शब्द का अर्थ
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चक :
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पुं०[सं० चक्र] १. चक्रवाक। (पक्षी)। चकवा २. चक्र नामक अस्त्र। ३. चाक। पहिया। ४. चकई नाम का खिलौना। ५. चक्क (दे०)। ६. जमीन का लंबा-चौड़ा बड़ा टुकड़ा। पद-चकबंदी (देखें)। ७. छोटा गाँव। खेड़ा। ८. करघे की बैसर के कुलवाँसे से लटकती हुई रस्सियों से बँधा हुआ डंडा जिसके दोनों छोर पर से चकडोर नीचे की ओर जाती है। ९. ओर। तरफ। दिशा। उदाहरण–पवन विचार चक चक्रमन चित्त चढि भूतल अकास भ्रमै घाम जल सीत में।–केशव। १॰. अधिकता। ज्यादती। बाहुल्य। मुहावरा–चक बँधना=बराबर अधिकता या वृद्धि होना। ११. अधिकार। प्रभुत्व। मुहावरा–चक जमना या बैठना=पूरी तरह से अधिकार या प्रभुत्व स्थापित होना। १२. एक प्रकार का गहना जिसका आकार गोल और उभारदार होता हैं। (पंजाब)। वि० बहुत अधिक। भरपूर। यथेष्ठ। वि०=भौंचक। पुं० [सं०] साधु। वि० खल। दुष्ट। |
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समानार्थी शब्द-
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चकई :
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स्त्री० [हिं० चकवा] मादा चकवा मादा सुरखाब। स्त्री० [सं० चक्र] काठ का एक प्रसिद्ध खिलौना जो लगी हुई डोरी पर ऊपर नीचे चढ़ता-उतरता है। वि० चक्र के आकार का। गोल। जैसे–चकई आडू या सेब। |
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चकचकाना :
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अ० [देश०] १. किसी तरल पदार्थ का किसी चीज में रस कर ऊपर या बाहर निकलना। २. भींग जाना। भींगना। अ०=चकना (चकित होना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकचकी :
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स्त्री० [अनु०] करताल नाम का बाजा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकचाना :
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अ० [अनु०] अधिक प्रकाश में नेत्रों का चौधियाना। |
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चकचाल :
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स्त्री० [सं० चक्र+हिं० चाल] १. चक्र की गति या चाल. २. चक्कर। फेरा। ३. चक्र की तरह घूमने रहने का भाव. ४. पार्थिव आवागमन के चक्र में पड़े या फँसे होने की अवस्था। |
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चकचाव :
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पुं०=चकाचौंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकचून :
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वि० [सं० चक्र-चूर्ण] १. चूर किया हुआ। चकनाचूर। अच्छी तरह पीसकर बारीक किया हुआ। २. अच्छी तरह तोड़ा-फोड़ा या चकनाचूर किया हुआ। चक+चूर-वि०=चकचून। |
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चकचूरना :
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स० [हिं० चक+चूरन] १. बहुत महीन पीसना या छोटे-छोटे टुकड़े करना। २. चकनाचूर करना। |
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चकचोह :
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स्त्री०=चुहल। |
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चकचोहा :
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वि० [हिं० चक(-भरपूर)+चोआ(-रस)] [स्त्री० चकचोही] रस से खूब भरा हुआ। २. चिकना-चुपड़ा। स्त्री० [अनु०] हँसी-ठट्ठा। चुहल। |
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चकचौंध :
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स्त्री०=चकाचौंध। |
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चकचौंधना :
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अ० [सं० चक्षु और अंध] चकाचौंध होना। स० चकाचौंध उत्पन्न करना। |
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चकचौंह :
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स्त्री०=काचौंध। |
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चका-चौंबंद :
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वि०=चाक-चौबंद। |
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चकचौहना :
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अ० [हिं० चक+चौहना] चाह भरी दृष्टि से देखना। प्रेम-पूर्वक देखना। |
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चकचौहाँ :
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वि० [हिं० चकचौहना] १. जो नेत्रों को चौंधिया देता हो। २. बहुत ही प्रकाशपूर्ण या चमकीला। ३. सुंदर। सुहावना। |
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चकड़वा :
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पुं०=चकरबा। |
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चक-डोर :
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पुं० [हिं० चकई+डोर] १. चकई, लट्टू आदि घुमाने या नचाने की डोरी। २. जुलाहों के करघे की वह डोरी जिसमें बेसर बँधी रहती है। |
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चकडोल :
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स्त्री० [सं० चक्र-दोला] एक प्रकार की पुरानी चाल की पालकी। (राज०) उदाहरण–चकडोल लगै इणिं भाँति सुँचाली।-प्रिथीराज। |
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चकत :
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स्त्री० [हिं० चकी=दाँतों की पकड़] दाँतों से कसकर पकड़ने की क्रिया या भाव। दाँतों की पकड़। मुहावरा–चकत मारना=दाँतों से पकड़कर मांस आदि नोचना। |
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चकताई :
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पुं०=चकत्ता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकती :
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स्त्री० [सं० चक्रवत] १. कपड़े, चमड़े, धातु आदि का फाड़ या काटकर बनाया हुआ गोल या चौकोर टुकड़ा। २. उक्त प्रकार का कटा हुआ वह टुकड़ा जो वैसी किसी दूसरी ही चीज की कटी या टूटी हुई जगह पर लगाया जाता है। जैसे–कपड़े या परात में लगाई हुई चकती। मुहावरा–आसमान या बादल में चकती लगाना।=(क) अनहोनी या असंभव काम या बात करने का प्रयास करना। (ख) बहुत बढ़-चढ़कर और अपनी शक्ति के बाहर की बातें करना। ३. दुबें भेंड़े की गोल चक्राकार दुम। |
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चकता :
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पुं० [सं० चक्रवत्ता] १. रक्त विकार आदि के कारण पड़ा हुआ शरीर पर बड़ा गोल दाग। चमडे का उभरा हुआ धब्बा वा दाग। ददोरा। जैसे–कोढ़ या दाद होने पर शरीर में जगह-जगह चकत्ते पड़ जाते हैं। २. शरीर में गड़े या गढ़ाये हुए दाँतों का चिन्ह्र या निशान। जैसे–कुत्ते या बन्दर के काटने से शरीर में पड़नेवाला चकत्ता। मुहावरा–चकत्ता भरना या मारना=दाँतों से काटकर मांस निकाल लेना। पुं० [तु० चगताई] १. मुगल या तातार अमीर चगताई खाँ जिसके वंश में बाबर, अकबर आदि का मुगल बादशाह हुए थे। २. उक्त के वंश का कोई व्यक्ति। ३. बहुत बड़ा राजा। महाराजा। |
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चकदार :
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पुं० [हिं० चक+फा० दार (प्रत्यय)] वह जो किसी दूसरे की जमीन पर कुआँ बनाकर उस जमीन का लगान देता है। |
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चकना :
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अ० [सं० चक्र=भ्रांत] १. चकित या विस्मित होना। भौ-चक्का होना। चकराना। २. भयभीत या सशंकित होना। ३. चौंकना। |
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चकनाचूर :
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वि० [हिं० चक=भरपूर+चूर] १. जिसके टूट-फूटकर बहुत से छोटे-छोटे टुकड़े हो गये हों। चूर-चूर। चूर्णित। २. लाक्षणिक रूप में, बहुत अधिक थका हुआ। बहुत शिथिल और शांत। |
