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मँ  : सर्व०=मैं। उदा०—मँ ही सकल अनरथ कर मूला।—तुलसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मंकलक  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि। २. एक दक्ष का नाम। (महाभारत)
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मंकुर  : पुं० [सं०√मंक् (भूषित करना)+उरच्] दर्पण।
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मंक्षण  : पुं० [सं०√मख् (गति)+ल्युट्—अन, पृषो० ख—क्ष] प्राचीन काल में युद्ध के समय जाँघ पर बाँधा जानेवाला एक तरह का कवच उरुत्राण।
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मंक्षु  : अव्य० [सं०√मंख्+उन्, पृषो० ख्—क्ष्] १. चट-पट। तुरंत। शीघ्रता से। २. यथार्थ में। वस्तुतः।
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मंख  : पुं० [सं०√मंख्+अच्] १. चारण। भाट। संस्कृत भाषा के एक प्रसिद्ध कोशकार।
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मंखी  : स्त्री० [देश०] बच्चों के गले का एक गहना।
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मंग  : पुं० [सं०√मंग्+अच्] नाव का अगला भाग। गलही। स्त्री०=माँग (सीमान्त)। पुं० [देश०] आठ की संख्या। (दलाल) वि० आठ। (दलाल) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंगता  : पुं० [हिं० माँगना+ता (प्रत्य०)] भिखमंगा। भिक्षुक। वि० जो प्रायः किसी न किसी से कुछ माँगता रहता हो।
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मंगन  : पुं०=मंगता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंगना  : पुं०=मंगता। सं०=माँगना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँगनी  : स्त्री० [हिं० माँगना+ई (प्रत्य०)] १. माँगने की क्रिया या भाव। पद—मंगनी का=(पदार्थ) जो किसी अवसर पर काम चलाने के लिए माँग कर किसी से लिया गया हो और फिर लौटाया जाने को हो। २. उक्त के आधार पर मँगनी की चीज। ३. वह रस्म जिसमें वर और कन्या का विवाह निश्चित या पक्का किया जाय। (पश्चिम)
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मंगल  : वि० [सं०√मंग् (गति)+अलच्] १. सुख-सौभाग्य आदि देनेवाला। २. हर तरह से भला। शुभ। पुं० १. कोई ऐसा काम या बात जो हर तरह से अभीष्ट और शुभ हो तथा सुख-सौभाग्य देनेवाली हो। २. कल्याण। भलाई। हित। जैसे—इससे सबका मंगल होगा। ३. हमारे सौर जगत का एक ग्रह जिसका व्यास ४२॰॰ मील, सूर्य से दूरी १४१॰॰॰॰॰॰ मील और जमीन से दूरी ३५॰॰॰॰॰॰। यह सूर्य की परिक्रमा ६८७ दिनों में करता है। (मार्स) ४. उक्त ग्रह के नाम पर सात वारों में से एक वार जो सोमवार और बुधवार के बीच में पड़ता है। ५. विष्णु। ६. कोई शुभ अवसर, पदार्थ या लक्षण। ७. विवाह। जैसे—पार्वती-मंगल। मुहा०—मंगल गाना=(क) विवाह अथवा ऐसे ही दूसरे शुभ अवसरों पर मांगलिक गीत गाना। आनंद के गीत गाना। (ख) विफल होकर चुपचाप बैठना। (व्यंग्य) जैसे—अगर हमारीं बात नहीं मानते हो तो बैठकर मंगल गाओ। ८. अग्नि का एक नाम। ९. आज-कल सफेद रंग की एक कठोर धातु जिसका उपयोग शीशे के समान बनाने में होता है। (मैंगनीज़)
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मंगलकारी  : स्त्री० [सं० मंगल√कृ (करना)+ट+ङीष्] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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मंगल-कलश  : पुं०=मंगल-घट।
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मंगल-काम  : वि० [सं० मंगल√काम्+णिङ्+अच्] मंगल चाहनेवाला। शुभ-चिंतक।
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मंगलकारक  : वि० [सं० ष० त०] मंगल अर्थात् भलाई या हित करनेवाला।
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मंगलकारी रिन्)  : वि० [सं० मंगल√कृ+णिनि, उप० स०]=मंगलकारक।
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मंगल-क्षौम  : पुं० [मध्य० स०] किसी मांगलिक अवसर पर पहना जानेवाला वस्त्र विशेषतः रेशमी वस्त्र।
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मंगल-गान  : पुं० [ष० त०] विवाह आदि मंगल अवसरों पर गाये जानेवाले गीत।
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मंगल-गीत  : पुं० [ष० त०]=मंगल-गान।
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मंगल-गौरी  : स्त्री० [कर्म० स०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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मंगल-घट  : पुं० [मध्य० स०] मंगल अवसरों पर पूजा के लिए अथवा यों ही रखा जानेवाला जल से भरा हुआ घड़ा।
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मंगल-चंडिका  : स्त्री० [कर्म० स०] दुर्गा का एक नाम।
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मंगल-चंडी  : स्त्री० [कर्म० स०] एक देवी।
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मंगलच्छाय  : पुं० [ब० स०] बड़ का पेड़।
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मंगल-तूर्य  : पुं० [मध्य० स०] शुभ अवसर पर बजाया जानेवाला बाजा।
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मंगलना  : स० [सं० मंगल=शुभ] किसी शुभ अवसर पर अग्नि आदि जलाना। प्रज्वलित करना। (मंगल-भाषित) जैसे—दीया मंगलना, होली मंगलना। उदा० दे० ‘मंगारना’ में। अ० प्रज्वलित होना। जलना।
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मंगल-पाठ  : पुं० [ष० त०] मंगलाचरण।
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मंगल-पाठक  : पुं० [ष० त०] वह जो राजाओं की स्तुति आदि करता हो। बंदीजन। भाट।
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मंगल-प्रद  : वि० [सं० मंगल+प्र√दा (देना)+क] मंगलकारक। शुभ।
