शब्द का अर्थ
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प्रकर :
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पुं० [सं० प्र√कृ (करना)+अच्] १. वह जो कोई काम करने में बहुत अधिक कुशल या दक्ष हो। २. [प्र√कृ+अप्] अगर नामक गंधद्रव्य। अगरु। ३. खिला हुआ फूल ४. अधिकार ५. मदद। सहायता। ६. आश्रय। सहारा ७. झुंड। समूह। ८. दोस्ती। मित्रता। ९. सम्मान १॰. प्रथा। रवाज। ११. गुलदस्ता। |
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समानार्थी शब्द-
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प्रकरण :
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पुं० [सं० प्र√कृ (करना)+ल्युट्—अन] १. उत्पन्न करना। अस्तित्व में लाना। २. बनाना। ३. कोई बात या विषय अच्छी तरह समझने-समझाने के लिए उस पर वादविवाद या विचार करना। ४. कोई ऐसी विशिष्ट बात या विषय जो उपस्थिति या प्रस्तुत हो और जिसका उल्लेख या विचार हो रहा हो। प्रसंग विषय। जैसे—अब विवादवाला प्रकरण समाप्त होना चाहिए। ५. वह कथन या वचन जिसमें आवश्यक रूप से कोई काम या बात करने का विधान हो। ६. किसी ग्रंथ के अंतर्गत विभिन्न अध्यायों में से कोई एक। ७. रूपक के दस भेदों में से एक, ऐसा नाटक जिसकी कथा-वस्तु प्रख्यात न हो, बल्कि लौकिक और कल्पित, हो; नायक धीर या शांत हो तथा नायिका कुल कन्या या वेश्या हो। |
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प्रकरण-वक्रता :
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स्त्री० [ष० त०] साहित्य में, काव्य-प्रबंध के किसी एक अंग या प्रकरण की चमत्कारपूर्ण रमणीयता। |
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प्रकरणसम :
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पुं० [सं०] भारतीय नैयायिकों के अनुसार ५ प्रकार के हेत्वाभासों में से एक। |
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प्रकरणिका :
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स्त्री० [सं० प्रकरणी+कन्+टाप्, ह्रस्व] साहित्य में, एक प्रकार का छोटा प्रकरण (नायक या रूपक) जिसमें नायक कोई व्यापारी और नायिका उसकी सजातीय स्त्री होती है। शेष बातें प्रकरण (देखें) के समान होती हैं। |
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प्रकरणी :
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स्त्री० [सं० प्रकरण+अच्+ङीष्] नाटिका। |
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प्रकरी :
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स्त्री० [सं० प्रकर+ङीष्] १. एक प्रकार का गान। २. नाटक में किसी स्थानिक घटना की अवांतर कथा की सहायता से कथा-वस्तु का प्रयोजन सिद्ध करना जो एक अर्थ प्रकृति है। ३. नाटक में, उन छोटी छोटी प्रासंगिक कथाओं में से कोई एक जो समय समय पर तथा बीच-बीच में आकर मुख्य कथा की सहायक बनकर समाप्त हो जाती है। जैसे—‘प्रसाद’ के चंद्रगुप्त नामक नाटक में चंद्रगुप्त और दंडायन का मिलन। प्रासंगिक कथाओं का एक अन्य भेद है—पताका। (दे०) |
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प्रकर्ष :
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पुं० [सं० प्र√कृश् (खींचना)+घञ्] १. उत्कर्ष। उत्तमता। २. अधिकता। बहुतायत। |
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प्रकर्षक :
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[सं० प्र√कृष्+ण्वुल्—अक] प्रकर्ष या उत्कर्ष करनेवाला। |
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प्रकर्षण :
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पुं० [सं० प्र√कृष्+ल्युट्—अन] १. पीछे की ओर ढकेलना। २. प्रकर्ष। उत्कर्ष। ३. अधिकता। बहुतायत। |
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प्रकर्षणीय :
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वि० [सं०√कृष्+अनीयर्] जिसका उत्कर्ष करना आवश्यक या उचित हो। |
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