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चकपक :
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वि० [सं० चक्र=भ्रांत] चकित। भौंचक्का। हक्का-बक्का। स्त्री० चकित या विस्मित होने की अवस्था या भाव। |
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चकपकाना :
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अ० [सं० चक्र-भ्रांत] १. बहुत अधिक चकित या विस्मित होना। भौंचक्का या हक्का-बक्का होना। २. भय या शंका से विकल होना। ३. चौंकना। |
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चकफेरी :
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स्त्री० [सं० चक्र, हिं० चक+हिं० फेरी] किसी वृत्त या मंडल के चारों ओर घूमने या फिरने की क्रिया या भाव। परिक्रमा। भँवरी। क्रि० प्र०-करना।–खाना।–फिरना।–लेना। |
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चकबँट :
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स्त्री० [हिं० चक+बाँटना] बहुत से खेतों को कुछ आदमियों में बाँटने का वह प्रकार जिसमें कई खेतों के चक या समूह प्रत्येक हिस्सेदार को दिये जाते हैं। |
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चकबंदी :
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स्त्री० [हिं० चक+फा० बंदी] १. भूमि के बहुत बड़े खंड को छोटे-छोटे चकों या भागों में बाँटने की क्रिया या भाव। २. छोटे-छोटे खेतों को एक में मिलाकर उनके बड़े-बड़े चक या विभाग बनाने की क्रिया या भाव। (कन्सोलिडेशन आफ होल्डिंग्स)। |
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चकवक :
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पुं०=चकमक। |
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चकवस्त :
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पुं० [फा०] १. चकों में बँटा हुआ भूमि खंड। २. कश्मीरी ब्राह्मणों का एक भेद या वर्ग। |
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चकमक :
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पुं० [तु० चकमाक] एक प्रकार का आग्नेय कड़ा पत्थर-जिस पर चोट पड़ने से आग निकलती है। (फ्लिन्ट)। |
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चकमा :
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पुं० [सं० चक्र=भ्रांत] १. ऐसा धोखा या भुलावा जो किसी का ध्यान किसी दूसरी ओर आकृष्ट करके दिया जाय। किसी का ध्यान दूसरी ओर रखकर उसे दिया जानेवाला धोखा। क्रि० प्र०-खाना।-देना। २. लड़कों का एक प्रकार का खेल। पुं० [?] एक प्रकार का बंदर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकमाक :
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पुं०=चकमक। |
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चकमाकी :
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वि० [तु० चकमक] चकमक का। जिसमें चकमक हो। स्त्री० पुरानी चाल की एक प्रकार की बंदूक जो चकमक पत्थर के योग से गोली छोड़ती थी। |
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चकर :
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पुं० [सं० चक्र] चक्रवाक पक्षी। चकवा। पुं० चक्कर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकरबा :
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पुं० [सं० चक्रव्यूह] १. ऐसी स्थिति जिसमें यह न सूझे कि क्या करना चाहिए। असमंजस की ओर विकट अवस्था। २. व्यर्थ का झगड़ा या बखेड़ा। |
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चकर-मकर :
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पुं० [सं० चक्र+फा० मकर] छल-कपट की बात। धोखेबाजी। |
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चकरसी :
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पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत बड़ा पेड़ जो बंगाल और आसाम में होता है। इसके हीर की चमकीली और मजबूत लकड़ी मेज कुरसी आदि सामान बनाने के काम में आती है। |
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चकरा :
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पुं० [हिं० चक्कर] पानी का भँवर। वि० [स्त्री०चकरी] चारों ओर घूमने या चक्कर खानेवाला। वि० [सं० चकरी] चौड़ा। विस्तृत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चकला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकराना :
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अ० [सं० चक्र] १. सिर का चक्कर खाना। सिर घूमना। २. किसी प्रकार के चक्कर या फेर में पड़ना। ३. चारों ओर या इधर-उधर घूमना। भ्रांत होना। भटकना। ४. चकित होना। स० १. चक्कर देना या खिलाना। २. किसी को चक्कर या फेर में डालना। चकित या स्तंभित करना। |
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चकरानी :
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स्त्री० [फा० चाकर का स्त्री०]=चाकरानी (दासी)। |
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चकरिया :
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वि० [फा० चाकरी+हा (प्रत्यय)] नौकरी-चाकरी करनेवाला। पुं० टहलुआ। सेवक। |
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चकरिहा :
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वि०=चकरिया। |
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चकरी :
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स्त्री० [सं० चक्री](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. चक्की। २. चक्की का पाट। ३. चक्की के पाट की तरह की कोई गोलाकार चिपटी चीज। ४. लड़कों के खेलने का चकई नाम का खिलौना। ५. चारों ओर भटकानेवाला चक्कर या फेर। भ्रांति। उदाहरण–यह तौ सूर तिन्हैं लै सौपौं जिनके मन चकरी।-सूर। |
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चकरी-गिरह :
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स्त्री० [जहाजी] अर्गल में लगी हुई रस्सी की गाँठ जो उसे रोके रहती है।(लश०) |
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चकल :
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पुं० [हिं० चक्का](यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) १. किसी पौधे को दूसरी जगह लगाने या खोदकर निकालने की क्रिया या भाव। २. वह मिट्टी जो उक्त प्रकार से पौधे को उखाड़कर दूसरी जगह ले जाने पर उसकी जड़ में लिपटी रहती है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकलई :
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स्त्री० [हिं० चकला] चकला (चौडा या सपाट) होने की अवस्था या भाव। विस्तार। |
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चकला :
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पुं० [सं० चक्र, हिं० चक+ला (प्रत्यय)] १. काठ, पत्थर, लोहे आदि का गोलाकार चिकना खंड जिस पर पूरी या रोटी बेली जाती है। २. वह भू-भाग जो एक ही तल में दूर तक फैला हो और जिसमें कई गाँव या बस्तियाँ हों। पद-चकलेदार (देखें)। ३. व्यभिचार करानेवाली वेश्याओं की बस्ती या मुहल्ला। ४. चक्की। वि० [स्त्री० चकली] अधिक विस्तारवाला। चौड़ा। जैसे–चकला मैदान। |
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चकलाना :
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स० [हिं० चकल] पौधे को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लगाने के लिए मिट्टी समेत उखाड़ना। चकल उठाना। स० [सं० चकला] चकला अर्थात् चौड़ा या विस्तृत करना। |
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चकली :
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स्त्री० [सं० चक्र, हिं० चक्र] १. छोटा चकला जिस पर चंदन आदि घिसते हैं। चौकी हिरसा। २. गड़ारी। घिरनी। |