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मंगल-प्रदा  : स्त्री० [सं० मंगलप्रद+टाप्] १. हलदी। २. शमी वृक्ष।
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मंगल-भाषण  : पुं० [ष० त०] किसी अप्रिय अथवा अशुभ बात को प्रिय तथा शुभ रूप में कहने का प्रकार।
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मंगल-भेरी  : स्त्री० [मध्य० स०] मांगलिक अवसरों, उत्सवों आदि के समय पर बजाया जानेवाला ढोल।
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मंगलमय  : वि० [सं० मंगल+मयट्] जिससे सब प्रकार का मंगल ही होता हो। पुं० परमेश्वर।
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मंगल-यात्रा  : स्त्री० [च० त०] १. मागलिक कार्य के लिए होनेवाली यात्रा। २. आनंद-मंगल या मन-बहलाव के लिए कहीं जाना।
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मंगल-वाद  : पुं० [ष० त०] आशीर्वाद। आशीष।
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मंगल-वाद्य  : पुं० [मध्य० स०] मांगलिक अवसरों पर बजाये जानेवाले बाजे।
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मंगल-वार  : पुं० [ष० त०] सप्ताह का तीसरा दिन। सोमवार और बुध-वार के बीच का दिन। भौमवार।
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मंगल-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] कलाई पर बाँधा जानेवाला डोरा या तागा।
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मंगल-स्नान  : पुं० [मध्य० स०] किसी मांगलिक अवसर पर किया जानेवाला स्नान।
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मंगला  : स्त्री० [सं० मंगल+अच्+टाप्] १. पार्वती। २. पतिव्रता स्त्री। ३. तुलसी। ४. दूब। ५. एक प्रकार का करंज।
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मंगलागुरु  : पुं० [सं० मंगल-अगुरु, कर्म० स०] एक तरह का अगर (गन्ध द्रव्य)।
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मंगलाचरण  : पुं० [सं० मंगल-आचरण, ष० त०] १. किसी का कार्य श्रीगणेश करने से पहले पढ़ा-जानेवाला कोई मांगलिक मंत्र, श्लोक या पद्यमय रचना। २. ग्रंथ के आरंभ में मंगल की कामना तथा उसकी सफल समाप्ति के निमित्त लिखा जानेवाला पद्य।
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मंगलाचार  : पुं० [मंगल-आचार, ष० त०] १. मंगल कृत्य के पहले होनेवाला मंगल-गान या ऐसा ही और कोई कार्य। २. मंगलाचरण।
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मंगला-मुखी  : स्त्री० [हिं०] वेश्या। रंडी। (परिहास)
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मंगलाय  : पुं० [दलाली मंग=आठ+आय (प्राप्त०)] अठारह की संख्या। (दलाल)
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मंगलारंभ  : पुं० [सं० मंगल-आरंभ, ष० त०] मांगलिक कार्य का आरंभ। श्रीगणेश।
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मंगलालय  : पुं० [सं० मंगल-आलय, ष० त०] परमेश्वर।
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मंगला-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] १. शिव। २. पार्वती को प्रसन्न करने के उद्देश्य से रखा जानेवाला व्रत।
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मंगलाष्टक  : पुं० [सं० मंगल-अष्टक, ष० त०] वे मंत्र जिनका पाठ विवाह के समय वर-वधू के कल्याण की कामना से किया जाता है।
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मंगलाह्निक  : पुं० [सं० मंगल-आह्निक, मध्य० स०] कल्याण के लिए प्रति दिन किया जानेवाला कोई मंगल कृत्य।
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मंगली (लिन्)  : वि० [सं० मंगल+इनि] १. (व्यक्ति) जिसकी जन्म कुंडली के पहले, चौथे, आठवें या बारहवें घर में मंगल ग्रह पड़ा हो। विशेष—कहते हैं कि ऐसा वर जल्दी ही विधुर हो जाता है और ऐसी कन्या जल्दी ही विधवा हो जाती है। २. (कुंडली) जिसके चौथे आठवें या बारहवें घर में मंगल बैठा हो।
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मंगलीय  : वि० [सं० मंगल+छ—ईय] १. मंगलकारक। २. भाग्यवान्।
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मंगलोत्सव  : पुं० [सं० मंगल-उत्सव, मध्य० स०] मांगलिक अवसरों पर होनेवाला उत्सव।
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मंगल्य  : वि० [सं० मंगल+यत्] १. मंगल या कल्याण करनेवाला। मंगल कारक। २. मनोहर। ३. सुन्दर। ४. सीधा-सादा। साधु। पुं० १. त्रायमाणा लता। २. अश्वत्थ। पीपल। ३. बिल्व। बेल। ४. मसूर। ५. जीवक वृक्ष। ६. नारियल। ७. कपित्थ। कैथ। ८. रीठ। करंज। ९. दही। १॰. चंदन। ११. सोना। स्वर्ण। १२. सिंदूर।
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मंगल्य-कुसुमा  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] शंखपुष्पी।
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मंगल्या  : स्त्री० [सं० मंगल्य+टाप्] १. दुर्गा का एक नाम। २. एक प्रकार का अगरु जिसमें चमेली की सी गंध होती है। ३. शमी वृक्ष। ४. सफेद बच। ५. रोचना। ६. शंखपुष्पी। ७. जीवंती। ८. ऋद्धिनामक लता। ९. हलदी। १॰. दूब।
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मँगवाना  : स० [हिं० माँगना का प्रेङे०] १. माँगने का काम दूसरे से कराना। किसी को माँगने में प्रवृत्त करना। जैसे—तुम्हारे ये लक्षण तुमसे भीख मँगवा कर छोड़ेंगे। २. किसी से यह कहना कि अमुक स्थान से अमुक वस्तु खरीद या माँग लाओ। जैसे—बाजार से कपड़ा या मित्र के यहाँ से पुस्तक मँगवाना। संयो० क्रि०—देना।—रखना।—लेना।
