजार।
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ओटी  : स्त्री०=ओटनी (चरखी)।
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ओठँगना  : अ०=ओठंगना।
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ओठंगना  : अ० [सं० अवस्तम्भ] टेक लगाकर बैठना या खड़े होना। उठंगना।
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ओठ  : पुं०=ओंठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओड़  : पुं० [सं० ओड्र] वह जो गधों, बैलों आदि पर बोझ लादकर एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने का काम करता हो। पुं०=ओट (आड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओड़क  : पुं० [सं० ओड+कन्]=ओडव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओड़चा  : पुं०=ओलचा।
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ओड़न  : पुं० [हं० ओड़नामाल ढोना] १. गधों, बैलों आदि पर माल ढोने का काम या व्यवसाय। २. इस प्रकार ढोकर पहुँचाया जानेवाला माल या सामान। उदाहरण—ओड़न मेरा राम नाम, मैं रामहिं का बनिजारा हो।—कबीर। पुं० [हिं० ओड़ना=रोकना या सहना] १. ओड़ने की क्रिया या भाव। २. आघात या वार ओड़ने या रोकनेवाली चीज। जैसे—ढाल, फरी आदि।
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ओड़ना  : स० [हिं० ओट] १. आघात या प्रहार रोकने या सहने के लिए बीच में कोई आड़ या ओट खड़ी करना या कोई चीज आगे बढ़ाना। उदाहरण—(क) एक कुसल अति ओड़न खाँड़े।—तुलसी। (ख) ओड़ि अहिं हाथ असिनहु के घाए।—तुलसी। २. कुछ माँगने या लेने के लिए झोली, कपड़े का पल्ला या हाथ बढ़ाना या फैलाना। उदाहरण—तजि रघुनाथ हाथ और काहि ओड़िए।—तुलसी। ३. दे० ‘ओढ़ना’। स० [हिं० ओड़] गधे, बैल आदि पर माल लादकर एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना।
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ओड़व  : पुं० [सं० ] ऐसा राग जिसमें केवल पाँच स्वर लगते हों, कोई दो स्वर न लगते हों। (संगीत)।
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ओड़व-संपूर्ण  : पुं० [सं० ] ऐसा राग जिसके आरोह में पाँच और अवरोह में सातों स्वर लगते हों। (संगीत)।
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ओड़व-षाड़व  : पुं० [सं० ] ऐसा राग जिसके आरोह में पाँच और अवरोह में छः स्वर लगते हैं। (संगीत)।
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ओड़ा  : पुं० [?] १. गड्ढा। २. सेंध। ३. बड़ा टोकरा० खाँचा। पुं० [हिं० ओत] कमी। न्यूनता। मुहावरा—(किसी चीज का) ओड़ा पढ़ना=दुर्लभ या दुष्प्राप्य होना।
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ओडिका  : स्त्री० [सं० ओडी+क-टाप्, ह्स्व] ऐसा धान जो बिना बोये आपसे आप उत्पन्न होता हो।
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ओडी  : स्त्री० [सं०√उ (शब्द करना)+ड-ङीष्]=ओडिका।
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ओड़्र  : पुं० [सं०√आउन्द(भिगोना)+रक्, दड] १. उड़ीसा प्रदेश का प्राचीन नाम। २. उक्त प्रदेश का निवासी। ३. आडहुल का पेड़ और उसका फूल।
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ओढ़  : वि० [सं० आ√वह् (ढोना)+क] जो पास लाया गया हो।
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ओढ़न  : पुं० [हिं० ओढ़ना] ओढ़ने की चादर। ओढ़ना। उदाहरण—लोभइ ओढ़न लोभइ डासन।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओढ़ना  : स० [सं० उपवेष्टन, प्रा० ओवेड्ढन] १. अंग या अंगों को अच्छी तरह से ढकने के लिए शरीर पर कोई वस्त्र रखना या लपेटना। मुहावरा—(किसी का) ओढ़ना उतारना=अपमानित करना। ओढ़ना ओढ़ाना=विधवा स्त्री को पत्नी बनाना। विधवा के साथ विवाह करना। २. धारण करना। पहनना। उदाहरण—तुलसी पट उतरे ओढ़िहौं…।—तुलसी। पुं० तन ढकने के लिए ऊपर से डाला जानेवाला वस्त्र। पद—ओढ़ना-बिछौना=ऐसा काम या बात जिसमें कोई मनुष्य प्रायः लगा रहे अथवा जिसके बिना उसका निर्वाह न हो सके। ३. किसी प्रकार का उत्तरदायित्व, देन भार आदि अपने ऊपर या जिम्मे लेना। जैसे—(क) किसी का ऋण अपने ऊपर ओढ़ना। (ख) कोई बात अपने ऊपर ओढ़ना।
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ओढ़नी  : स्त्री० [हिं०ओढ़ना] स्त्रियों के ओढ़ने का वस्त्र। जनानी चादर या दुपट्टा। मुहावरा—(किसी से) ओढ़नी बदलना=दो स्त्रियों का आपस में एक-दूसरे की ओढ़नी लेकर बहनापा स्थापित करना (स्त्रियाँ)।
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ओढ़र  : पुं० [हिं० ओड़+ओट ?] बहाना। मिस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओढ़वाना  : स० [हिं० ‘ओढ़ाना’ का प्रे० रूप] ओढ़ाने का काम किसी से कराना।
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ओढ़ाना  : स० [हिं०ओढ़ना] १. किसी के ऊपर वस्त्र डालना या रखना। २. किसी के चारों ओर वस्त्र आदि लपेटना। ३. ढाँकना।
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ओढ़ौनी  : स्त्री० [हिं० ओढ़ना] १. ओढ़ने या ओढ़ाने की क्रिया या भाव। २. स्त्रियों की चादर। ओढ़नी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओत  : पुं० [सं० आवे (बुनना)+क्त] कपड़े की बुनावट में वे सूत जो लंबाई के बल लगे रहते हैं। ताना। वि० तारों, सूतों आदि से गुथा या बुना हुआ। पद—ओत-प्रोत-(देखें)। स्त्री० [हिं० अन=हीं+होत=होने की अवस्था] १. न होने की अवस्था या भाव। अभाव। २. कमी। न्यूनता। स्त्री० [सं० अवाप्ति] १. प्राप्ति। लाभ। २. आराम। चैन। सुख। उदाहरण—होत न बितोक होत पञ्वै न ननाकसो...।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओत-प्रोत  : वि० [द्व० स०] १. उसी तरह आपस में खूब गुथा या मिला-जुला जिस तरह कपड़े में ताने और बाने के सूत मिले रहते हैं। २. खूब भरा हुआ। लबालब। पुं० १. कपड़े में का ताना और बाना। २. ऐसा वैवाहिक संबंध जिसमें एक पक्ष का एक लड़का और एक लड़की दूसरे पक्ष की एक लड़की और एक लड़के से ब्याही जाती है। जिस घर में कन्या देना, उसी घर से एक कन्या लेना। बदले का विवाह।
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ओता  : वि० [हिं० उतना] [स्त्री० ओती] उतना। वि० [हिं० ओत] १. जो किसी की तुलना में कम या न्यून हो। २. अनुपयुक्त। ३. असमर्थ। उदाहरण—नासिक मोती जगमग जोती। कहती तौ मति होती ओती।—नंददास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओत्ता  : वि०=उतना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओदंतपुरी  : स्त्री० [सं० ] एक प्राचीन नगरी जहाँ बौद्धों का प्रसिद्ध विद्या केन्द्र था।
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ओद  : पुं० [सं० उदजल] नमी। गीलापन। वि० [सं० आर्द्र] गीला। तर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओदक  : पुं० [सं० औदक] जल में रहने वाला जंतु या प्राणी।
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ओदन  : पुं० [सं० उन्द+युच्-अन, नलोप] १. पका हुआ चावल। २. बादल। मेघ।
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ओदनी  : स्त्री० [देश] बरियारा या बीजबंध नामक का पौधा।
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ओदर  : पुं०=उदर।
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ओदरना  : अ०=उदरना (विदीर्ण होना)। स०=उदारना (विदार्ण करना)। अ० [?] उदास होना। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओदा  : वि० [सं० आर्द्र] १. गीला। २. तर। नम।
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ओदारना  : स० [सं० अवदारण वा० उद्दारण] १. विदीर्ण करना। फाड़ना। २. छिन्न-भिन्न या नष्ट-भ्रष्ट करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओध  : पुं० [सं० ऊधस्] थन।