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चकलेदार :
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पुं० [हिं० चकला+फा० दार] वह अधिकारी जो किसी चकले अर्थात् विस्तृत भू-भाग की मालगुजारी आदि वसूल करता और किसी की ओर से वहाँ की व्यवस्था तथा शासन करता था। |
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चकल्लस :
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स्त्री० [?] १. झगड़ा-बखेड़ा। २. मित्रों में होनेवाली हँसी-मजाक या हास-परिहास। |
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चकवँड़ :
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पुं० [सं० चक्रमर्द] एक प्रकार का जंगली बरसाती पौधा जिसकी पत्तियाँ, डंठल या तने की ओर नुकीली और सिरे की ओर गोलाई लिये हुए चौड़ी होती हैं। पमार। पवाड़। पुं० [सं० चक्र] मिट्टी का वह छोटा पात्र जिसमें से थोड़ा-थोड़ा हाथ से जल निकालकर चक्क पर चढ़े हुए पात्र को कुम्हार गीला तथा चिकना करता है। |
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चकवा :
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पुं० [सं० चक्रवाक, पा० चक्कवाको, प्रा० चक्कवाअ, चकाअ, गु० चको, सि० चकुओ, पं० चक्का, सि० सक्का, ने० चखेवा; मरा० चकवा] [स्त्री० चकई] १. एक प्रसिद्ध जल-पक्षी जिसके संबंध में यह कहा जाता है कि यह रात को अपने जोड़े से अलग हो जाता है। सुरखाब। २. रहस्य संप्रदाय में, मन। पुं० [सं० चक्र] १. एक प्रकार का ऊँचा पेड़ जिसके हीर की लकड़ी बहुत मजबूत और छाल कुछ स्याही लिये सफेद वा भूरी होती है। इसके पत्ते चमड़ा सिझाने के काम में आते हैं। २. जुलाहों की चरखी में लगी हुई बाँस की छड़ी। ३. हाथ में दबा-दबाकर बढा़ई हुई आटे की लोई। |
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समानार्थी शब्द-
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चकवाना :
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अ०=चकपकाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकवार :
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पुं० दे० ‘कछुआ’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकवाह :
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पुं०=चकवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकवी :
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स्त्री०=चकई। |
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चकवै :
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पुं० १. दे० ‘चक्रवर्ती’। २. दे० ‘चकोर’। |
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चकसेनी :
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स्त्री० [देश०] काकजंघा। |
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चकहा :
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पुं० [सं० चक्र] गाड़ी आदि का पहिया। पुं०=चकवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकाड़ूँ :
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पुं० [हिं० चक+आँड़] चिपटा अँडकोश। |
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चका :
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पुं० [सं० चक्र] १. पहिया। २. चक्क।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=चकवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकाकेवल :
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स्त्री० [हिं० चकवा, चक्का] काले रंग की मिट्टी जो सूखने पर चिटक जाती और पानी से लसदार होती है। यह कठिनता से जोती जाती है। |
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चकाचक :
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स्त्री० [अनु०] तलवार आदि के लगातार शरीर पर पड़ने का शब्द। क्रि० वि० [अनु०] अच्छी तरह से। अधिक मात्रा में। जैसे–चकाचक खाया था। वि० १. चटकीला। २. मजेदार। ३. रस आदि में डूबा हुआ। तर। तराबोर। |
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चकाचौंध :
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स्त्री० [सं० चक्र=चमकना+चौ=चारों ओर+अंध] १. किसी वस्तु के अत्यधिक प्रकाशित होने की वह स्थिति जिसमें नेत्र अधिक प्रकाश के कारण उस वस्तु को देख न पाते हों और जल्दी-जल्दी खुलने तथा बंद होने (झपकने) लगते हों। २. उक्त प्रकार की वस्तुओं के देखने से आँखों पर होनेवाला परिणाम। क्रि० प्र०=लगना।-होना। |
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चकाचौंधी :
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स्त्री०=चकाचौंध। |
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चकातरी :
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पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष। |
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चकाना :
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अ०- १. =चकपकाना। २. =चकराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकाबू :
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पुं० [सं० चक्रव्यूह] १. प्राचीन काल में युद्ध के समय किसी वस्तु या व्यक्ति को सुरक्षित रखने के लिए उसके चारों ओर खड़ा किया जानेवाला सैनिक व्यूह। २. भूल-भुलैया। (दे०)। |
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चकार :
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पुं० [सं० च+कार] १. वर्णमाला में छठा व्यंजन वर्ण जो च है। २. मुँह से निकलने वाला किसी प्रकार का शब्द। जैसे–उसके मुँह से चकार तक न निकला। पुं० [हिं० चोर का अनु०] चोर या उचक्का। जैसे–चाई-चकार चोर और नटखट चोरे बदे।-तेगअली। |
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चकावल :
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स्त्री० [देश०] घोड़े के अगले पैर में गामचे की हड्डी का उभार। |
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चकासना :
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अ०=चमकना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकित :
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वि० [सं०√चक्र (भ्रांत होना)+क्त] जो अप्रत्याशित या अदभुत कार्य, बात या व्यवहार देखकर विकल या विस्मित, सशंकित या स्तब्ध हो गया हो। आश्चर्य में आया या पड़ा हुआ। |
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चकितवंत :
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वि०=चकित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकिता :
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स्त्री० [सं० चकित+टाप्] एक प्रकार का वर्णवृत्त। |
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चकिताई :
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स्त्री० [हिं० चकित] चकित होने की अवस्था या भाव। |
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चकिया :
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स्त्री०[सं० चक्रिका] किसी चीज का गोल या चौकोर छोटा टुकड़ा। जैसे–पत्थर की चकिया। |
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चकुंदा :
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पुं० [सं० चक्रमर्द] चकवँड़ (दे०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकुरी :
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स्त्री० [सं० चक्र] मिट्टी की छोटी हाँड़ी। |
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चकुला :
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पुं० [देश०] चिडि़या का बच्चा। चेंटुआ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकुलिया :
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स्त्री० [सं० चक्रकुल्या] एक प्रकार का पौधा। |