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मँगाना  : स० [हिं० माँगना का प्रे०] १. लड़के या लड़की की मँगनी का संबंध स्थिर कराना। विवाह की बातचीत पक्की कराना। २. दे० ‘मँगवाना’।
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मँगारना  : सं०=मंगलना। उदा०—बिरह अगारिनि मँगारि हिय होरी सी।—घनानंद। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मँगियाना  : स० [हिं० माँग=सीमन्त] १. सिर के बालों में इस प्रकार कंघी करना कि जिससे मांग निकल आवे। २. अलग या विभक्त करना।
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मँगुरी  : स्त्री [?] एक प्रकार की छोटी मछली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंगेतर  : वि० [हिं० मँगनी+एतर (प्रत्य०)] १. (युवक या युवती) जिसकी मँगनी हो चुकी हो। २. (वह) जिसके साथ किसी की मँगनी हुई हो, अथवा विवाह होना निश्चित हुआ हो।
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मँगोल  : पुं० [मंगोलिया प्रदेश से] मध्य एशिया और उसके पूरब की ओर (तातार, चीन, जापान में) बसने वाली एक जाति जिसका रंग पीला, नाक चिपटी और चेहरा चौड़ा होता है।
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मंच  : पुं० [सं०√मंच् (उच्च होना)+घञ्] १. खाट। खटिया। २. खाट की तरह बुनी हुई बैठने की छोटी पीढ़ी। मँचिया। ३. सभा-समितियों आदि में ऊँचा बना हुआ मंडल जिस पर बैठकर सर्व साधारण के सामने किसी प्रकार का कार्य किया जाय। (स्टेज) ४. रंगमंच। (स्टेज) ५. लाक्षणिक अर्थ में, कुछ विशिष्ट प्रकार के क्रिया-कलापों के लिए उपयुक्त क्षेत्र। जैसे—राजनीतिक मंच।
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मंचक  : पुं० [सं० मंच+कन्]=मंच।
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मंचकाश्रय  : पुं० [सं० मंचक-आश्रय ब० स०] खटमल।
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मंचन  : पुं० [सं० मंच से] [भू० कृ० स०] खटमल।
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मंचन  : पुं० [सं० मंच से] [भू० कृ० मंचित] किसी नाटक या रूपक का रंगमंच पर अभिनय करना या होना। जैसे—कई स्थानों पर इस नाटक का मंचन भी हो चुका है।
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मंच-मंडप  : पुं० [सं० उपमि० स०] मचान। (दे०)
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मंचिका  : स्त्री० [सं० मंचक+टाप्, इत्व] मचिया।
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मंची  : स्त्री० [सं० मंच] खड़े बल से लगाई हुई लकड़ियों, खंभों आदि की वह रचना जिसके आधार पर कोई भारी चीज ठहराई या रखी जाती है। (पेडेस्टल)
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मँछु  : पुं० [सं० मच्छ] मछली। उदा०—चेला मंछु, गुरु जर काछू।—जायसी।
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मंजन  : पुं० [सं०√मंज् (चमकना)+ल्युट्—अन] वह बुकनी या चूर्ण जो दाँतों पर उँगली आदि से मला तथा रगड़ा जाता है। दाँत साफ करने का चूर्ण। पुं० =मज्जन (स्नान करना)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मँजना  : अ० [सं० मज्जन] १. (दाँतों का) मंजन से साफ किया जाना। २. (बरतनों के संबंध में) राखी आदि से माँजा तथा साफ किया जाना। ३. किसी काम या बात का, अभ्यास के कारण ठीक तरह से संपन्न या पूरा होना। जैसे—(क) लिखने में हाथ मँजना। (ख) मँजी हुई कविता पढ़ना।
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मंजर  : पुं० [सं० √मंज्+अर्] १. फूलों का गुच्छा। २. मोती। ३. तिलक वृक्ष।
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मंजरि  : स्त्री०=मंजरी।
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मंजरिका  : स्त्री०=मंजरी।
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मंजरित  : भू० कृ० [सं० मंजर+इतच्] १. मंजरियों से युक्त। २. पुष्पित।
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मंजरी  : स्त्री० [सं० मंजर+ङीष्] १. नया कल्ला। कोंपल। २. कुछ विशिष्ट पौधों के सींके में लगे हुए बहुत से दानों का समूह। जैसे—आम या तुलसी की मंजरी। ३. तुलसी। ४. तिलक वृक्ष। ५. मोती। ६. वाम नाम छंद का दूसरा नाम। ७. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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मंजरीक  : पुं० [सं० मंजरी+कन्] १. एक तरह का सुगंधित तुलसी का पौधा। २. मोती। ३. तिल का पौधा। ४. बेंत। ५. अशोक वृक्ष।
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मंजरी-चामर  : पुं० [मध्य० स० या उपमि० स०] फलों की मंजरी से बना हुआ या उसकी तरह बना हुआ चामर।
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मंजाई  : स्त्री० [हिं० माँजना] १. माँजे जाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. माँजने की क्रिया, भाव या पारिश्रमिक।
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मंजाना  : स० [हिं० माँजना का प्रे०] १. किसी को माँजने में प्रवृत्त कला। २. अच्छी तरह साफ कराना। ३. अच्छी तरह अभ्यास कराना। जैसे—लिखने में लड़के का हाथ मँजाना।
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मँजार  : स्त्री० [सं० मार्जार] बिल्ली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंजारी  : स्त्री० [सं० मार्जार] बिल्ली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँजावट  : स्त्री० [हिं० मँजना] १. माँजने या मँजने की अवस्था, क्रिया, ढंग या भाव। २. कोई काम करने में हाथ के मँजे हुए या अभ्यस्त होने की अवस्था या भाव।
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मंजि  : स्त्री० [सं०√मंज्+इन्] १. मंजरी। २. लता।
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मंजिका  : स्त्री०√मंज्+ण्वुल्—अक्-टाप्, इत्व] वेश्या। रंडी।