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ओधना  : पुं० [सं० वेधन] वेधना। छेद करना। अ० वेधा जाना। छिदना। स० [सं० आवद्ध] १. किसी काम में लगना। उदाहरण—निज निज काज पाइ सिख ओधे।—तुलसी। २. कोई काम करने के लिए उतारू या तत्पर होना। जैसे—युद्ध ओधना। स० [सं० अवधि] अवधि नियत करना।
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ओधा  : पुं० [सं० अवधान] १. अधिकारी। २. मालिक। स्वामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनंत  : वि० [सं० अनुन्नत] १. जो उन्नत न हो। २. झुका हुआ। नत। उदाहरण—भई ओनंत फूलि भरि साखा।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनचन  : स्त्री०=उनचन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनचना  : स०=उनचना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनवना  : अ०=उनवना। अ० उमड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनहना  : अ०=उनवना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओना  : पुं० [सं० उद्गमन, प्रा० उगवन] तालाब में से पानी निकलने का मार्ग। निकास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनाड़  : वि० [सं० अनार्य] जोरावर। बलवान (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनाना  : अ० [सं० उन्नयन] किसी ओर उठना या लगना। किसी ओर प्रवृत्त होना। स० किसी ओर लगाना या प्रवृत्त करना। स०=उनाना (बुनवाना)।
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ओनामासी  : स्त्री० [सं० ओं नमः सिद्धम्] १. बालकों को कराये जानेवाले अक्षर-ज्ञान का आरंभ। अक्षरारंभ। २. आरंभ। शुरू।
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ओप  : स्त्री० [हिं० ओपना] १. आभा। चमक। दीप्ति। २. मुख (विशेषतः स्त्रियों के मुख) की शोभा या सुन्दरता।
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ओपची  : पुं० [हिं० ओप+ची (प्रत्यय)] जिसके शरीर पर कवच, झिलिम आदि चमकता हो। कवचधारी। योद्धा।
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ओपति  : स्त्री०=उत्पत्ति।
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ओपना  : स० [सं० आवपन] ओप से ०युक्त करना। चमकाना। दीप्त करना। अ०=चमकना। अ० युक्त होना। उदाहरण—हरि रस-ओपी गोपी ये सबै तियनि तें न्यारी।—नंददास।
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ओपनि  : स्त्री०=ओप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओपनी  : स्त्री० [हिं० ओप] १. पत्थर का वह टुकड़ा जिससे रगड़कर कटार, तलवार आदि चमकाई जाती है। २. अकीक या यशब पत्थर का वह टुकड़ा जिससे रगड़कर चित्र आदि पर का सोना या चाँदी चमकाते हैं। बट्टी। मोहरा। (बर्निशर)।
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ओपित  : भू० कृ० [हिं० ओप] ओप से युक्त किया हुआ। चमकाया हुआ।
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ओपी  : वि० [हिं० ओप] जिसमें ओप हो। चमकता हुआ।
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ओफ  : अव्य० [अनु] मानसिक व्यथा या शारीरिक पीड़ा सूचित करनेवाला एक अव्यय।
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ओबरी  : स्त्री० [सं० विवर] १. छोटा घर। २. कोठरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओम्  : पुं० [सं० अव् (रक्षण आदि)+मन्, नि० सिद्धि] भारतीय आर्यों का प्रणव मंत्र। ओंकार।
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ओरंग  : पु०=औरंग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरंगोटंग  : पुं० [मला० ओरंग=मनुष्य+ऊटन-वन] एक प्रकार का वनमानुष जो जावा, सुमात्रा, बोरनियो आदि द्वीपों में होता है।
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ओर  : स्त्री० [सं० अवार=किनारा] १. किसी वस्तु, स्थान अथवा किसी कल्पित बिन्दु आदि के दाहिने या बायें, ऊपर या नीचे का कोई निर्दिष्ट क्षेत्र या विस्तार। दिशा। तरफ। जैसे—इस ओर गंगा और उस ओर यमुना है। २. दो विभिन्न दलों, पक्षों, विचारधाराओं आदि में से कोई एक पक्ष। जैसे—आपको किसी की ओर तो होना ही पड़ेगा। मुहावरा—ओर निबाहना=अपने पक्ष या शरण में आये हुए व्यक्ति का पूरा-पूरा साथ देना और हर तरह से उसकी रक्षा तथा सहायता करना। पुं० १. छोर। सिरा। २. अंत। समाप्ति।
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ओरती  : स्त्री०=ओलती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरना  : अ०, स०=ओराना।
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ओरमना  : अ० [सं० अवलंबन] झूलना। लटकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरमा  : स्त्री० [हिं० ओरमना] कपड़े की आँवट या सिरे पर होनेवाली एक प्रकार की सिलाई।
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ओरमाना  : स०=लटकाना।
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ओरवना  : अ० [हिं० ओरमना]=ओराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरहना  : पुं०=उलाहना। (पूरब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरहरा  : पुं०=होरहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओराँव  : पुं० [?] एक प्राचीन जाति जो चंपारन, पलामू ,राँची आदि के आस-पास रहती थी। स्त्री० उक्त जन-जाति की बोली या विभाषा।
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ओरा  : पुं० ओला। उदाहरण—गरहिं गात जिमि आतप ओरे।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओराना  : अ० [हिं० ओरअंत+आना(प्रत्यय)] १. ओर या सिरे पर आना। २. समाप्ति के लगभग होना। ३. व्यय होते-होते समाप्त होना। खतम हो जाना। ४. पशुओं का गर्भकाल समाप्ति पर होना और प्रसव काल समीप आना। स० १. ओर या सिरे पर लाना। २. समाप्त करना।
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ओराहना  : पुं०=उलाहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरिया  : स्त्री० [हिं० ओरसिरा] वह लकड़ी जो ताना तनते समय खूँटी के पास गाड़ी जाती है। स्त्री०=ओलती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरी  : स्त्री० [हिं० ओर=सिरा] छप्पर का वह किनारा या सिरा जहाँ से वर्षा का जल नीचे गिरता है। स्त्री०=ओर (तरफ)। उदाहरण—बंस बखान करै दोउ ओरी।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरौता  : वि० [हिं० ओर+औता (प्रत्यय)] १. जिसका अंत या समाप्ति होने को हो। २. जो प्रायः अंत या समाप्ति के समय होता हो। अंतिम सिरे पर होनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरौती  : स्त्री०=ओलती (ओरी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओर्रा  : पुं० [देश] एक प्रकार का बहुत बड़ा बाँस जिसकी ऊँचाई १२0 फुट तक होती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओलंदेज  : पुं० [अं० हालैण्ड] [वि० ओलंदेजी] हालैण्ड देश का नागरिक या निवासी। हालैण्ड-वासी।
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ओलंदेजी  : वि० [ओलंदेज] हालैण्ड देश में होने या उससे संबंध रखनेवाला। स्त्री० हालैण्ड की भाषा।
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ओलंब  : (ा) पुं० [सं० उपालंभ] उलाहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओलंभा  : पुं०=ओलंबा (उलाहना)।
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ओल  : पुं० [सं० आउन्द्+क, नलोप, पृषो] सूरन। जिमीकंद। वि०गीला। तर। पुं० [सं० ओढ़=पास लाया हुआ] १. गोद। २. आड़। ओट। ३. शरण। उदाहरण—सूरदास ताकौं डर काकौ हरि गिरधर के ओले।—सूर। ४. किसी वस्तु या प्राणी का किसी दूसरे व्यक्ति के पास जमानत के रूप में तब तक के लिए रखा रहना जब तक उस दूसरे व्यक्ति को कुछ रुपया न मिले उथवा उसकी कोई शर्त पूरी न की जाय। (होस्टेज) ५. उक्त प्रकार से जमानत में रहनेवाला व्यक्ति या वस्तु। उदाहरण—चितै चितै हरि चारू विलोकनि मानौ माँगत है मन ओल।—सूर। ६. विरह या वियोग की दशा में आनेवाली याद या होनेवाली स्मृति। उदाहरण—परम सनेही राम की निति ओलूँरी आवँ।—मीराँ। ७. बहाना। मिस।