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चकृत :
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वि०=चकित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकेठ :
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पुं० [सं० चक्र-यष्टि] वह डंडा जिससे कुम्हार चाक घुमाते हैं। |
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चकेड़ी :
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स्त्री० [सं० चक्रभाण्डिका, प्रा० चक्कहंडिया] चकवँड़ (दे०)। |
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चकेव :
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पुं०=चक्रवाक (चकवा पक्षी) उदाहरण–कुच-जुग चकेव चरइ गंगाधारे।-विद्यापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकोट :
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पुं० [हिं० चकोटना] १.चकोटने की क्रिया या भाव। २. गाड़ी के पहिए से जमीन पर पड़नेवाली लकीर। |
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चकोटना :
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स० [हिं० चकोटी] चिकोटी काटना। चुटकी से मांस नोचना। |
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चकोतरा :
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पुं० [सं० चक्र=गोला] १. एक प्रकार का नीबू की जाति का पेड़ जिसमें खट-मीठे गोल फल लगते हैं। २. उक्त पेड़ का फल जो प्रायः खरबूजे की तरह बड़ा होता है। |
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चकोता :
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पुं० [हिं० चकत्ता] एक प्रकार का रोग जिसमें घुटने के नीचे छोटी-छोटी फुंसियाँ निकल आती है। |
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चकोर :
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पुं० [सं०√चक् (तृप्त होना)+ओरन्] [स्त्री० चकोरी] १. एक प्रकार का बड़ा तीतर जो नैपाल, पंजाब और अफगानिस्तान के पहाड़ी जंगलों में मिलता है। २. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः सात भगण, एक गुरु और अंत में एक लघु होता है। यह एक प्रकार का सवैया है। |
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चकोह :
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पुं० [सं० चक्रवाह] पानी का भँवर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकौंड़ :
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पुं०=चकवँड़।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चकौंध :
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स्त्री०=चकाचौंध। |
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चकौटा :
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पुं० [देश०] १. भूमि की लगान का एक पुराना प्रकार। २. ऋण चुकाने के बदले में दिया जानेवाला पशु। मुलवन। |
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चक्क :
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पुं० [सं०√चक्क (पीड़ा होना)+अप्] पीड़ा। दर्द। वि० भर-पूर। यथेष्ट। जैसे–चक्क माल। पुं० [सं० चक्र] १. चक्रवाक पक्षी। चकवा। २. कुम्हार का चाक। ३. ओर। तरफ। दिशा। ४. दे० ‘चक्र’। |
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चक्कर :
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पुं० [सं० चक्र] १. लकड़ी, लोहे आदि का गोलाकार ढाँचा जो छड़ों तीलियों आदि द्वारा चक्रनाभि पर कसा रहता है और किसी अक्ष या धुरे को केन्द्र बनाकर उसके चारों ओर घूमता तथा यान, रथ आदि को आगे खींचता चलता है। २. उक्त आकार की कोई घूमनेवाली वस्तु। चाक। जैसे–(क) अतिशबाजी का चक्कर। (ख) पानी का चक्कर (भँवर)। (ग) सुदर्शन चक्कर। ३. कोई गोलाकार आकृति। मंडल। घेरा। ४. गोल सड़क या रास्ता। ५. किसी गोलाकार मार्ग के किसी बिन्दु से चलकर तथा उसके चारों ओर घूमकर फिर उसी बिन्दु पर पहुँचने की क्रिया या भाव। गोलाई में घूमना। मुहावरा–चक्कर काटना=किसी चीज के चारों ओर घूमना। मँडराना। ६. एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना और फिर वहाँ से लौट कर आना। जैसे–(क) आज मुझे शहर के चार चक्कर लगाने पड़े हैं। (ख) मैं उनके घर कई चक्कर लगा आया पर वे मिले नहीं। क्रि० प्र०=मारना।–लगाना। ७. रास्ते का घुमाव-फिराव। जैसे–इस रास्ते में बहुत चक्कर पड़ेगा। ८. कोई ऐसी कठिन, पेचीली या झंझट की बात या समस्या जिससे आदमी परेशान या दुःखी होता है। जैसे–कचहरी के चक्कर में इस भले आदमी को व्यर्थ फँसाया गया है। ९. धोखा। भुलावा। मुहावरा–(किसी के) चक्कर में आना=किसी के फेर में फँसना। धोखा खाना। (किसी को) चक्कर में डालना=(क) किसी ऐसे कठिन काम में किसी को फँसाना कि वह परेशान हो जाय। (ख) चकित करना। १॰. ऐसी असमंजस की स्थिति जिसमें मनुष्य कुछ सोच या निश्चित न कर पाता हो। ११. पीड़ा, रोग आदि के कारण मस्तिष्क में होनेवाला एक विकार जिसमें व्यक्ति के चारों ओर सामने की चीजें घूमने लगती हैं। घुमटा। |
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चक्कल :
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वि० [सं०√चक्क (पीड़ित होना)+अलन्] गोल। वर्तुल। |
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चक्कवइ :
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वि०=चक्रवर्ती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चक्कवत :
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पुं०=चक्रवर्ती (राजा)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चक्कवा :
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पुं०=चकवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चक्कवै :
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वि०=चक्रवर्ती। उदाहरण–अइस चक्कवै राजा चहूँ खंड भैहोई।-जायसी। |
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चक्कस :
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पुं० [फा० चकस] बुलबुल, बाज आदि पक्षियों के बैठने का अड्डा जो लोहे के छड़ का बना होता है। |
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चक्का :
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पुं. [सं० चक्रम्, प्रा० पा० चक्क, बँ० गु० मरा० चाक, उ० चक० पं० चक्क, सिं० चकु, ने० चाको] [स्त्री० अल्पा० चक्की] १.गाड़ी, रथ आदि का पहिया। चाक। २. पहिये की तरह की कोई गोलाकार चीज। ३. किसी चीज का गोलाकार जमा हुआ टुकड़ा। चक्का। जैसे–कत्थे या दही का चक्का। ४. ईंट, पत्थर आदि का टुकड़ा जो प्रायः फेंककर मारा जाता है। ५. ईंट, पत्थर के टुकडों आदि का क्रम से और सजाकर लगाया हुआ ढेर। थाक। |
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चक्की :
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स्त्री० [सं० चक्री, प्रा० चक्की] १. आटा पीसने, दाल दलने आदि का वह प्रसिद्ध यंत्र जो एक दूसरे पर रखे हुए पत्थर के दो गोलाकार टुकड़ों के रूप में होता है और जिनमें से ऊपरवाले पत्थर के घूमने से उसके नीचे डाली हुई चीजें पिसती या दली जाती है। जाँता। क्रि० प्र०-चलाना।-पीसना। मुहावरा–चक्की पीसना=(क) चक्की में डालकर गेहूँ आदि पीसना। (ख) बहुत अधिक परिश्रम का काम निरंतर करते रहना। पद-चक्की का पाट=चक्की के दोनों पत्थरों में से हर एक। चक्की की मानी=(क) चक्की के नीचे के पाट के बीच में गड़ी हुई वह खूँटी जिस पर ऊपर का पाट घूमता है। (ख) ध्रुवतारा। चलती चक्की-जगत्। संसार। जैसे–चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय।-कबीर। स्त्री० [सं० चक्रिका] १. पैर के घुटने की गोल हड्डी। २. ऊँटों के घुटनों पर का गोल हड्डा। चाकी। बिजली। |
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चक्की रहा :
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पुं० [हिं० चक्की+रहाना] चक्की को टाँकी से कूटकर खुरदरी करनेवाला कारीगर। |