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मंजि-फला  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] केला।
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मंजिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० मंजु+इमानिच्] सुंदरता। मनोहरता।
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मंजिल  : स्त्री० [अ० मंजिल] १. यात्रा के मार्ग में बीच-बीच में यात्रियों के ठहरने के लिए बने हुए नियत स्थान। पड़ाव। मुहा०—मंजिल काटना=एक पड़ाव से चलकर दूसरे पड़ाव तक का रास्ता पार करना। मंजिल देना=कोई बड़ी या भारी चीज उठाकर ले चलने के समय रास्ते में सुस्ताने के लिए उसे कहीं उतारना या रखना। मंजिल मारना=(क) बहुत दूर से चलकर कहीं पहुँचना। (ख) कोई बहुत बड़ा काम या उसका कोई विशिष्ट अंश पूरा करना। २. वह स्थान जहाँ तक पहुँचना हो। अभीष्ट, उद्दिष्ट या नियत स्थान अथवा स्थिति। ३. ऊपर-नीचे बने हुए होने के विचार से मकान का खंड। मरातिब। जैसे—(क) दो (या तीन) मंजिल का मकान। (ख) तीसरी मंजिल की छत।
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मंजिष्ठा  : स्त्री० [सं० मंजिमती+इष्ठन्, टि-लोप,+टाप्] मंजीठ नामक पेड़ और उसका फल।
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मंजिष्ठा-मेह  : पुं० [उपमि० स०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का प्रमेह जिसमें मंजीठ के पानी के समान मूत्र होता है।
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मंजिष्ठा-राग  : पुं० [ष० त०] १. मंजीठ का रंग। २. [उपमि० स०] पक्का या स्थायी अनुराग अथवा प्रेम।
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मंजी  : स्त्री०=मंजरी। स्त्री० दे० ‘खाट’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंजीर  : पुं० [सं०√मंज्+ईरन्] १. नूपुर। घुँघरू। २. वह खंभा या लकड़ी जिसमें मथानी का डंडा बंधा रहता है। ३. पश्चिमी बंगाल की एक पहाड़ी जाति।
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मँजीरा, मंजीरा  : पुं० [सं० मंजीर] १. काँसे, पीतल आदि का बना हुआ एक प्रकार का बाजा जो दो छोटी कटोरियों के रूप में होता है, और जिसमें की एक कटोरी से दूसरी कटोरी पर आघात करके संगीत के समय ताल देते हैं। जोड़ी।
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मंजु  : वि० [सं० √मंज्+कु] सुंदर। मनोहर।
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मंजु-गर्त्त  : पुं० [स० ब० स०] नेपाल।
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मंजु-घोष  : पुं० [सं० ब० स०] १. तांत्रिकों के एक देवता का नाम। २. एक बौद्ध आचार्य। वि० मधुर ध्वनि में बोलनेवाला।
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मंजु-घोषा  : स्त्री० [सं० ब० स०,+टाप्] एक अप्सरा का नाम।
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मंजु-तिलका  : स्त्री० [सं०] हंस-गति नामक मात्रिक छंद का दूसरा नाम।
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मंजुदेव  : पुं०=मंजुघोष (आचार्य)।
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मंजुनाशी  : स्त्री० [सं०] १. दुर्गा का एक नाम। ३. इंद्राणी का एक नाम। ३. सुंदर स्त्री।
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मंजु-पाठक  : पुं० [सं० कर्म० स०] तोता।
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मंजु-प्राण  : पुं० [सं० ब० स०] ब्रह्मा।
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मंजु-भद्र  : पुं०=मंजुघोष (आचार्य)।
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मंजुभाषी  : वि० [सं० मंजु√भाष् (बोलना)+णिनि] [स्त्री० मंजुभाषिणी] मधुर और प्रिय बातें करनेवाला।
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मंजु मालिनी  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] मालिनी छंद का दूसरा नाम।
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मंजुल  : वि० [सं० मंजु+लच्] सुन्दर। मनोहर। पं० १. जलाशय या नदी का किनारा। २. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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मंजुला  : स्त्री० [सं० मंजुल+टाप्] एक नदी का नाम।
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मंजुश्री  : पुं०=मंजुघोष (आचार्य)।
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मंजूर  : वि० [अ० मंजूर] जो मान लिया गया हो। स्वीकृत। जैसे—अरजी या छुट्टी मंजूर होना। पुं०=मयूर (मोर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंजूरी  : स्त्री० [अ० मंजूरी] मंजूर होने की अवस्था, क्रिया या भाव। स्वीकृति।
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मंजूषा  : स्त्री० [सं०√मस्ज-ऊषन्, नुम्] १. छोटा पिटारा या डिब्बा। पिटारी। २. पत्थर। ३. मंजीठ। ४. पक्षियों का पिंजरा। ५. हाथी का हौदा।
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मंजूसा  : स्त्री०=मंजूषा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंझ  : अव्य०, पुं०=मध्य (बीच में)।
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मँझधार  : स्त्री० [हिं० मंझली+धार] नदी के बीच की धारा। अव्य० नदी, समुद्र आदि की धारा के बीच में।
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मँझना  : अ०=मँजना।
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मँझरिया  : अव्य० [सं० मध्य०, हिं० माँझ] बीच में। मध्य में। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मँझला  : वि० [सं० मध्य, पुं० हिं० मँझ+ला (प्रत्य०)] [स्त्री० मंझली] वय, स्थिति आदि के विचार से बीच या मध्य का। जैसे—मँझला मकान (दो मकानों के बीच का मकान), मँझला लड़का।