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ओलक  : पुं० [हिं० ओल]आड़। ओट। उदाहरण—फिर कैसे वह साँवरों आँखिन ओलक होय।—विक्रम सतसई।
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ओलगना  : अ०=अलगना (अलग दूर या होना)।
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ओलगिया  : पुं० [हिं० अलग] वह जो दूसरों से अलग होकर या दूर हट कर रहे।
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ओलचा  : पुं० [हिं० उलचना] वह दौरी या बरतन जिससे खेत में का पानी उलीच कर बाहर फेंकते या बाहर का पानी खेत में भरते हैं। हाथा।
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ओलची  : स्त्री० [सं० आलु] आलू-बालू नाम का फल।
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ओलती  : स्त्री० [हिं० ओलमना] ढलुवाँ छप्पर का वह किनारा या सिरा जहाँ से वर्षा का पानी नीचे गिरता है। ओरी।
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ओलना  : स० [हिं० ओल=आड़] आड़, ओट या परदा करना। २. आड़ बना या लगाकर आक्रमण, आघात आदि रोकना। ३. उत्तरदायित्व आदि के रूप में अपने ऊपर लेना। ४. वहन या सहन करना। स० [हिं० हूलना] घुसेड़ना। पैठाना।
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ओलमना  : अ० [सं० अवलंबन] लटकना।
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ओलरना  : अ०=उलरना।
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ओलराना  : स०=उलारना।
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ओलहना  : पुं०=उलाहना।
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ओला  : पुं० [सं० उपल] १. शीत काल में, वर्षा के जल के साथ-साथ कभी-कभी गिरनेवाले बरफ के छोटे-छोटे टुकड़े। २. मिसिरी का बना हुआ लड्डू। ३. एक प्रकार का बबूल। वि० बहुत ठंढा। पुं० [हिं० ओल] १. आड़। ओट। २. परदा। ३. भेद या रहस्य की बात। प्रत्यय-[सं० पोलक, प्रा० ओलअ=बच्चा या छोटा रूप] एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लगकर किसी वस्तु के आरंभिक या छोटे रूप का सूचक होता है। जैसे—साँप से सँपोला और खाट से खटोला आदि। कभी-कभी इसके योग से भाववाचक संज्ञाएँ भी बनती हैं। जैसे—झोंका से झँकोला। कुछ अवस्थाओं में यह तुच्छार्थक भी होता है। जैसे—बात से बतोला।
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ओलारना  : स०=उलराना।
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ओलिक  : पुं० [हिं० ओल=ओट] आड़। ओट। उदाहरण—विलोकत ही किये ओलिक तोहीं।-केशव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओलियाना  : स० [हि० हूलना ?] १. गोद में भरना या लेना। २. किसी पात्र के अन्दर कोई चीज प्रविष्ट करना। भरना। ३. कोई चीज गिराते हुए उसका ढेर लगाना। ४. घुसाना। पैठाना।
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ओली  : स्त्री० [हिं० ओल] १. क्रोड़। गोद। २. झोली। ३. आँचल। पल्ला। मुहावरा—ओली ओड़ना=(क) कुछ माँगने के लिए किसी के आगे आँचल या पल्ला पसारना। (ख) दीनता या विनय-पूर्वक माँगना। ४. खेत के एक बिस्वे में होनेवाली फसल या परता लगाकर पूरे बीघे की कुल फसल के अंदाज करने का एक प्रकार।
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ओलौना  : पुं० [सं० तुलना] उदाहरण। मिसाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओषण  : पुं० [सं०√उष् (दाह करना)+ल्युट-अन] १. उग्र या तीखा स्वाद। २. तीतापन।
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ओषधि  : स्त्री० [सं० ओष√धा (धारण करना)+कि] १. चिकित्सा या दवा के काम में आनेवाली जड़ी-बूटी या वनस्पति। २. ऐसे पौधे या वनस्पतियाँ जो एक ही बार फल या फूल कर रह जाते हों। जैसे—गेहूँ, जव आदि।
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ओषधि-घर  : पुं० [ष० त०]=ओषधीश।
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ओषधी  : स्त्री० [सं० ओषधि+ङीष्]=ओषधि।
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ओषधीश  : पुं० [सं० ओषधि-ईश, ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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ओष्ठ  : पुं० [सं० उष्(दाह)+थन्] [वि० ओष्ठ्य] ओंठ। होंठ।
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ओष्ठी  : स्त्री० [सं० ओष्ठ+क्विप्+अच्-ङीष्] कुंदरू या बिंबाफल नामक लता या उसका फल, जिससे ओंठों की उपमा दी जाती है।
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ओष्ठ्य  : वि० [सं० ओष्ठ+यत्] १. ओंठ का। ओंठ संबंधी। २. (अक्षर या वर्ण) जिसके उच्चारण में ओठों की भी सहायता लेनी पडती है। जैसे—प, फ, ब आदि।
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ओष्ण  : वि० [सं० आ-उष्ण, प्रा० स०] जो थोड़ा गरम हो। कुनकुना। गुनगुना।
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ओस  : स्त्री० [सं० अवश्याय, पा० उस्साव] वातावरण में फैले हुए वाष्प का वह रूप जो जमकर जल के कणों या छोटी-छोटी बूँदों के रूप में परिवर्तित होकर पृथ्वी पर गिरता है। विशेष—प्रायः सबेरे के समय ये जलकण फूल-पत्तों पर पड़े हुए दिखाई देते हैं। मुहावरा—(किसी चीज या बात पर) ओस पड़ना=अवस्था, शक्ति, शोभा आदि का पहले से क्षीण या हीन होना। कुम्हलाना। मुरझाना। पद—ओस का मोती=ऐसी बात या वस्तु जिसका अस्तित्व बहुत ही क्षणिक हो।
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ओसर  : पुं० [सं० अवसर] १. अवसर। मौका। २. समय। वक्त। ३. पारी। बारी। उदाहरण—झूलहिं झुलावहिं ओसरिह्र गावैं सुही गौड़ मलार।—तुलसी। स्त्री० [सं० उपसर्या] ऐसी भैंस जो अभी तक गाभिन न हुई हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसरना  : अ० बरसना। (राज)। अ०=उसरना (ऊपर उठना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसरा  : पुं० [सं० अवसर] १. पारी। बारी। २. दूध दुहने का समय। ३. किसी विशिष्ट कार्य के लिए नियमित या नियत समय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसरी  : स्त्री० [सं० अवसर] पारी। बारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसांक  : पुं० [सं० ] वातावरण की वह अवस्था अथवा उसके तापमान का वह बिन्दु जिस पर आकाश में ओस जमती और नीचे गिरती है। (ड्यूप्वाइंट)
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ओसाई  : स्त्री० [हिं० ओसाना] १. अनाज ओसाने की क्रिया या भाव। २. अनाज ओसाने का पारिश्रमिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसान  : पुं०=ओसाई। पुं०=अवसान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसाना  : स० [सं० आवर्षण, पा० आवस्सन] भूसा मिले हुए अनाज को कुछ ऊँचाई से जमीन पर इस प्रकार गिराना कि भूसा हवा के झोंके से उड़कर अलग हो जाय और अनाज के दाने अलग इकट्ठे हो जायँ। मुहावरा—अपनी (बातें) ओसाना=अपनी ही बातें कहते चलना।
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ओसार  : पुं० [सं० अवसरफैलाव] फैलाव। विस्तार। वि०=चौड़ा। पुं०=ओसारा।
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ओसारना  : स०=१. उसारना।=२. ओसाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसारा  : पुं० [सं० उपशाल] [स्त्री० अल्प० ओसारी] कच्चे देहाती मकानों के आगे बना हुआ दालान या बरामदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसीसा  : पुं०=उसीसा (तकिया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओह  : अव्य० [सं० अहह का अनु] आश्चर्य, कष्ट, दुःख, पश्चाताप संताप आदि का सूचक एक अव्यय। जैसे—ओह ! इतना अनर्थ !।