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चक्कू :
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पुं०=चाकू। |
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चक्खी :
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स्त्री० [हिं० चखना] १. स्वाद के लिए चखी अर्थात् थोड़ी-थोड़ी खाई जानेवाली चटपटी और नमकीन चीज। चाट। जैसे–कचालू गोलगप्पा आदि। २. कोई नशे की चीज पीने के समय या उसके बाद मुँह का स्वाद बदलने के लिए खाई जानेवाली चटपटी या नमकीन चीज। ३. बटेरों को दाना चुगाने की क्रिया। |
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चक्र :
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पुं० [सं०√क-(करना)+क, नि० द्वित्व] १, गाड़ी का वर्त्तुलाकार पहिया। विशेष दे० ‘चक्कर’। २. कुम्हार का चाक। ३. कोई वर्त्तुलाकार चीज। ४. छोटे पहिए के आकार का एक प्राचीन अस्त्र। ५. चक्की। ६. कोल्हू। ७. पानी का भँवर। ८. हवा का बवंडर। चक्रवात। ९. दल। समुदाय। १॰. एक प्रकार का सैनिक व्यूह। ११. गाँवों, शहरों का समूह। मंडल। १२. मंडलाकार घेरा। जैसे–राशि-चक्र। १३. ऐसे गोल या चौकोर खाने जो रेखाओं आदि से घिरे हों। जैसे–कुंडली चक्र। १४. सामुद्रिक में हाथ की वह रेखा जो गोलाई में घूमी हो। १५. समय की वह अवधि जिसमें कुछ निश्चित प्रकार की घटनाएँ आदि क्रमशः घटती अथवा अवस्थाएं बदलती हों और फिर उतने ही समय में जिनकी पुनरावृत्ति होती हो। (साइकिल) जैसे–अर्थशास्त्र में व्यापार चक्र। (ट्रेड साइकिल)। १६. फेरा चक्कर। १७. चकवा। १८. तगर का फूल। १९. योग के अनुसार मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर आदि शरीरस्थ कमल या पद्य। २॰. एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक फैला हुआ प्रदेश। आसमुद्रांत भूमि। २१. दिशा। प्रातं। २२. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक भगण, तीन नगण और अंत में लघु, गुरु होते हैं। २३. धोखा। २४. (क) शरीर विज्ञान या दैहिकी के अनुसार जीवधारियों के शरीर के अन्दर की वह रचना जो तंतु-जाल के रूप में होती और कुछ विशिष्ट प्रक्रियाएँ करती हैं। (प्लेक्सस) (ख) योग शास्त्र के अनुसार शरीर के उक्त विशिष्ट अंग जो आधुनिक विज्ञान वेत्ताओं के अनुसार कुछ विशिष्ट जीवनरक्षिणी और विकासकारिणी गिल्टियों के आस-पास पड़ते हैं।(प्लेक्सस)। विशेष-पहले इनकी संख्या ६ मानी गई थी जिससे ‘षट्-चक्र’ (दे०) पद बना, पर आगे चलकर हठ योग में जब इनकी संख्या ८. मानी गई जिससे ये अष्टचक्र या अष्टकमल (दे०) कहलाने लगे। और भी आगे चलकर कुछ लोगों ने इनमें ‘ललना-चक्र’ नामक नवाँ और ‘गुरु-चक्र’ नामक दसवाँ चक्र भी बढ़ा दिया है। २५. अपना संघटन दृढ़ करने के लिए राजनीतिक, सामाजिक आदि कार्य करनेवालों का किसी स्थान पर एकत्र होकर विचार-विनिमय प्रदर्शन करना। जमाव। (रैली)। २६. गुप्त रूप से कहीं आड़ में रहकर की जानेवाली कारवाई। अभिसंधि। जैसे–यह सारा चक्र आप ही का चलाया हुआ है। २७. (संख्या के विचार से) बंदूक, राइफल आदि से गोली चलाने की क्रिया। (राउण्ड) जैसे–पुलिस ने चार चक्र गोलियाँ चलाई। २८. धातु का एक विशेष प्रकार का टुकड़ा जो प्रायः सैनिकों को कोई वीरता-पूर्ण काम करने पर पदक या तमगे के रूप में दिया जाता है। जैसे–महावीर चक्र, वीर चक्र आदि। |
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चक्रक :
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पुं० [सं० चक्र√कै (प्रतीति होना)+क] १. नव्य न्याय में एक प्रकार का तर्क। २. एक प्रकार का साँप। वि० पहिये के आकार का। गोलाकार। |
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चक्र-कारक :
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पुं० [ष० त० ] १. नखी नामक गंध द्रव्य। २. हाथ के नाखून। |
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चक्र-कुल्या :
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स्त्री० [ष० त०] चक्रपर्णी लता। पिठवन। |
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चक्र-क्रम :
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पुं० [उपमि० स०] कुछ विशिष्ट घटनाओं का कई विशिष्ट अवसरों पर क्रमशः तथा बराबर रहने का क्रम। चक्र की तरह बार-बार घूमकर आनेवाला क्रम। (साइक्लिक आर्डर) जैसे–गरमी, बरसात और सरदी का चक्र क्रम। |
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चक्र-गज :
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पुं० [स० त०] चकवँड़। |
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चक्र-गति :
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स्त्री० [ष० त०] १. किसी केन्द्र के चारों ओर अथवा अपने ही अक्ष पर घूमने की क्रिया या भाव० २. दे० ‘चक्र क्रम’। |
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चक्र-गर्त्त :
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पुं०=चक्र-तीर्थ। |
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चक्र-गुच्छ :
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पुं० [स० त०] अशोक (वृक्ष)। |
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चक्र-गोप्ता(प्तृ) :
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पुं० [ष० त०] १. सेनापति। २. राज्य का रक्षक अधिकारी। ३. रथ और उसके चक्र आदि की रक्षा करनेवाला योद्धा। |
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चक्र-चर :
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वि० [सं० चक्र√चर् (चलना)+ट, उप० स०] चक्कर या चक्र में चलनेवाला। पुं० तेली। |
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चक्र-जीवक :
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पुं० [सं० चक्र√जीव् (जीना)+ण्वुल्-अक, उप० स० त०] कुम्हार। |
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चक्र-जीवी(विन्) :
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पुं० [सं० चक्र√जीव्+णिनि, उप० स०] = चक्रजीवक। |
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चक्र-ताल :
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पुं० [मध्य० स०] संगीत में एक प्रकार का चौदह ताला ताल। |
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चक्रतीर्थ :
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पुं०[मध्य० स०] १. दक्षिण भारत का वह तीर्थ स्थान जहाँ ऋष्टमूक पर्वतों के बीच में तुंगभद्रा नदी घूमकर बहती हैं। २. नैमिषारण्य का एक सरोवर। |
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चक्र-तुंड :
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पुं० [ब० स०] गोल मुँहवाली एक प्रकार की मछली। |
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चक्र-दंड :
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पुं० [उपमि० स०] एक प्रकार की कसरत जिसमें जमीन पर दंड करके झट दोनों पैर समेट लेते हैं और फिर दाहिने पैर को दाहिनी ओर और बाएँ पैर को बाई ओर चक्कर देते हुए पेट के पास लाते हैं। |
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चक्र-दंती :
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स्त्री० [ब० स० ङीष्] १. दंती वृक्ष। २. जमाल गोटा। |
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चक्र-दंष्ट्र :
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पुं० [ब० स०] सूअर। शूकर। |
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चक्रधर :
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वि० [सं० चक्र√धृ (धारण)+अच्, उप० स०] चक्र धारण करनेवाला। जिसके पास या हाथ में चक्र हो। पुं० १. विष्णु। २. श्रीकृष्ण। ३. ऐंद्रजालिक। बाजीगर। ४. किसी छोटे भू-भाग का अधिकारी या शासक। ५. साँप। ६. गाँव का पुरोहित। ७. नटराग से मिलता जुलता षाडव जाति का एक राग जो संध्या समय गाया जाता है। |