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मँझा  : वि० [सं० मध्य; पा० मंझ] १. जो दो के बीच में हो। बीचवाला। २. दे० ‘मँझला’। पुं० [सं० मध्य०; पा० मज्झ] १. सूत कातने के चरखे में वह मध्य का अवयव जिसके ऊपर माल रहती है। मुँडला। २. अटेरन के बीच की लकड़ी। स्त्री० [सं० मध्य०; पा० मज्झ] वह भूमि जो गोयंड और पालों के बीच में पड़ती हो। पुं० [सं० मंच] १. पलंग। खाट। (पंजाब) २. चौकी। ३. मचिया। मुहा०—मंझा बैठना=एक ही आसन से या स्थिति में अच्छी तरह जम कर बैठना। पुं० [हिं० माँजना] वह पदार्थ जिससे रस्सी या पलंग की डोर माँजते हैं। माँझा। मुहा०—माँझा देना=डोरी, रस्सी आदि पर मंझा या माँझा लगाना।
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मंझाना  : स० [हिं० माँझ=बीच] बीच में डालना, रखना या लाना। अ० बीच में पड़ना या होना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँझार  : स्त्री०, अव्य०=मँझधार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँझियार  : वि० [सं० मध्य, प्रा० मज्झ] मध्य का। बीच का।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँझोला  : वि० [सं० मध्य, पुं० हिं० मँझ+ओला (प्रत्य०)] आकार, मान आदि के विचार से बीच या मध्य का। जो न बहुत बड़ा ही हो और न बहुत छोटा ही हो। जैसे—मँझोला।
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मँझोली  : स्त्री०=मझोली।
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मंठ  : पुं० [सं०√मंठ+अच्] शीरे में पकाया हुआ एक तरह का पकवान।
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मंड  : पुं० [सं०√मंड् (भूषित करना)+अच्] १. मंडन करने की क्रिया या भाव। सजावट। २. उबले हुए चावलों का गाढ़ा पानी। भात का पानी। माँड। ३. रेंड का पेड़। ४. मेंढ़क। ५. सारभाग। ६. दूध या दही की मलाई। ७. मदिरा। शराब। ८. आभूषण। गहना। ९. एक प्रकार का साग। १॰. कुएँ की जगत। ११. श्वेतसार।
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मँड़ई  : स्त्री० [सं० मंडप] १. झोंपड़ी। २. कुटिया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंडई  : स्त्री०=मंडी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंडक  : पुं० [सं० मंड+कन्] १. मैदे की एक प्रकार की रोटी। २. माधवी लता। ३. संगीत में गीत का एक अंग। वि० मंडन या सजावट करनेवाला।
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मंडन  : पुं० [सं०√मंड्+ल्युट्—अन] १. श्रृंगार करना। सजाना। २. तर्क या विवाद के प्रसंग में युक्ति आदि देकर किसी कथन या सिद्धान्त का पुष्टिकरण। जैसे—अपने पक्ष का मंडन। ‘खंडन’ का विपर्याय। वि० मंडित करनेवाला या सजानेवाला।
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मंडना  : स० [सं० मंडन] १. मंडित या सुसज्जित करना। श्रृंगार करना। अच्छी तरह सजाना। २. तर्क, विवाद आदि के समय युक्तिपूर्वक अपना पक्ष या समर्थन ठीक सिद्ध करते हुए लोगों के सामने उपस्थित करना। कोई बात अच्छी तरह प्रतिपादित और सिद्ध करना। ३. किसी रचना की रूपरेखा आदि तैयार करना या बनाना। ४. पूरी तरह से आच्छादित करना। छाना। ५. कोई बड़ा काम करना या ठानना। स० [सं० मर्दन] दलित या मर्दित करना। नष्ट करना। अ० [हिं० माँडना का अ०] १. भाँड़ा या लिखा जाना। जैसे—खाते में रकम मंडेना। २. किसी काम या बात में लीन होना। जैसे—सब लोग नाच-रंग में मंडे थे। स० [?] मानना। [डिं०] उदा०—आगमि सिसुपाल मंडिजै उद्धव।—प्रिथीराज।
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मँडनी  : स्त्री० [हिं० माँडना] अनाज के डंठलों को बेलों से रौंदवाने का काम। दँवरी।
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मंडप  : पुं० [सं० मंड√पा+क] १. वह छाया हुआ स्थान जहाँ बहुत से लोग धूप, वर्षा आदि से बचते हुए बैठ सकें। विश्राम-स्थान। २. किसी विशिष्ट काम के लिए छाया हुआ स्थान। जैसे—यज्ञ-मंडप, विवाह-मंडप। ३. आदमियों के बैठने योग्य चारों ओर से खुला, पर ऊपर से छाया हुआ स्थान। बारहदरी। ४. देवमंदिर का ऊपर का छाया हुआ गोलाकार अंश या भाग। ५. चंदोआ। शामियाना।
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मंडपक  : पुं० [सं० मंडप+कन्] [स्त्री० मंडपिका] छोटा मंडप।
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मंडपी  : स्त्री० [सं० मंडप+ङीष्] छोटा मंडप।
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मंडर  : पुं०=मंडल।
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मँडरना  : अ० [सं० मंडल] चारों ओर से घिरना। स० चारों ओर से घेरना।
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मँडराई  : स्त्री० [सं० मंडल] पक्षियों आदि का घेरा बाँध या मंडल बनाकर आकाश में उड़ने की क्रिया या भाव। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मँडराना  : अ० [सं० मंडल] १. मंडल या घेरा बाँधकर छा जाना। २. पक्षियों, फतिंगों आदि का किसी चीज के ऊपर तथा चारों ओर चक्कर लगाते हुए उड़ना। ३. लाक्षणिक अर्थ में लोभ या स्वार्थवश किसी के पास रह-रहकर या घूम-घूम कर पहुँचना। किसी व्यक्ति या स्थान के आसपास घूमते या चक्कर लगाते रहना।
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मंडरी  : स्त्री० [देश०] पयाल की बनी हुई गोंदारी या चटाई।