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ओहट  : स्त्री०=ओट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहदा  : पुं० [अ० उलदः] किसी विभाग के किसी कर्मचारी या कार्यकर्त्ता का पद, विशेषतः कुछ ऊँचा पद।
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ओहदेदार  : पुं० [फा०] वह जो किसी ओहदे या पद पर नियुक्त हो। पदाधिकारी।
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ओहना  : स० [सं० अवधारण] डंठलों को हिलाते हुए उनके दाने नीचे गिराना। खरही करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहर  : क्रि० वि०=उधर (पूरब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहरना  : अ० [सं० अवहरण] बढ़ती या उमड़ती हुई चीज का उतार पर होना या घटना। कमी या घटाव पर होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहरी  : स्त्री० [हिं०हारना=थकना] थकावट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहा  : पुं० [सं० ऊधस्] गाय का थन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहार  : पुं० [सं० अवधार] वह कपड़ा जिससे पालकी, रथ आदि ढके जाते हैं। उदाहरण—सिविका सुभग ओहार उघारी।—तुलसी।
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ओहि, ओही  : सर्व० [हिं० ओ० वह] १. उसको। उसे। २. उससे। उदाहरण—सादर पुनि पुनि पूछत ओही।—तुलसी।
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ओहू  : सर्व० [ओ=वह+हू=भी] वह भी। उदाहरण—पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहो  : अव्य० [सं० अहो या अनु०] आश्चर्य या प्रसन्नता का सूचक एक अव्यय।
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ओ  : हिंदी वर्णमाला का दसवाँ स्वर वर्ण। भाषा विज्ञान और व्याकरण की दृष्टि से यह अर्द्ध संवृत दीर्घ पश्च स्वर है। पूर्वी हिंदी में यह ‘वह’ का वाचक है। जैसे—ओकर=उसका। पुं० [सं० ] ब्रह्मा।
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ओं  : पुं० [सं० ] परब्रह्म का वाचक शब्द। प्रणव मंत्र।
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ओंइछना  : स० [सं० अंचन=पूजा करना] निछावर करना। वारना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओंकना  : अ० [अनु] १. खिंचना। २. दूर करना। हटना। उदाहरण—कांदि उठी कमला मन सोचति मोसों कहा हरि को मन ओंको।—सुदामा। अ० दे० ‘ओकना’।
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ओंकार  : पुं० [सं० ओं+कार] १. ‘ओं’ शब्द जो परब्रह्म का वचाक है। २. सोहन चिड़ियाँ नामक पक्षी। ३. उक्त पक्षी पर जो शोभा के लिए टोपी, पगड़ी आदि में लगाया जाता है।
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ओंकार-नाथ  : पुं० [कर्म० स०] शिव के बारह लिंगों में से एक।
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ओंगन  : पुं० [हिं० ओंगना] गाड़ी की धुरी में दिया जानेवाला तेल।
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ओंगना  : स० [सं० अञ्जन] गाड़ी की धुरी में तेल देना।
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ओंगा  : पुं० [सं० अपामार्ग] चिचड़ा। लटजीरा।
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ओंठ  : पुं० [सं० ओष्ठ, प्रा० ओट्ठ] मुँह के ऊपर और नीचे के दोनों बाहरी मांसल परत या भाग। होंठ। मुहावरा—ओंठ काटना या चबाना=अत्यधिक क्रुद्ध होने पर अपने आपको प्रतिकार करने से बलपूर्वक रोकना। ओठ चाटना=कोई स्वादिष्ट वस्तु खाने के समय ओंठों पर जीभ फेरते हुए उसका और अधिक स्वाद लेना। ओंठ फड़कना=क्रोध प्रकट करने या कुछ कहने के लिए आतुरता के लक्षण के रूप में ओंठों का रह-रहकर हिलना। ओंठों में कहना=बहुत मंद स्वर में कुछ कहना। बहुत धीरे-धीरे कहना या बोलना। ओंठो में मुस्कराना=बहुत धीरे-धीरे हँसना। ओंठ हिलना=बहुत देर तक मौन रहने के बाद मुँह से कोई बात निकलना। ओंठ हिलाना=बहुत कठिनता से कुछ कहना या बोलना। कोई बात ओंठों पर होना=विस्मृत बात फिर से स्मरण होने पर मुँह से निकलने को होना।
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ओंड़ा  : वि० [सं० कुंडी] गहरा। पुं० १. गड्ढा। २. सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओंहट  : क्रि० वि० [हिं० ओट का पू रूप] १. ओट या आड़ में० २. दूर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओआ  : पुं० [हिं० चोआ=गड्ढा] हाथी फँसाने के लिए बनाया हुआ गड्ढा।
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ओई  : पुं० [देश] एक प्रकार का वृक्ष। वि०=वही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओऊ  : वि० [हिं० ओ-वह+ऊ+भी] वह भी। उदाहरण—जद्यपि मीन पतंग हीनमति मोहिं नहिं पूजहिं ओऊ।—तुलसी।
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ओक  : पुं० [सं० उच् (समूह)+क, नि० सिद्धि] १. निवास स्थान। रहने की जगह। २. घर। मकान। ३. आश्रय। ठिकाना। उदाहरण—ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ…—तुलसी। ४. ढेर। राशि। ५. ग्रहों, नक्षत्रों आदि का समूह। स्त्री० [अनु०] कै। मिचली। पुं० [हिं० बूक] अंजलि। अंजुली।
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ओकण  : पुं० [सं० ] १. खटमल। २. जूँ।
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ओकना  : [अनु] १. ओ ओ करते हुए कै या वामन करना। २. भैंस आदि की तरह चिल्लाना।
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ओक-पति  : पुं० [ष० त०] १. सूर्य। २. चंद्रमा।
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ओकाई  : स्त्री० [हिं० ओकना] १. ओकने या ओकाने की क्रिया या भाव। २. कै करने को जी चाहना। जी मिचलाना। मिचली होना। ३. कै। वमन।
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ओकार  : पुं० [सं० ओ+कार] १. ‘ओ’ स्वर वर्ण या उसकी ध्वनि। २. ‘ओ’ की सूचक मात्रा।
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ओकारांत  : वि० [सं० ओकार-अंत, ब० स०] (शब्द) जिसके अंत में ‘ओ’ की मात्रा हो।
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ओकी  : स्त्री०=ओकाई।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओखद  : पुं०=ओषध।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओखरी  : स्त्री०=ऊखल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओखल  : पुं०=ऊखल। पुं० [सं० ऊपर] परती भूमि। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओखली  : स्त्री० दे० ‘ऊखल’।
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ओखा  : वि० [हिं० चोखा का अनु] १. जो चोखा या तेज न हो। साधारण या हलका। जैसे—ओखा वार। २. जिसकी धार तेज न हो। जैसे—ओखा चाकू। ३. रूखा-सूखा। ४. कठिन। विकट। ५. जो खरा या शुद्ध न हो। मिलावटवाला। ६. (वस्त्र) जिसकी बुनावट ठस न हो। झीना। ७. जो आस-पास या सटा न हो। विरल। पुं० [सं० ओख=वारण ?] बहाना। मिस।
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ओखाण (न)  : पुं०=उपाख्यान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओखापन  : पुं० [हिं० ओखा] ओखे होने की अवस्था या भाव।
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ओग  : पुं० [हिं० उगहना] कर, चन्दे आदि के रूप में उगाहा हुआ धन। उगाही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओगरना  : अ० [सं० अवगरण] १. पानी आदि का जमीन में से धीरे-धीरे निकलना। रसना। २. किसी पात्र से जल आदि टपकना। स० दे० ‘ओगारना’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओगल  : पुं० [सं० ऊषर] १. ऊसर या परती भूमि। २. एक प्रकार का कुआँ।