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चक्रधारा :
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स्त्री० [ष० त०] चक्र की परिधि। |
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चक्रधारी(रिन्) :
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वि० पुं० [सं० चक्र√धृ (धारण)+णिनि, उप० स०]=चक्कर। |
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चक्र-नख :
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पुं० [ब० स०] व्याघ्र नख नामक ओषधि। बघनखा। |
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चक्र-नदी :
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स्त्री० [मध्य० स०] गंडकी नदी। |
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चक्र-नाभि :
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स्त्री० [ष० त०] पहिये का वह मध्य भाग जिसके बीच में से अक्ष या धुरा होकर जाता है। |
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चक्र-नाम :
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पुं० [ब० स०] १. माक्षिक धातु। सोनामक्खी। २. चकवा या चक्रवाक पक्षी। |
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चक्र-नायक :
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पुं० [ष० त०] व्याघ्र नख नाम की ओषधि। |
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चक्र-नेमि :
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स्त्री० [ष० त० ] पहिये का घेरा या परिधि। |
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चक्र-पर्णी :
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स्त्री० [ब० स० ङीष्] पिठवन। |
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चक्र-पाणि :
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पुं० [ब० स०] हाथ में चक्र धारण करनेवाले विष्णु। |
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चक्र-पाद :
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पुं० [ब० स०] १. गाड़ी। रथ। २. हाथी। |
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चक्र-पादक :
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पुं० चक्रपाद (दे०)। |
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चक्र-पानि :
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पुं०=चक्रपाणि।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चक्र-पाल :
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पुं० [सं० चक्र√पाल् (रक्षा)+णिच्, उप० स०] १. वह जो चक्र धारण करे। २. किसी प्रदेश का शासक या सूबेदार। ३. गोल आकृति। वृत्त। ४. संगीत में शुद्ध राग का एक भेद। |
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चक्र-पूजा :
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स्त्री० [स० त०] १. तांत्रिकों की एक प्रकार की पूजा-विधि जिसमें बहुत से उपासक एक चक्र या मंडल के रूप में बैठकर तांत्रिक क्रियाएँ करते हैं। २. दे० ‘चरकपूजा’। |
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चक्र-फल :
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पुं० [ब० स०] एक प्राचीन अस्त्र जिसका फल गोलाकार होता था। |
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चक्र-बंध :
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पुं० [ब० स०] कविता-रचना का एक प्रकार जिसमें उसके शब्द खानों में भरे जाते हैं। |
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चक्र-बंधु :
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पुं० [ष० त० ] १. सूर्य। २. अँगूठी। ३. समूह। |
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चक्र-बांधव :
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पुं० [ष० त० ] चक्र-बंधु (दे०)। |
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चक्र-भृत् :
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पुं० [सं० चक्र√भृ (धारण)+क्विप्, उप० स०] १. चक्र नामक अस्त्र धारण करनेवाला व्यक्ति। २. विष्णु। |
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चक्र-भेदिनी :
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स्त्री० [सं० चक्र√भिद् (विदारण)√णिनि-ङीष्,उप० स०] रात्रि। रात। |
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चक्र-भोग :
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पुं० [ष० त०] ज्योतिष में ग्रह की वह गति जिसके अनुसार वह एक स्थान से चलकर फिर उसी स्थान पर पहुँचता है। |
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समानार्थी शब्द-
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चक्र-भ्रम :
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पुं० [सं० चक्र√भ्रम् (घूमना)+अच्, उप० स०] खराद। |
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समानार्थी शब्द-
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चक्र-भ्रमर :
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पुं० [ब० स०] एक प्रकार का नृत्य। |
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चक्र-मंडल :
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पुं० [ब० स०] एक प्रकार का नृत्य जिसमें नाचनेवाला किसी केन्द्र के चारों ओर नाचता हुआ घूमता है। |
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चक्र-मंडली(लिन्) :
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पुं० [सं० चक्र-मंडल, उपमि० स०+इनि] अजगर साँप की एक जाति। |
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चक्र-मर्द :
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पुं० [सं० चक्र√मृद् (मर्दन)+अण्, उप० स०] चकवँड़। |
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चक्र-मीमांसा :
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स्त्री० [ष० त०] वैष्णवों की चक्र-मुद्रा धारण करने की विधि। |
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चक्र-मुख :
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वि० [ब० स०] गोल मुँहवाला। पुं० सूअर। |
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चक्र-मुद्रा :
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पुं० [मध्य० स०] शरीर के विभिन्न अंगों पर दगवाया या लगवाया जानेवाला चक्र के आकार का चिन्ह्र। |
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चक्र-यंत्र :
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पुं० [उपमि० स०] ज्योतिष संबंधी वेध करने का एक प्रकार का यंत्र। |
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चक्र-यान :
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पुं० [मध्य० स०] ऐसी गाड़ी जिसमें पहिये लगे हों। |
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चक्र-रद :
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पुं० [ब० स०] सूअर। |
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चक्र-रिष्टा :
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स्त्री० [ब० स०] बक। बगला। |
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चक्र-लक्षणा :
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स्त्री० [ब० स०] गुरुच् या गुड्ची नामक लता। |
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चक्र-लिप्ता :
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स्त्री० [ष० त० ] ज्योतिष में राशि-वक्र का कलात्मक भाग अर्थात् २१ ६॰॰ भागों में से एक भाग। |
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चक्र-लेखित्र :