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मंडल  : पुं० [सं√मंड्+कलच्] १. चक्र के आकार का घेरा। गोलाई। वृत्त। जैसे—रास मंडल। मुहा०—मंडल बाँधना=गोलाकार घेरा बनाना। जैसे—(क) मंडल बाँधकर नाचना। (ख) बादलों का मंडल बाँधकर बरसना। २. किसी प्रकार की गोलाकार आकृति, रचना या वस्तु। जैसे—भू-मंडल। ३. चंद्रमा, सूर्य आदि के चारों ओर छाया का पड़नेवाला घेरा जो कभी कभी आकाश में बादलों की बहुत हल्की तह रहने पर दिखाई देता है। ४. किसी वस्तु का वह गोलाकार अंश जो दृष्टि के सम्मुख हो। जैसे—चंद्र-मण्डल, सूर्य-मंडल, मुख-मंडल। ५. चारों दिशाओं का घेरा जो गोल दिखाई देता है। क्षितिज। ६. प्राचीन भारत में १२ राज्यों का क्षेत्र, वर्ग या समूह। ७. प्राचीन भारत में चालिस योजन लंबा और बीस योजन चौड़ा क्षेत्र या भूखंड। ८. किसी विशिष्ट दृष्टि से एक माना जानेवाला क्षेत्र या भू-भाग। (ज़ोन) ९. कुछ विशिष्ट प्रकार के लोगों का वर्ग या समाज। (सर्किल) जैसे—मित्र-मंडल, राजकीय मंडल। १॰. एक प्रकार की गोलाकार सैनिक व्यूह-रचना। ११. एक प्रकार का साँप। १२. बघनखी नामक गंध-द्रव्य। १३. वह कक्ष या गोलाकार मार्ग जिस पर चलते हुए ग्रह चक्कर लगाते हैं। १४. शरीर की आठ संधियों में से एक। (सुश्रुत) १५. कुंदक। गेंद। १६. किसी प्रकार का गोल चिन्ह या दाग। १७. चक्र। १८. पहिया। १९. ऋग्वेद का कोई विशिष्ट खंड या भाग।
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मंडलक  : पुं० [सं० मंडल+कन्] १. किसी प्रकार की मंडलाकार आकृति, छाया या रचना। (डिस्क)। २. दर्पण। शीशा। ३. दे० ‘मंडल’।
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मंडल-नृत्य  : पुं० [सं० सुप्सुपा स०] घेरा बाँधकर या मंडल के रूप में होनेवाला नृत्य।
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मंडल-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०,+क, टाप्, इत्व] रक्त पुनर्नवा। लाल गदहपूरना।
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मंडल-पुच्छक  : पुं० [सं० ब० स०,+कप्] एक जहरीला कीड़ा। (सुश्रुत)
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मंडलवर्ती (र्तिन्)  : पुं० [सं० मंडल√वृत्त (बरतना)+णिनि] प्राचीन भारत में, किसी मंडल या भू-भाग का शासक।
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मंडल-वर्ष  : पुं० [सं० मध्य० स०] सारे देश में एक साथ होनेवाली वर्षा।
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मंडलाकार  : वि० [सं० मंडल-आकार, ब० स०] जो बिलकुल गोल न होकर बहुत कुछ गोल या गोले के समान हो। गोलाकार। (ऑर्विक्यूलर)
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मंडलाधिप  : पुं० [सं० मंडल-अधिप, ष० त०] दे० ‘मंडलेश्वर’।
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मंडलाधीश  : पुं० [सं० मंडल-अधीश, ष० त०] दे० ‘मंडलेश्वर’।
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मंडलाना  : अ०=मँडराना।
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मंडलायित  : वि० [सं० मंडल+क्यङ्+क्त] गोलाकार। वर्त्तुल।
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मंडली  : स्त्री० [सं० मंडल+अच्+ङीष्] १. मनुष्यों की गोष्ठी या समाज। २. जीव-जंतुओं का झुड या दल। ३. एक ही प्रकार का उद्देश्य या विचार रखनेवाले अथवा एक ही तरह का काम करनेवाले लोगों का दल या समूह। जैसे—भजन-मंडली। ४. दूब। ५. गुरुच। गिलोय। पुं० [सं० मंडल+इनि] १. सुश्रुत के अनुसार साँपों के आठ भेदों में से एक भेद या वर्ग। २. वट वृक्ष। बड़ का पेड़। ३. बिड़ाल। बिल्ली। ४. नेवले की जाति का बिल्ली की तरह का एक जंतु जिसे बंगाल में खटाश और उत्तर प्रदेश में सेंधुआर कहते हैं। ५. सूर्य।
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मंडलीक  : पुं० [सं मांडलिक] एक मंडल या १२ राजाओं का अधिपति।
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मंडलीकरण  : पुं० [सं० मंडल+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट्—अन] १. मंडल या घेरा बनाना। २. कुंडली बनाना, बाँधना या मारना।
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मंडलेश्वर  : पुं० [सं० मंडल-ईश्वर, ष० त०] १. एक मंडल का अधिपति। २. प्राचीन भारत में १२ राजाओं का अधिपति। ३. साधु समाज में वह बहुत बड़ा साधु जो किसी क्षेत्र में सर्वप्रधान माना जाता हो।
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मंडव  : पुं० =मंडप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मँड़वा  : पुं० [सं० मंडप; प्रा० मंडव] १. किसी विशिष्ट कार्य के लिए छाकर बनाया हुआ स्थान। मंडप। २. वह खेल तमाशा जो किसी मंडप के अन्दर दिखलाया जाता हो। (पश्चिमी)
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मंड-हारक  : पुं० [सं० ष० त०] मद्य का व्यवसायी। कलवार।
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मंडा  : स्त्री० [सं० मंड+अच्+टाप्] सुरा। पुं० [सं० मंडल] १. भूमि का एक मान जो दो बिस्वे के बराबर होता है। २. एक प्रकार की बँगला मिठाई। पुं० [हिं० मंडी] (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंडान  : स्त्री० [हिं० मंडना] १. मंडित करने की क्रिया या भाव। २. किसी बड़े कृत्य के आरम्भ में की जानेवाली व्यवस्था। ३. आयोजन। प्रबंध। इन्तजाम। जैसे—राज-तिलक या विवाह का मंडान। क्रि० प्र०—बाँधना।
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मँडार  : पुं० [सं० मंडल] १. गड्ढा। २. झावा, टोकरा या डलिया।
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मंडित  : भू० कृ० [सं०√मंड् (सजाना) १. सजाया हुआ। विभूषित। २. ऊपर से छाया हुआ। आच्छादित। ३. भरा या पूरी तरह से युक्त किया हुआ। पूरित।
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मँड़ियार  : पुं० [देश०] झरबेरी नाम की कँकरीली झाड़ी।