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ओगारना  : स० [हिं० ओगरना का स० रूप] १. टपकना। २. जल या कोई तरल वस्तु उलीचकर बाहर निकालना या फेंकना। ३. कुएँ को साफ करने के लिए गंदा पानी बाहर निकालना।
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ओघ  : पुं० [सं०√उच् (समूह)+घञ्, पृषो० सिद्धि] १. ढेर। राशि। समूह। २. घनता। घनत्व। ३. पानी की धार या बहाव। ४. सांख्य के अनुसार एक प्रकार की तुष्टि। काल-तुष्टि।
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ओछ  : वि०=ओछा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओछना  : स०=ओंइछना।
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ओछा  : वि० [सं० तुच्छ, प्रा० उच्छ] [स्त्री० ओछी] १. तुच्छ। हीन। २. जिसमें गंभीरता या प्रौढ़ता न हो। जिसमें छिछलापन हो। जैसे—ओछा व्यक्ति, ओछी बात-चीत। ३. जिसमें शालीनता या शिष्टता का अभाव हो। जैसे—ओछा वार।
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ओछाई  : स्त्री० =ओछापन।
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ओछापन  : पुं० [हिं० ओछा+पन (प्रत्यय)] ओछे होने की अवस्था या भाव।
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ओज (स्)  : पुं० [सं० उब्ज् (सीधा होना)+असुन्, बलोप] [वि० ओजस्वी, ओजित] १. वह सक्रिय शारीरिक शक्ति जिसके आधार पर प्राणी जीवित रहते हैं तथा परिश्रम, साहस आदि के काम करते हैं। (विगर)। विशेष—वैद्यक के अनुसार, यह शरीर में बननेवाले रसों का भाग है। २. साहित्य में कविता, भाषण लेख आदि का वह गुण जिससे सुननेवाले के चित्त में आवेश, साहस आदि का संचार होता है। ३. उजाला। प्रकाश।
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ओजना  : स० [सं० अवरुन्धन, प्रा० ओरुज्झन, हिं० ओझल] १. (भार) अपने ऊपर लेना। अंगीकरण या धारण करना। २. (आघात या वार) अपने ऊपर लेना। सहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओजस्विता  : स्त्री० [सं०√ओजस्विन्+तल्-टाप्] ओजस्वी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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ओजस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० ओजस्+इनि] [स्त्री० ओजस्विनी] १. (व्यक्ति) जिसमें ओज हो। शक्तिशाली। २. (तत्त्व) जिसमें ओज हो। प्रभावशाली। जैसे—ओजस्वी भाषण। ३. तेजपूर्ण। जैसे—ओजस्वी आचरण।
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ओजित  : वि० [सं०√ओज्+क्त] १. ओज से युक्त किया हुआ। २. ओज-युक्त।
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ओझ  : पुं० [सं० उदर, पुं० हिं० ओझ] १. पेट की थैली। २. आँत। पु० [सं० उपाध्याय, हिं० ओझा] उपाध्याय, पंडित या विद्वान। उदाहरण—तुलसी रामहिं परिहरे निपट हानि, सुनु ओझ।—तुलसी।
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ओझइती  : स्त्री० [हिं० ओझा] ओझा का कार्य,पद या व्यवसाय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओझर  : पुं० [सं० उदर, पुं० हिं० ओदर, ओझर] [स्त्री० अल्प० ओझरी] १. पेट की थैली। २. आँत। अँतड़ी।
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ओझरी  : स्त्री० ओझर। उदाहरण—ओझरी की झोरी काँधे, आँतनि की सेल्ही बाँधे…।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओझल  : वि० [प्रा० ओरुज्झन] १. जो आँखों से दूर या परे अर्थात् अदृश्य हो गया हो। २. छिपा या लुका हुआ। पुं० आड़। ओट।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओझा  : पुं० [सं० उपाध्याय, प्रा० उवज्झाअ] [स्त्री० ओझाइन] १. सरयूपारी, मैथिल, गुजराती आदि ब्राह्मणों की एक जाति या वर्ग का अल्ल। २. भूत-प्रेत आदि झाड़नेवाले व्यक्ति। सयाना।
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ओझाई  : स्त्री० [हिं० ओझा] १. ओझा का काम, पद या वृत्ति। २. भूत-प्रेत आदि झाड़ने का काम या वृत्ति।
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ओझैती  : स्त्री०=ओझाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओट  : स्त्री० [सं० ओढ़=पास लाया हुआ] १. ऐसी आड़ या रोक जिसके पीछे कोई छिप सके। ऐसी वस्तु जिसके पीछे छिपने से सामनेवाला व्यक्ति देख न सके। पद—ओट में दूसरों से छिपकर। मुहावरा—ओट में शिकार खेलना=आड़ में रहकर आगात या वार करना। २. रक्षा या शरण का स्थान पनाह। उदाहरण—नाम ओट लेत ही निखोट होत खोटे खल...।—तुलसी।
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ओटना  : स० [सं० आवर्त्तन, पा० आवट्ठन] १. कपास या रूई को इस प्रकार ओटनी में से निकालना कि उसके बिनौले अलग हो जायँ। २. अपनी ही बात बराबर कहते या दोहराते चलना। [हिं० ओट=आड़] आड़ या ओट में होना। छिपना। स०=ओड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओटनी  : स्त्री० [हिं० ओटना] लकड़ी या लोहे का वह उपकरण या चरखी जिससे कपास में से बिनौले अलग किये जाते हैं।
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ओट-पाई  : स्त्री०=औटपाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओट-पाय  : पुं०=औटपाव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओटा  : पुं० [हिं० ओट] १. ओट या आड़ करने के लिए खड़ी की हुई दीवार। २. आड़। ओट। उदाहरण—घर घर सावन खेलैं अहेरा पाथर ओटा लेइ।—कबीर। ३. चक्की के पास का वह स्थान जहाँ बैठकर चक्की पीसी जाती है। ४. दरवाजे के दोनों ओर बैठने के लिए छोटे चबूतरे। ५. सुनारों का एक औजार।
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ओटी  : स्त्री०=ओटनी (चरखी)।
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ओठँगना  : अ०=ओठंगना।
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ओठंगना  : अ० [सं० अवस्तम्भ] टेक लगाकर बैठना या खड़े होना। उठंगना।
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ओठ  : पुं०=ओंठ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओड़  : पुं० [सं० ओड्र] वह जो गधों, बैलों आदि पर बोझ लादकर एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने का काम करता हो। पुं०=ओट (आड़)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओड़क  : पुं० [सं० ओड+कन्]=ओडव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओड़चा  : पुं०=ओलचा।
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ओड़न  : पुं० [हं० ओड़नामाल ढोना] १. गधों, बैलों आदि पर माल ढोने का काम या व्यवसाय। २. इस प्रकार ढोकर पहुँचाया जानेवाला माल या सामान। उदाहरण—ओड़न मेरा राम नाम, मैं रामहिं का बनिजारा हो।—कबीर। पुं० [हिं० ओड़ना=रोकना या सहना] १. ओड़ने की क्रिया या भाव। २. आघात या वार ओड़ने या रोकनेवाली चीज। जैसे—ढाल, फरी आदि।
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ओड़ना  : स० [हिं० ओट] १. आघात या प्रहार रोकने या सहने के लिए बीच में कोई आड़ या ओट खड़ी करना या कोई चीज आगे बढ़ाना। उदाहरण—(क) एक कुसल अति ओड़न खाँड़े।—तुलसी। (ख) ओड़ि अहिं हाथ असिनहु के घाए।—तुलसी। २. कुछ माँगने या लेने के लिए झोली, कपड़े का पल्ला या हाथ बढ़ाना या फैलाना। उदाहरण—तजि रघुनाथ हाथ और काहि ओड़िए।—तुलसी। ३. दे० ‘ओढ़ना’। स० [हिं० ओड़] गधे, बैल आदि पर माल लादकर एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना।
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ओड़व  : पुं० [सं० ] ऐसा राग जिसमें केवल पाँच स्वर लगते हों, कोई दो स्वर न लगते हों। (संगीत)।
