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कल्प  : पुं० [सं०√कृप् (कल्पना+णिच्+अच् वा घञ्] १. मांगलिक और शुभ कृत्य, नियम तथा विधि-विधान। (विशेषतः वेदों में बतलाये हुए) २. वेदों के छः अंगों में से एक, जिसमें बलिदान, यज्ञ आदि से संबंध रखनेवाली विधियाँ बतलाई गई हैं। ३. हिंदू पंचांग के अनुसार काल या समय का एक बहुत बड़ा विभाग जो एक हजार महायुगों अर्थात् ४ अरब ३२ करोड़ मानव वर्षों का कहा गया है। विशेष—हमारे यहाँ प्रत्येक कल्प ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है, और ऐसे ३६॰ दिनों का ब्रह्मा का एक वर्ष होता है। कहते हैं कि अब तक ब्रह्मा के ऐसे ५॰ वर्ष बीत चुके हैं; और आज कल ५१ वें वर्ष के पहले महीने का पहला दिन चल रहा है, जिसका नाम श्वेत वाराह कल्प है। ऐसे प्रत्येक कल्प में एक हजार महायुग होते हैं; और प्रत्येक महायुग के चार अलग-अलग विभाग ही युग कहलाते हैं। प्रत्येक कल्प के अन्त में, जिसे कल्पांत कहते हैं, भौतिक सृष्टि का अंत या प्रलय होता है। ४. आधुनिक पुरा-शास्त्र और भू-शास्त्र के क्षेत्रों में, करोड़ों अरबों वर्षों का वह विशिष्ट काल-विभाग, जो कई युगों में विभक्त रहता है और जिसमें पृथ्वी की कुछ स्वतन्त्र प्रकार की विकासात्मक स्थितियाँ होती हैं। (एरा) जैसे—आदि कल्प, उत्तर कल्प, मध्य कल्प, नव कल्प (देखें)। विशेष—ये नामकरण हमारे यहाँ के पुराने कल्पों और युगों के आधार पर ही हुए हैं। पर आधुनिक वैज्ञानिक एक तो इनकी उस प्रकार की पुनरावृत्ति नहीं मानते, जिस प्रकार की हिंदू पंचांग में मानी गई है; दूसरे वे अपने कल्पों और युगों के लक्षण पृथ्वी के विशुद्ध विकासात्मक रूपों या विभागों की दृष्टि से स्थिर करते हैं। ५. प्रलय। ६. ग्रंथों आदि का कोई प्रकरण या विभाग। ७. मनुष्य का शरीर। ८. वैद्यक में ऐसा उपचार या चिकित्सा जो सारे शरीर अथवा उसके किसी अंग को बिलकुल नये सिरे से ठीक या पूरी तरह से नीरोग तथा स्वस्थ करने के लिए की जाती है। जैसे—कायाकल्प, नेत्रकल्प आदि। ९. एक प्रकार का नृत्य। १॰. दे० ‘कल्पवृक्ष’। वि० जो यथेष्ट, पूर्ण या वास्तविक न होने पर भी बहुत कुछ किसी दूसरे की बराबरी का या समान हो। तुल्य, समान (यौ० के अन्त में)। जैसे—ऋषिकल्प, देवकल्प।
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कल्पक  : वि० [सं० कल्प से] १. कल्प-संबंधी। २. वेदों में बतलाये हुए नियमों, विधि-विधानों आदि के अनुसार होनेवाला। वि० [सं० कल्पन से] १. कल्पना-संबंधी। २. कल्पना करनेवाला। पुं० [√कृप्+णिच्+ण्वुल्—अक] १. नाई। हज्जाम। २. कूचर।
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कल्पकार  : वि० [सं० कल्प√कृ (करना)+अण्] १. विधि-विधानों आदि की रचना करनेवाला। २. कल्प-शास्त्र का रचनेवाला। गृह्य श्रौत सूत्र का रचयिता। जैसे—कल्पकार ऋषि का मत है।
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कल्प-तरु  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-द्रुम  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्पन  : पुं० [सं०√कृप्+णिच्+ल्युट्—अन] १. किसी वस्तु को बनाने, रचने अथवा उसे कोई दूसरा रूप देने की क्रिया या भाव। २. किसी अमूर्त्त भावना या विचार को कल्पना के आधार पर मूर्त्त रूप देना। कल्पना करना। ३. धारदार औजारों से कतरना तथा काटना। ४. वह चीज जो सजावट के लिए किसी दूसरी चीज पर बैठाई या लगाई जाय।
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कल्पनक  : वि० [सं० कल्पना से] १. कल्पना से युक्त (कार्य)। २. (व्यक्ति) जिसकी कल्पना-शक्ति बहुत प्रबल हो अथवा जो सदा कल्पना करता रहता हो।