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मंडी  : स्त्री० [सं० मंडप] वह बहुत बड़ा विक्रय-स्थल जहाँ थोक माल बेचने की बहुत-सी दुकानें हों। जैसे—अनाज की मंडी, कपड़े की मंडी। स्त्री० [सं० मंडल] दो बिस्से के बराबर जमीन की एक पुरानी नाप।
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मँडुआ  : पुं० [देश०] एक प्रकार का कदन्न। पुं० मँडवा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंडूक  : पुं० [सं०√मंड्+ऊकण्] १. मेढ़क। २. एक प्राचीन ऋषि। ३. प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा। ४. एक प्रकार का नृत्य। ५. संगीत में रुद्रताल के ग्यारह भेदों में से एक। ६. एक प्रकार का फोड़ा। ७. दोहा, छंद का पाँचवा भेद जिसमें १८ गुरु और १२ लघु अक्षर होते हैं।
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मंडूक-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स०, ङीष्] १. ब्राह्मी बूटी। २. मंजीठ।
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मंडूक-प्लुति  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. मेंढक का छलाँगे लगाना। २. मेंढक की तरह छलाँगें लगाना।
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मंडूका  : स्त्री० [सं० मंडूक+टाप्] मंजिष्ठा। मंजीठ।
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मंडूकी  : स्त्री० [सं० मंडूक+ङीष्] १. ब्राह्मी। २. आदित्य-भक्ता।
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मंडूर  : पुं० [सं०√मंड्+ऊरच्] १. गलाये हुए लोहे की मैल। २. लौह-किट्ट। ३. वैद्यक में उक्त से बनाया हुआ एक प्रकार का रसौषध’।
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मँढ़ा, मंढ़ा  : पुं० [हिं० मढ़ना] १. कमख्वाब बुननेवालों का एक औजार। २. किसी विशिष्ट कार्य के लिए छाकर बनाया हुआ स्थान। मंडप। ३. लकड़ियों आदि का वह ढाँचा जो किसी तरह की बेल चढ़ावे के लिए खड़ा किया या बनाया जाता है। मुहा०—बेल-मँढ़े (मंढ़े) चढ़ना=किसी काम का ठीक तरह से चलने लगना या पूरा होना। जैसे—तुमने इतना बड़ा काम तो हाथ में ले लिया है, पर यह बेल मँढ़े नहीं चढ़ेगी।
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मंत  : पुं० [सं० मंत्र] १. परामर्श। सलाह। २. मंत्र।
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मंतक  : पुं० [अं० मंतिक] तर्कशास्त्र।
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मंतव्य  : वि० [सं०√मन् (मानना)+तव्यत्] मानने योग्य। माननीय। मान्य। पुं० १. किसी काम या बात के संबंध में वह विचार जो मन में स्थिर किया गया हो। मत। (इन्टेन्ट) २. उद्देश्य, सभा-समिति आदि में उपस्थित और स्वीकृति होनेवाला प्रस्ताव या निश्चिय। (रिजोल्यूशन) ३. सभा, समिति आदि द्वारा किया हुआ कोई निश्चय या निर्णय। ४. संकल्प।
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मंत्र  : पुं० [सं०√मंत्र+घञ् वा अच्] १. भारतीय वैदिक साहित्य में देवता से की जानेवाली वह प्रार्थना जिसमें उसकी स्तुति भी हो। विशेष—वैदिक काल में तंत्र तीन प्रकार के होते थे। जो छंदोबद्ध या पद्य के रूप में होते थे और जिनका उच्चारण उच्च स्वर में किया जाता था, उन्हें ‘ऋचा’ कहते थे। गद्य रूप में होनेवाले और मंद स्वर में कहे जानेवाले मंत्रों को ‘यजु’ कहते थे, और पद्य रूप में गाये जानेवाले मंत्रों को ‘साम’ कहते थे। इसके सिवा निरुक्त में मंत्रों के तीन और भेद बतलाये गये हैं। जिन मंत्रों में देवता को परोक्ष में मान कर प्रथम पुरुष में उनकी स्तुति की जाती है, वे ‘परोक्ष-कृत’ कहलाते हैं। जिनमें देवताओं को प्रत्यक्ष मान कर मध्यम पुरुष में उनकी स्तुति की जाती है, उन्हें ‘प्रत्यक्षकृत’ कहते हैं। और जिन मंत्रों में स्वयं अपने आप में आरोप करके और उत्तम पुरुष में स्तुति की जाती है, वे ‘आध्यात्मिक’ कहलाते हैं। वैदिक मंत्रों में प्रायः प्रार्थना और स्तुति के सिवा अभिशाप, आशीर्वाद, निंदा, शपथ आदि की भी बहुत सी बातें पाई जाती हैं। वैदिक काल में इसी प्रकार के मंत्रों के द्वारा यज्ञ-संबंधी सब कृत्य किये जाते थे। २. वेदों का वह संहिता नामक भाग जिसमें उक्त प्रकार के मंत्र संगृहीत हैं और जो उनके ब्राह्मण नामक भाग से भिन्न हैं। ३. कोई ऐसा शब्द, पद या वाक्य जो दैवी शक्ति से युक्त माना जाता हो और जिसका उच्चारण किसी देवता को प्रसन्न करके उससे अपनी कामना पूरी कराने के लिए किया जाता हो। विशेष—उक्त प्रकार के मंत्रों में जो एकाक्षरी और बिना स्पष्ट अर्थवाले होते हैं। उन्हें तंत्र शास्त्र में बीज-मंत्र कहते हैं। पद—मंत्र-तंत्र, यंत्र-मंत्र। ४. राय या सलाह। मंत्रणा। ५. कोई ऐसी बात जो किसी प्रकार का उद्देश्य सिद्ध करने के लिए किसी को गुप्त रूप से बतलाई, समझाई या सिखाई जाय। कार्य-सिद्धि का गुर, ढंग या नीति। जैसे—न जाने तुमने उसे कौन सा मंत्र बता (या सिखा) दिया है कि वह लोगों से अपना काम तुरंत करा लेता है।
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मंत्रकार  : पुं० [सं० मंत्र√कृ+अण्, उप० स०] मंत्र रचनेवाला। जैसे—मंत्रकार ऋषि।
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मंत्र-गूढ़  : पुं० [सं० स० त०] गुप्तचर। जासूस। भेदिया।
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मंत्र-गृह  : पुं० [सं० ष० त०] वहा स्थान जहाँ बैठकर मंत्रणा या सलाह करते हैं।
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मंत्र-जल  : पुं० [सं० मध्य० स०] मंत्र से प्रभावित किया हुआ जल।
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मंत्र-जिह्व  : पुं० [सं० ब० स०] अग्नि।
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मंत्रज्ञ  : वि० [सं० मंत्र√ज्ञा (जानना)+क] १. मंत्र जाननेवाला। २. परामर्श या सलाह देने की योग्यता रखनेवाला। ३. भेद या रहस्य जाननेवाला।