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ओड़व-संपूर्ण  : पुं० [सं० ] ऐसा राग जिसके आरोह में पाँच और अवरोह में सातों स्वर लगते हों। (संगीत)।
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ओड़व-षाड़व  : पुं० [सं० ] ऐसा राग जिसके आरोह में पाँच और अवरोह में छः स्वर लगते हैं। (संगीत)।
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ओड़ा  : पुं० [?] १. गड्ढा। २. सेंध। ३. बड़ा टोकरा० खाँचा। पुं० [हिं० ओत] कमी। न्यूनता। मुहावरा—(किसी चीज का) ओड़ा पढ़ना=दुर्लभ या दुष्प्राप्य होना।
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ओडिका  : स्त्री० [सं० ओडी+क-टाप्, ह्स्व] ऐसा धान जो बिना बोये आपसे आप उत्पन्न होता हो।
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ओडी  : स्त्री० [सं०√उ (शब्द करना)+ड-ङीष्]=ओडिका।
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ओड़्र  : पुं० [सं०√आउन्द(भिगोना)+रक्, दड] १. उड़ीसा प्रदेश का प्राचीन नाम। २. उक्त प्रदेश का निवासी। ३. आडहुल का पेड़ और उसका फूल।
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ओढ़  : वि० [सं० आ√वह् (ढोना)+क] जो पास लाया गया हो।
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ओढ़न  : पुं० [हिं० ओढ़ना] ओढ़ने की चादर। ओढ़ना। उदाहरण—लोभइ ओढ़न लोभइ डासन।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओढ़ना  : स० [सं० उपवेष्टन, प्रा० ओवेड्ढन] १. अंग या अंगों को अच्छी तरह से ढकने के लिए शरीर पर कोई वस्त्र रखना या लपेटना। मुहावरा—(किसी का) ओढ़ना उतारना=अपमानित करना। ओढ़ना ओढ़ाना=विधवा स्त्री को पत्नी बनाना। विधवा के साथ विवाह करना। २. धारण करना। पहनना। उदाहरण—तुलसी पट उतरे ओढ़िहौं…।—तुलसी। पुं० तन ढकने के लिए ऊपर से डाला जानेवाला वस्त्र। पद—ओढ़ना-बिछौना=ऐसा काम या बात जिसमें कोई मनुष्य प्रायः लगा रहे अथवा जिसके बिना उसका निर्वाह न हो सके। ३. किसी प्रकार का उत्तरदायित्व, देन भार आदि अपने ऊपर या जिम्मे लेना। जैसे—(क) किसी का ऋण अपने ऊपर ओढ़ना। (ख) कोई बात अपने ऊपर ओढ़ना।
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ओढ़नी  : स्त्री० [हिं०ओढ़ना] स्त्रियों के ओढ़ने का वस्त्र। जनानी चादर या दुपट्टा। मुहावरा—(किसी से) ओढ़नी बदलना=दो स्त्रियों का आपस में एक-दूसरे की ओढ़नी लेकर बहनापा स्थापित करना (स्त्रियाँ)।
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ओढ़र  : पुं० [हिं० ओड़+ओट ?] बहाना। मिस।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओढ़वाना  : स० [हिं० ‘ओढ़ाना’ का प्रे० रूप] ओढ़ाने का काम किसी से कराना।
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ओढ़ाना  : स० [हिं०ओढ़ना] १. किसी के ऊपर वस्त्र डालना या रखना। २. किसी के चारों ओर वस्त्र आदि लपेटना। ३. ढाँकना।
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ओढ़ौनी  : स्त्री० [हिं० ओढ़ना] १. ओढ़ने या ओढ़ाने की क्रिया या भाव। २. स्त्रियों की चादर। ओढ़नी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओत  : पुं० [सं० आवे (बुनना)+क्त] कपड़े की बुनावट में वे सूत जो लंबाई के बल लगे रहते हैं। ताना। वि० तारों, सूतों आदि से गुथा या बुना हुआ। पद—ओत-प्रोत-(देखें)। स्त्री० [हिं० अन=हीं+होत=होने की अवस्था] १. न होने की अवस्था या भाव। अभाव। २. कमी। न्यूनता। स्त्री० [सं० अवाप्ति] १. प्राप्ति। लाभ। २. आराम। चैन। सुख। उदाहरण—होत न बितोक होत पञ्वै न ननाकसो...।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओत-प्रोत  : वि० [द्व० स०] १. उसी तरह आपस में खूब गुथा या मिला-जुला जिस तरह कपड़े में ताने और बाने के सूत मिले रहते हैं। २. खूब भरा हुआ। लबालब। पुं० १. कपड़े में का ताना और बाना। २. ऐसा वैवाहिक संबंध जिसमें एक पक्ष का एक लड़का और एक लड़की दूसरे पक्ष की एक लड़की और एक लड़के से ब्याही जाती है। जिस घर में कन्या देना, उसी घर से एक कन्या लेना। बदले का विवाह।
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ओता  : वि० [हिं० उतना] [स्त्री० ओती] उतना। वि० [हिं० ओत] १. जो किसी की तुलना में कम या न्यून हो। २. अनुपयुक्त। ३. असमर्थ। उदाहरण—नासिक मोती जगमग जोती। कहती तौ मति होती ओती।—नंददास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओत्ता  : वि०=उतना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओदंतपुरी  : स्त्री० [सं० ] एक प्राचीन नगरी जहाँ बौद्धों का प्रसिद्ध विद्या केन्द्र था।
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ओद  : पुं० [सं० उदजल] नमी। गीलापन। वि० [सं० आर्द्र] गीला। तर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओदक  : पुं० [सं० औदक] जल में रहने वाला जंतु या प्राणी।
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ओदन  : पुं० [सं० उन्द+युच्-अन, नलोप] १. पका हुआ चावल। २. बादल। मेघ।
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ओदनी  : स्त्री० [देश] बरियारा या बीजबंध नामक का पौधा।
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ओदर  : पुं०=उदर।
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ओदरना  : अ०=उदरना (विदीर्ण होना)। स०=उदारना (विदार्ण करना)। अ० [?] उदास होना। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओदा  : वि० [सं० आर्द्र] १. गीला। २. तर। नम।
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ओदारना  : स० [सं० अवदारण वा० उद्दारण] १. विदीर्ण करना। फाड़ना। २. छिन्न-भिन्न या नष्ट-भ्रष्ट करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओध  : पुं० [सं० ऊधस्] थन।
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ओधना  : पुं० [सं० वेधन] वेधना। छेद करना। अ० वेधा जाना। छिदना। स० [सं० आवद्ध] १. किसी काम में लगना। उदाहरण—निज निज काज पाइ सिख ओधे।—तुलसी। २. कोई काम करने के लिए उतारू या तत्पर होना। जैसे—युद्ध ओधना। स० [सं० अवधि] अवधि नियत करना।
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ओधा  : पुं० [सं० अवधान] १. अधिकारी। २. मालिक। स्वामी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनंत  : वि० [सं० अनुन्नत] १. जो उन्नत न हो। २. झुका हुआ। नत। उदाहरण—भई ओनंत फूलि भरि साखा।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनचन  : स्त्री०=उनचन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनचना  : स०=उनचना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनवना  : अ०=उनवना। अ० उमड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनहना  : अ०=उनवना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओना  : पुं० [सं० उद्गमन, प्रा० उगवन] तालाब में से पानी निकलने का मार्ग। निकास।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनाड़  : वि० [सं० अनार्य] जोरावर। बलवान (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओनाना  : अ० [सं० उन्नयन] किसी ओर उठना या लगना। किसी ओर प्रवृत्त होना। स० किसी ओर लगाना या प्रवृत्त करना। स०=उनाना (बुनवाना)।
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ओनामासी  : स्त्री० [सं० ओं नमः सिद्धम्] १. बालकों को कराये जानेवाले अक्षर-ज्ञान का आरंभ। अक्षरारंभ। २. आरंभ। शुरू।
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ओप  : स्त्री० [हिं० ओपना] १. आभा। चमक। दीप्ति। २. मुख (विशेषतः स्त्रियों के मुख) की शोभा या सुन्दरता।
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ओपची  : पुं० [हिं० ओप+ची (प्रत्यय)] जिसके शरीर पर कवच, झिलिम आदि चमकता हो। कवचधारी। योद्धा।
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ओपति  : स्त्री०=उत्पत्ति।