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पुं०[मध्य० स०(लेखित्र) ?] एक प्रकार का छोटा उपकरण जिसकी लेखनी की नोक पर लगे हुए छोटे से चक्र द्वारा एक विशेष प्रकार के कागज पर बनाये हुए अक्षरों की सहायता से किसी लेख आदि की प्रतिलिपियाँ तैयार की जाती है। (साइक्लोस्टाइल) |
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समानार्थी शब्द-
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चक्र-वर्तिनी :
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स्त्री, [सं०चक्र√वृत्त (बरतना)+णिनि, ङीष्, उप० स०] १. किसी दल या समूह की अधीश्वरी। २. जनी या पानड़ी नाम का पौधा जिसकी पत्तियाँ सुगंधित होती हैं। |
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चक्र-वर्ती(र्तिन्) :
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वि० [सं०चक्र√वृत्+णिनि, उप० स०] [स्त्री० चक्र वर्तिनी] (राजा) जिसका राज्य बहुत दूर-दूर तक और विशेषतः समुद्र-तट तक फैला हो। सार्वभौम। पुं० १. ऐसा सम्राट जो दो समुदायों के बीच की सारी भूमि पर एकच्छत्र राज्य करता हो। २. किसी दल का अधिपति। समूह-नायक। ३. बथुआ (साग)। |
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चक्र-वाक :
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पुं० [सं० वाक√वच् (बोलना)+घञ्, ब० स०] [स्त्री० चक्रवाकी] चकवा पक्षी। |
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चक्रवाड़ :
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पुं०=चक्रवाल। |
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चक्र-वात :
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पुं० [सं० उपमि० स०] चक्कर खाती हुई बहुत तेज चलनेवाली हवा। बवंडर। (र्व्हल विंड)। |
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चक्रवान(वत्) :
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पुं० [सं० चक्र+मतुप्] पुराणानुसार चौथे समुद्र के बीच में स्थित माना जाना वाला एक पर्वत जहाँ विष्णु भगवान ने हयग्रीव और पंचजन नामक दैत्यों को मारकर चक्र और शंख दो आयुध प्राप्त किये थे। |
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चक्रवाल :
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पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक पर्वत जो भूमंडल के चारों ओर स्थित तथा प्रकाश और अंधकार (दिन-रात) का विभाग करनेवाला माना गया है। लोकालोक पर्वत। २. घेरा। मंडल। ३. चंद्रमा के चारों ओर दिखाई देनेवाला धुँधले प्रकाश का घेरा या मंडल। |
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चक्र-वृत्ति :
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स्त्री० [मध्य० स०] एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः एक भगण, तीन नगण और अंत में लघु गुरु होते हैं। |
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चक्र-वृद्धि :
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स्त्री० [उपमि० स०] १. ऋण का वह प्रकार जिसमें मूल धन पर ब्याज देने के अतिरिक्त उस ब्याज पर भी ब्याज दिया जाता है जो किसी निश्चित अवधि तक चुकाया नहीं जाता। (कम्पाउंड इन्टरेस्ट) २. गाड़ी आदि भाड़ा। |
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चक्र-व्यूह :
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पुं० [मध्य० स०] १. युद्ध-क्षेत्र में किसी वस्तु या व्यक्ति को सुरक्षित रखने के लिए उसके चारों ओर असंख्य सैनिकों का किसी क्रम या सिलसिले से खड़े होने की अवस्था या स्थिति। २. सेना का ऐसे ढंग से युद्ध-क्षेत्र में खड़ा या स्थित होना कि शत्रु उन्हें सरलता से भेद न सके। |
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चक्र-शल्य :
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स्त्री० [ब० स०] सफेद घुँघची। २. काक-तुडी। कौआ, ठोठी। |
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चक्र-श्रेणी :
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स्त्री० [ब० स०] मेढ़ासीगी। |
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चक्र-संज्ञ :
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पुं० [ब० स०] १. वंग नामक धातु। राँगा। २. चकवा पक्षी। |
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चक्र-संवर :
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सं० [सं० चक्र-सम्√वृ (रोकना)+अच्, उप० स०] एक बुद्ध का नाम। |
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चक्र-हस्त :
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पुं० [ब० स०] विष्णु। |
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समानार्थी शब्द-
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चक्राकं :
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पुं० [चक्र-अंक, ष० त०] विष्णु के चक्र का चिन्ह्र जो वैष्णव अपने शरीर के अंगों पर दगवाते हैं। |
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चक्राकं-पुच्छ :
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पुं० [ब० स०] १. मोर। २. मोर का पंख। उदाहरण–उन्मुक्त गुच्छ, चक्रांक-पुच्छू।-निराला। |
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चक्रांकित :
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वि० [चक्र-अंकित, तृ० त०] १. जिस पर चक्र का चिन्ह्र अंकित हो। २. (व्यक्ति) जिसने अपने शरीर पर चक्र का चिन्ह्र दगवाया हो। जिसने चक्र को छाप लीया हो। पुं० वैष्णवों का एक संप्रदाय जिसके लोग अपने शरीर पर चक्र का चिन्ह्र दगवाते हैं। |
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समानार्थी शब्द-
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चक्रांग :
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पुं० [चक्र-अंग, ब० स०] १. चकवा पक्षी। २. गाड़ी या रथ। ३. हंस। ४. कुटकी नाम की ओषधि। ५. हिलमोचिका या हुलहुल नाम का साग। |
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समानार्थी शब्द-
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चक्रांगा :
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स्त्री० [सं० चक्रांग+टाप्] १. काकड़ासिंगी। २. सुदर्शन नाम का पौधा या लता। |
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चक्रांगी :
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स्त्री० [सं० चक्रांग+ङीष्] १. कुटकी नाम की ओषधि। २. हंस की मादा। हंसिनी। ३. हुलहुल नाम का साग। ४. मजीठ। ५. काकड़ासिंगी। ६. मूसाकानी। |
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चक्रांत :
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पुं० [चक्र-अंत, ब० स०] गुप्त अभिसंधि। षड्यंत्र। |
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चक्रांतर :
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पुं० [सं० चक्रांक√रा (लेना)+क] एक बुद्ध का नाम। |
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समानार्थी शब्द-
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चक्रांश :
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पुं० [चक्र-अंश, ष० त०] १. किसी चक्र का कोई अंश। २. चंद्रमा के चक्र का ३६॰ वाँ अंश। |
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चक्रा :
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स्त्री०[सं०चक्र+टाप्] १. नागरमोथा। २. काकड़ासिंगी। |
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चक्राक :
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पुं० [सं० चक्र√अक् (गति)+अच्] [स्त्री० चक्राकी०] हंस नामक पक्षी। |
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चक्राकार :
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वि० [चक्र-आकार, ब० स०] चक्र या पहिये के आकार का। मंडलाकार। |