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कल्पना  : स्त्री० [सं० कृप्+णिच्+यच्—अन, टाप्] १. किसी वस्तु को बनाना या रचना। विशेष दे० ‘कल्पन’। २. वह क्रियात्मक मानसिक, शक्ति, जिसके द्वारा मनुष्य अनोखी और नई बातों या वस्तुओं की प्रतिमाएँ या रूप-रेखाएँ अपने मानस-पटल पर बनाकर उनकी अभिव्यक्ति काव्यों, चित्रों, प्रतिमाओं आदि के रूप में अथवा और किसी प्रकार के मूर्त्त रूप में करता है। (इमैजिनेशन) ३. उक्त प्रकार से प्रस्तुत की हुई कृति या रूप-रेखा। ४. गणित में कुछ समय के लिए किसी मात्रा या राशि को वास्तविक या सत्य मान लेना। (सपोजीशन) ५. मनगढ़ंत बात। पद—कोरी कल्पना=ऐसी कल्पित बात, जिसका कोई आधार न हो। अ० स०=कल्पना।
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कल्पनी  : स्त्री० [सं० कल्पन+ङीष्] कतरनी। कैंची।
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कल्पनीय  : वि० [सं०√कृप्+णिच्+अनीयर्] जिसकी कल्पना की जा सकती हो। कल्पना में आने के योग्य। (इमैजिनेबुल)
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कल्प-पादप  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-भव  : पुं० [ब० स०] जैन-शास्त्रानुसार जैनों में एक प्रकार के देवगण जो संख्या में बारह हैं।
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कल्प-लता (लतिका)  : स्त्री० [ष० त०] १. कल्पवृक्ष। २. हठयोग में उन्मनी मुद्रा; अर्थात् मन को परमात्मा में लगाने की अवस्था।
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कल्प-वास  : पुं० [मध्य० स०] माघ महीने में गंगा-तट पर संयमपूर्वक निवास करना।
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कल्प-विटप  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-वृक्ष  : पुं० [कर्म० स०] १. पुराणानुसार स्वर्ग का एक वृक्ष जिसकी छाया में पहुँचते ही सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। २. लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो दूसरों की बहुत उदारतापूर्वक सहायता करता हो। बहुत बड़ा दानी। ३. एक प्रकार का वृक्ष जो बहुत अधिक ऊँचा, घेरदार और दीर्घजीवी होता है।
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कल्पशाखी (खिन्)  : पुं० [कर्म० स०] कल्पवृक्ष।
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कल्प-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] वह सूत्र ग्रंथ, जिस में यज्ञादि कार्यों तथा गृह्य कर्मों का विधान हो।
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कल्प-हिंसा  : स्त्री० [मध्य० स०] वह हिंसा जो अन्न पकाने, पीसने आदि के समय होती है। (जैन) विशेष—यह हिंदुओं के पंचसूना के ही समान है।
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कल्पांत  : पुं० [कल्प-अन्त, ष० त०] सृष्टि के जीवन में प्रत्येक कल्प का अंत जिसमें प्रलय होता है और सभी जीवधारियों का अंत हो जाता है।
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कल्पित  : वि० [सं०√कृप्+णिच्+क्त] १. जिसकी कल्पना की गई हो। कल्पना के आधार पर प्रस्तुत किया हुआ। २. कुछ समय के लिए अथवा यों ही काम चलाने के लिए वास्तविक या सत्य माना हुआ। ३. मन गढ़ंत। ४. नकली। बनावटी।
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कल्पितोपमा  : स्त्री० [कल्पित-उपमा कर्म० स०] उपमालंकार का एक भेद, जिसमें कवि उपमेय के लिए कोई उपयुक्त उपमान न मिलने पर किसी कल्पित उपमान से उसकी उपमा दे देता है। इसे ‘अभूतोपमा’ भी कहते हैं।
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