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ओपना  : स० [सं० आवपन] ओप से ०युक्त करना। चमकाना। दीप्त करना। अ०=चमकना। अ० युक्त होना। उदाहरण—हरि रस-ओपी गोपी ये सबै तियनि तें न्यारी।—नंददास।
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ओपनि  : स्त्री०=ओप।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओपनी  : स्त्री० [हिं० ओप] १. पत्थर का वह टुकड़ा जिससे रगड़कर कटार, तलवार आदि चमकाई जाती है। २. अकीक या यशब पत्थर का वह टुकड़ा जिससे रगड़कर चित्र आदि पर का सोना या चाँदी चमकाते हैं। बट्टी। मोहरा। (बर्निशर)।
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ओपित  : भू० कृ० [हिं० ओप] ओप से युक्त किया हुआ। चमकाया हुआ।
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ओपी  : वि० [हिं० ओप] जिसमें ओप हो। चमकता हुआ।
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ओफ  : अव्य० [अनु] मानसिक व्यथा या शारीरिक पीड़ा सूचित करनेवाला एक अव्यय।
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ओबरी  : स्त्री० [सं० विवर] १. छोटा घर। २. कोठरी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओम्  : पुं० [सं० अव् (रक्षण आदि)+मन्, नि० सिद्धि] भारतीय आर्यों का प्रणव मंत्र। ओंकार।
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ओरंग  : पु०=औरंग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरंगोटंग  : पुं० [मला० ओरंग=मनुष्य+ऊटन-वन] एक प्रकार का वनमानुष जो जावा, सुमात्रा, बोरनियो आदि द्वीपों में होता है।
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ओर  : स्त्री० [सं० अवार=किनारा] १. किसी वस्तु, स्थान अथवा किसी कल्पित बिन्दु आदि के दाहिने या बायें, ऊपर या नीचे का कोई निर्दिष्ट क्षेत्र या विस्तार। दिशा। तरफ। जैसे—इस ओर गंगा और उस ओर यमुना है। २. दो विभिन्न दलों, पक्षों, विचारधाराओं आदि में से कोई एक पक्ष। जैसे—आपको किसी की ओर तो होना ही पड़ेगा। मुहावरा—ओर निबाहना=अपने पक्ष या शरण में आये हुए व्यक्ति का पूरा-पूरा साथ देना और हर तरह से उसकी रक्षा तथा सहायता करना। पुं० १. छोर। सिरा। २. अंत। समाप्ति।
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ओरती  : स्त्री०=ओलती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरना  : अ०, स०=ओराना।
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ओरमना  : अ० [सं० अवलंबन] झूलना। लटकना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरमा  : स्त्री० [हिं० ओरमना] कपड़े की आँवट या सिरे पर होनेवाली एक प्रकार की सिलाई।
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ओरमाना  : स०=लटकाना।
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ओरवना  : अ० [हिं० ओरमना]=ओराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरहना  : पुं०=उलाहना। (पूरब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरहरा  : पुं०=होरहा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओराँव  : पुं० [?] एक प्राचीन जाति जो चंपारन, पलामू ,राँची आदि के आस-पास रहती थी। स्त्री० उक्त जन-जाति की बोली या विभाषा।
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ओरा  : पुं० ओला। उदाहरण—गरहिं गात जिमि आतप ओरे।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओराना  : अ० [हिं० ओरअंत+आना(प्रत्यय)] १. ओर या सिरे पर आना। २. समाप्ति के लगभग होना। ३. व्यय होते-होते समाप्त होना। खतम हो जाना। ४. पशुओं का गर्भकाल समाप्ति पर होना और प्रसव काल समीप आना। स० १. ओर या सिरे पर लाना। २. समाप्त करना।
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ओराहना  : पुं०=उलाहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरिया  : स्त्री० [हिं० ओरसिरा] वह लकड़ी जो ताना तनते समय खूँटी के पास गाड़ी जाती है। स्त्री०=ओलती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरी  : स्त्री० [हिं० ओर=सिरा] छप्पर का वह किनारा या सिरा जहाँ से वर्षा का जल नीचे गिरता है। स्त्री०=ओर (तरफ)। उदाहरण—बंस बखान करै दोउ ओरी।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरौता  : वि० [हिं० ओर+औता (प्रत्यय)] १. जिसका अंत या समाप्ति होने को हो। २. जो प्रायः अंत या समाप्ति के समय होता हो। अंतिम सिरे पर होनेवाला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओरौती  : स्त्री०=ओलती (ओरी)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओर्रा  : पुं० [देश] एक प्रकार का बहुत बड़ा बाँस जिसकी ऊँचाई १२0 फुट तक होती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओलंदेज  : पुं० [अं० हालैण्ड] [वि० ओलंदेजी] हालैण्ड देश का नागरिक या निवासी। हालैण्ड-वासी।
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ओलंदेजी  : वि० [ओलंदेज] हालैण्ड देश में होने या उससे संबंध रखनेवाला। स्त्री० हालैण्ड की भाषा।
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ओलंब  : (ा) पुं० [सं० उपालंभ] उलाहना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओलंभा  : पुं०=ओलंबा (उलाहना)।
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ओल  : पुं० [सं० आउन्द्+क, नलोप, पृषो] सूरन। जिमीकंद। वि०गीला। तर। पुं० [सं० ओढ़=पास लाया हुआ] १. गोद। २. आड़। ओट। ३. शरण। उदाहरण—सूरदास ताकौं डर काकौ हरि गिरधर के ओले।—सूर। ४. किसी वस्तु या प्राणी का किसी दूसरे व्यक्ति के पास जमानत के रूप में तब तक के लिए रखा रहना जब तक उस दूसरे व्यक्ति को कुछ रुपया न मिले उथवा उसकी कोई शर्त पूरी न की जाय। (होस्टेज) ५. उक्त प्रकार से जमानत में रहनेवाला व्यक्ति या वस्तु। उदाहरण—चितै चितै हरि चारू विलोकनि मानौ माँगत है मन ओल।—सूर। ६. विरह या वियोग की दशा में आनेवाली याद या होनेवाली स्मृति। उदाहरण—परम सनेही राम की निति ओलूँरी आवँ।—मीराँ। ७. बहाना। मिस।
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ओलक  : पुं० [हिं० ओल]आड़। ओट। उदाहरण—फिर कैसे वह साँवरों आँखिन ओलक होय।—विक्रम सतसई।
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ओलगना  : अ०=अलगना (अलग दूर या होना)।
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ओलगिया  : पुं० [हिं० अलग] वह जो दूसरों से अलग होकर या दूर हट कर रहे।
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ओलचा  : पुं० [हिं० उलचना] वह दौरी या बरतन जिससे खेत में का पानी उलीच कर बाहर फेंकते या बाहर का पानी खेत में भरते हैं। हाथा।
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ओलची  : स्त्री० [सं० आलु] आलू-बालू नाम का फल।
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ओलती  : स्त्री० [हिं० ओलमना] ढलुवाँ छप्पर का वह किनारा या सिरा जहाँ से वर्षा का पानी नीचे गिरता है। ओरी।
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ओलना  : स० [हिं० ओल=आड़] आड़, ओट या परदा करना। २. आड़ बना या लगाकर आक्रमण, आघात आदि रोकना। ३. उत्तरदायित्व आदि के रूप में अपने ऊपर लेना। ४. वहन या सहन करना। स० [हिं० हूलना] घुसेड़ना। पैठाना।
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ओलमना  : अ० [सं० अवलंबन] लटकना।
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ओलरना  : अ०=उलरना।
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ओलराना  : स०=उलारना।
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ओलहना  : पुं०=उलाहना।