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चक्राट :
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पुं० [सं० चक्र√अट् (गति)+अण्, उप० स०] १. साँप पकड़ने वाला। २. मदारी। ३. बहुत बड़ा चालाक या धूर्त। ४. सोने का दीनार नाम का सिक्का। |
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चक्रानुक्रम :
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पुं० [चक्र-अनुक्रम, उपमि० स०]=चक्र-क्रम। |
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चक्रायुध :
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पुं० [चक्र-आयुध, ब० स०] विष्णु। |
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चक्रावल :
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पुं० [सं०] १. घोड़ो का एक रोग जिसमें पैरों में घाव हो जाता है। २. उक्त रोग से होनेवाला घाव। |
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चक्राह्र :
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पु० [चक्र-आह्रान,ब० स०] १. चकवा पक्षी। चक्रवाक। २. चकवँड़। |
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चक्रिक :
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वि० [सं० चक्र+ठन्-इक] १. चक्र से युक्त। २. चक्र धारण करनेवाला। |
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चक्रिका :
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स्त्री० [सं० चक्र+टाप्] घुटने की गोल हड्डी। चक्की। |
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चक्रित :
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वि०=चकित।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चक्री (किन्) :
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पुं० [सं० चक्र+इनि] १. वह जो चक्र धारण करे। २. विष्णु। ३. गाँव का पुरोहित। ४. कुम्हार। ५. कुंडली मारकर बैठनेवाला साँप। ६. चकवा पक्षी। ७. गुप्त-चर। जासूस। ८. तेली। ९. बकरा। १॰. चकवँड़। ११. तिनिश नामक वृक्ष। १२. कौआ। १३. व्याघ्र नख या बघनहाँ नामक ग्रंथद्रव्य। १४. गधा। १५. रथ का सवार। रथी। १६. चंद्रशेखर के मत से आर्याछंद का २२. वाँ भेद जिसमें ६ गुरु और ४५ लघु होते हैं। १७. एक प्राचीन वर्ण संकर जाति। १८. चक्रवर्ती राजा। वि० १. (गाड़ी आदि) जिसमें पहिया लगा हो। २. गोलाकार (वस्तु)। ३. चक्र धारण करने वाला (व्यक्ति)। |
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चक्रीय :
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वि० [सं० चक्र+छ-ईय] १. चक्र संबंधी। चक्र का। २. चक्रक्रम के अनुसार होनेवाला। (साइक्लिक)। |
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चक्रेश्वर :
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पुं० [चक्र-ईश्वर, ष० त०] १. चक्रवर्ती। २. तांत्रिकों में चक्र के अधिष्ठाता देवता। |
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चक्रेश्वरी :
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स्त्री० [सं० चक्र-ईश्वरी, ष० त०] जैनों की एक महाविद्या। |
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चक्ष :
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पुं० [सं०√चक्ष् (देखना,बोलना)+अच्] नकली दोस्त। स्वार्थी मित्र। |
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चक्षण :
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पुं० [सं०√चक्ष्+ल्.युट-अन] १. कृपा-दृष्टि। २. अनुग्रह पूर्ण व्यवहार। ३. बातचीत। कथन। ४. मद्य आदि के साथ खाने की चाट। चक्खी। |
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चक्षम :
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पुं० पुं० [सं०√चक्ष्+अम्] १. बृहस्पति। २. उपाध्याय। |
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चक्षा(क्षस्) :
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पुं० [सं०√चक्ष्+अस्] १. बृहस्पति। २. आचार्य। |
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चक्षुःपथ :
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पुं० [ष० त०] १. दृष्टि-पथ। २. क्षितिज। |
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चक्षुःश्रवा(वस्) :
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वि० [ब० स०] नेत्रों से सुननेवाला। पुं० साँप। |
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चक्षु (क्षुस्) :
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पुं० [सं०√चक्षु+उस्०] १. देखने की इंद्रिय। आँख। नेत्र। २. पश्चिमी एशिया के वंक्षु नद (आधुनिक आक्सस नदी) का एक पुराना नाम। |
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चक्षुरपेत :
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वि० [चक्षुक-अपेत, तृ० त०] नेत्रहीन। अंधा। |
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चक्षुरिंद्रिय :
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स्त्री० [चक्षुर-इंद्रिय,कर्म० स०] देखने की इंद्रिय। आँख। नेत्र। |
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चक्षुर्दर्शनावरण :
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पुं० [चक्षुर्-दर्शन,तृ० त० चक्षुर्दर्शन-आवरण, ष० त०] जैन शास्त्र में वे कर्म जिनके उदय होने से चक्षु द्वारा दिखाई पड़ने में बाधा होती है। |
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चक्षुर्मल :
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पुं० [ष० त०] आँख से निकलनेवाला मल या कीचड़। |
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चक्षुर्वन्य :
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वि० [तृ० त०] नेत्र रोग से ग्रस्त या पीड़ित। |
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चक्षुर्विषय :
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पुं० [ष० त० ] १. वे सब चीजें या बातें जो आँख से दिखाई देती हैं। २. क्षितिज। वि० जो चक्षुओं का विषय हो। |
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चक्षुर्हा(र्हन्) :
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वि० [सं० चक्षुस्√हन् (मारना)+क्विप्, उप० स०] जिसके देखने मात्र से कोई चीज नष्ट हो जाती हो। |
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चक्षुष्कर्ण :
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पुं० [ब० स०] सर्प। साँप। |
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चक्षुष्पति :
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पुं० [ष० त०] सूर्य। |
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चक्षुष्पथ :
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पुं० [ष० त०] १. दृष्टि-पथ। २. क्षितिज। |
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चक्षुष्मान्(मत्) :
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वि० [सं० चक्षुस्+मतुप्] १. आँखोंवाला। २. सुंदर आँखोंवाला। |
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चक्षुष्य :
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वि० [सं० चक्षुस्+यत्] १. नेत्र संबंधी। २. जो देखने में प्रिय लगे। मनोहर। सुंदर। ३. जो नेत्रों के लिए हितकर हो। ४. नेत्रों से उत्पन्न होनेवाला। पुं० १. आँखों में लगाने का अंजन या सुरमा। २. केतकी। केवड़ा। ३. सहिंजन। ४. तूतिया। |
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चक्षुष्या :
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स्त्री० [सं० चक्षुष्य+टाप्] १. सुंदर नेत्रोंवाली स्त्री। २. वनकुलथी। चाकसू। ३. मेढ़ासींगी। |
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चक्षुस् :
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पुं०=चक्षु। |
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