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ओला  : पुं० [सं० उपल] १. शीत काल में, वर्षा के जल के साथ-साथ कभी-कभी गिरनेवाले बरफ के छोटे-छोटे टुकड़े। २. मिसिरी का बना हुआ लड्डू। ३. एक प्रकार का बबूल। वि० बहुत ठंढा। पुं० [हिं० ओल] १. आड़। ओट। २. परदा। ३. भेद या रहस्य की बात। प्रत्यय-[सं० पोलक, प्रा० ओलअ=बच्चा या छोटा रूप] एक प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लगकर किसी वस्तु के आरंभिक या छोटे रूप का सूचक होता है। जैसे—साँप से सँपोला और खाट से खटोला आदि। कभी-कभी इसके योग से भाववाचक संज्ञाएँ भी बनती हैं। जैसे—झोंका से झँकोला। कुछ अवस्थाओं में यह तुच्छार्थक भी होता है। जैसे—बात से बतोला।
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ओलारना  : स०=उलराना।
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ओलिक  : पुं० [हिं० ओल=ओट] आड़। ओट। उदाहरण—विलोकत ही किये ओलिक तोहीं।-केशव।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओलियाना  : स० [हि० हूलना ?] १. गोद में भरना या लेना। २. किसी पात्र के अन्दर कोई चीज प्रविष्ट करना। भरना। ३. कोई चीज गिराते हुए उसका ढेर लगाना। ४. घुसाना। पैठाना।
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ओली  : स्त्री० [हिं० ओल] १. क्रोड़। गोद। २. झोली। ३. आँचल। पल्ला। मुहावरा—ओली ओड़ना=(क) कुछ माँगने के लिए किसी के आगे आँचल या पल्ला पसारना। (ख) दीनता या विनय-पूर्वक माँगना। ४. खेत के एक बिस्वे में होनेवाली फसल या परता लगाकर पूरे बीघे की कुल फसल के अंदाज करने का एक प्रकार।
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ओलौना  : पुं० [सं० तुलना] उदाहरण। मिसाल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओषण  : पुं० [सं०√उष् (दाह करना)+ल्युट-अन] १. उग्र या तीखा स्वाद। २. तीतापन।
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ओषधि  : स्त्री० [सं० ओष√धा (धारण करना)+कि] १. चिकित्सा या दवा के काम में आनेवाली जड़ी-बूटी या वनस्पति। २. ऐसे पौधे या वनस्पतियाँ जो एक ही बार फल या फूल कर रह जाते हों। जैसे—गेहूँ, जव आदि।
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ओषधि-घर  : पुं० [ष० त०]=ओषधीश।
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ओषधी  : स्त्री० [सं० ओषधि+ङीष्]=ओषधि।
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ओषधीश  : पुं० [सं० ओषधि-ईश, ष० त०] १. चंद्रमा। २. कपूर।
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ओष्ठ  : पुं० [सं० उष्(दाह)+थन्] [वि० ओष्ठ्य] ओंठ। होंठ।
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ओष्ठी  : स्त्री० [सं० ओष्ठ+क्विप्+अच्-ङीष्] कुंदरू या बिंबाफल नामक लता या उसका फल, जिससे ओंठों की उपमा दी जाती है।
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ओष्ठ्य  : वि० [सं० ओष्ठ+यत्] १. ओंठ का। ओंठ संबंधी। २. (अक्षर या वर्ण) जिसके उच्चारण में ओठों की भी सहायता लेनी पडती है। जैसे—प, फ, ब आदि।
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ओष्ण  : वि० [सं० आ-उष्ण, प्रा० स०] जो थोड़ा गरम हो। कुनकुना। गुनगुना।
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ओस  : स्त्री० [सं० अवश्याय, पा० उस्साव] वातावरण में फैले हुए वाष्प का वह रूप जो जमकर जल के कणों या छोटी-छोटी बूँदों के रूप में परिवर्तित होकर पृथ्वी पर गिरता है। विशेष—प्रायः सबेरे के समय ये जलकण फूल-पत्तों पर पड़े हुए दिखाई देते हैं। मुहावरा—(किसी चीज या बात पर) ओस पड़ना=अवस्था, शक्ति, शोभा आदि का पहले से क्षीण या हीन होना। कुम्हलाना। मुरझाना। पद—ओस का मोती=ऐसी बात या वस्तु जिसका अस्तित्व बहुत ही क्षणिक हो।
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ओसर  : पुं० [सं० अवसर] १. अवसर। मौका। २. समय। वक्त। ३. पारी। बारी। उदाहरण—झूलहिं झुलावहिं ओसरिह्र गावैं सुही गौड़ मलार।—तुलसी। स्त्री० [सं० उपसर्या] ऐसी भैंस जो अभी तक गाभिन न हुई हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसरना  : अ० बरसना। (राज)। अ०=उसरना (ऊपर उठना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसरा  : पुं० [सं० अवसर] १. पारी। बारी। २. दूध दुहने का समय। ३. किसी विशिष्ट कार्य के लिए नियमित या नियत समय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसरी  : स्त्री० [सं० अवसर] पारी। बारी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसांक  : पुं० [सं० ] वातावरण की वह अवस्था अथवा उसके तापमान का वह बिन्दु जिस पर आकाश में ओस जमती और नीचे गिरती है। (ड्यूप्वाइंट)
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ओसाई  : स्त्री० [हिं० ओसाना] १. अनाज ओसाने की क्रिया या भाव। २. अनाज ओसाने का पारिश्रमिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसान  : पुं०=ओसाई। पुं०=अवसान।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसाना  : स० [सं० आवर्षण, पा० आवस्सन] भूसा मिले हुए अनाज को कुछ ऊँचाई से जमीन पर इस प्रकार गिराना कि भूसा हवा के झोंके से उड़कर अलग हो जाय और अनाज के दाने अलग इकट्ठे हो जायँ। मुहावरा—अपनी (बातें) ओसाना=अपनी ही बातें कहते चलना।
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ओसार  : पुं० [सं० अवसरफैलाव] फैलाव। विस्तार। वि०=चौड़ा। पुं०=ओसारा।
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ओसारना  : स०=१. उसारना।=२. ओसाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसारा  : पुं० [सं० उपशाल] [स्त्री० अल्प० ओसारी] कच्चे देहाती मकानों के आगे बना हुआ दालान या बरामदा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओसीसा  : पुं०=उसीसा (तकिया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओह  : अव्य० [सं० अहह का अनु] आश्चर्य, कष्ट, दुःख, पश्चाताप संताप आदि का सूचक एक अव्यय। जैसे—ओह ! इतना अनर्थ !।
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ओहट  : स्त्री०=ओट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहदा  : पुं० [अ० उलदः] किसी विभाग के किसी कर्मचारी या कार्यकर्त्ता का पद, विशेषतः कुछ ऊँचा पद।
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ओहदेदार  : पुं० [फा०] वह जो किसी ओहदे या पद पर नियुक्त हो। पदाधिकारी।
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ओहना  : स० [सं० अवधारण] डंठलों को हिलाते हुए उनके दाने नीचे गिराना। खरही करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहर  : क्रि० वि०=उधर (पूरब)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहरना  : अ० [सं० अवहरण] बढ़ती या उमड़ती हुई चीज का उतार पर होना या घटना। कमी या घटाव पर होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहरी  : स्त्री० [हिं०हारना=थकना] थकावट।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहा  : पुं० [सं० ऊधस्] गाय का थन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहार  : पुं० [सं० अवधार] वह कपड़ा जिससे पालकी, रथ आदि ढके जाते हैं। उदाहरण—सिविका सुभग ओहार उघारी।—तुलसी।
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ओहि, ओही  : सर्व० [हिं० ओ० वह] १. उसको। उसे। २. उससे। उदाहरण—सादर पुनि पुनि पूछत ओही।—तुलसी।
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ओहू  : सर्व० [ओ=वह+हू=भी] वह भी। उदाहरण—पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।—तुलसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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ओहो  : अव्य० [सं० अहो या अनु०] आश्चर्य या प्रसन्नता का सूचक एक अव्यय।
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