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मंत्रण  : पुं० [सं०√मंत्र (गुप्त भाषण)+ल्युट्—अन] १. मंत्रणा या सलाह करना। २. परामर्श।
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मंत्रणा  : स्त्री० [√मंत्र् +णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. किसी महत्त्वपूर्ण विषय के संबंध में आपस में होनेवाली बात-चीत या विचार-विमर्श। सलाह। २. उक्त बात-चीत या विचार-विमर्श के द्वारा स्थिर किया हुआ मत। मंतव्य। ३. किसी काम के संबंध में किसी को दिया जानेवाला परामर्श या सलाह। (एडवाईज़)
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मंत्रणाकार  : पुं० [सं० मंत्रणा√कृ (करना)+अण्] वह जो किसी को उसके कार्यों के संबंध में मंत्रणा देता रहता हो। (एडवाईजर)
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मंत्रणा-परिषद्  : स्त्री० [सं० ष० त०] मंत्रणाकारों की ऐसी परिषद् जो किसी बड़े अधिकारी या शासन को मंत्रणा देती रहती हो। (ऐडवाइज़री कौंसिल)
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मंत्र-तंत्र  : पुं० [सं० द्व० स०] वे मंत्र जो कुछ विशिष्ट प्रकार की क्रियाओं के साथ जादू-टोने के रूप में किसी अभीष्ट सिद्धि के लिए पढ़े जाते हैं। विशेष—ऐसे मंत्र या तो तंत्रशास्त्र के क्षेत्र के होते हैं; या उनके अनुकरण पर मन-माने ढंग से बनाये हुए होते हैं।
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मंत्रद  : वि० [सं० मंत्र√दा (देना)+क, उप० स०] परामर्श देनेवाला। पुं० वह गुरु जिसने गुरु-मंत्र दिया हो।
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मंत्रदर्शी (दर्शिन्)  : वि० [सं० मंत्र√दृश् (देखना)+णिनि, उप० स०] वेदवित्। वेदज्ञ।
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मंत्र-दीधिति  : पुं० [ब० स०] अग्नि। आग।
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मंत्र-द्रष्टा  : वि० [ष० त०] जो मंत्रों का अर्थ जानता हो। पुं० मंत्रों के अर्थ जानने और बतानेवाला ऋषि।
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मंत्र-धर  : पुं० [ष० त०] मंत्र का अधिष्ठाता ऋषि।
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मंत्र-धर  : पुं० [ष० त०] मंत्री।
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मंत्र-पति  : पुं० [ष० त०] मंत्र का अधिष्ठाता देवता।
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मंत्र-पूत  : भू० कृ० [तृ० त०] १. मंत्र द्वारा पवित्र किया हुआ। २. मंत्र पढ़कर फूँका हुआ।
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मंत्र-बीज  : पुं० [ष० त०] मूल मंत्र।
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मंत्र-भेदक  : पुं० [ष० त०] वह जो शासन के निश्चय, भेद या रहस्य दूसरों पर प्रकट कर देता हो। (ऐसा व्यक्ति, राज्य या राष्ट्र या शत्रु माना जाता है।)
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मंत्र-मूल  : पुं० [ब० स०] राज्य।
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मंत्र-यान  : पुं० [ब० स० या सुप्सुपा स० ?] बौद्धों की एक शाखा जिसके प्रवर्त्तक सिद्ध नागार्जुन माने जाते हैं। इसे वज्रज्यान (देखें) भी कहते हैं। इस शाखा में बुद्ध के उपदेशों का सारांश मंत्रों के रूप में जपा जाता है। विशेष—बौद्ध धर्म का तीसरा यान या मार्ग जो महायान के बाद चला था; और जिसमें कुछ मंत्रों के उच्चारण से ही निर्वाण प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता था।
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मंत्र-युद्ध  : पुं० [सुप्सुपा स०] केवल बातचीत या बहस के द्वारा शत्रु को वश में करने की क्रिया या प्रयत्न।
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मंत्र-योग  : पुं० [ष० त०] १. मंत्रों का प्रयोग। मंत्र पढ़ना। २. हठयोग में प्राणायाम करते हुए मंत्र या नाम जपना। शब्द योग। ३. इन्द्रजाल। जादू।
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मंत्रवादी (दिन्)  : वि० [सं० मंत्र√वद् (कहना)+णिनिन लोप] १. मंत्रज्ञ। २. मंत्र उच्चारण करनेवाला।
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मंत्र-विद्  : वि० [सं० मंत्र√विद् (जानना)+क्विप्] १. मंत्र जाननेवाला। मंत्रज्ञ। २. वेदज्ञ। ३. राज्य या शासन के रहस्य और सिद्धांत जाननेवाला।
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मंत्र-विद्या  : स्त्री० [ष० त०]=मंत्र-शास्त्र।
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मंत्र-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] वह शास्त्र जिसमें भिन्न प्रकार के मंत्रों के द्वारा उसके कार्य सिद्ध करने की क्रियाएँ और विवेचन हो। तंत्र-शास्त्र।
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मंत्र-संस्कार  : पुं० [सं० ष० त०] १. मंत्रों की विधि से किया जानेवाला संस्कार। २. मंत्र-ग्रहण करने से पूर्व उसका किया जानेवाला संस्कार। (तंत्र) ३. विवाह।
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मंत्र-संहिता  : स्त्री० [ष० त०] वेदों का वह अंश जिसमें मंत्रों का संग्रह है।
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मंत्र-सिद्ध  : वि० [तृ० त०] १. जो मंत्रों के द्वारा सिद्ध किया गया हो। २. [ब० स०] जिसे मंत्र सिद्ध हो।
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मंत्र-सिद्धि  : स्त्री० [ष० त०] मंत्र-तंत्र का इस प्रकार सिद्ध होना कि उनसे उपयुक्त काम लिया जा सके।
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मंत्र-सूत्र  : पुं० [मध्य० स०] रेशम या सूत का वह तागा जो शरीर के किसी अंग में बाँधने के लिए मंत्र पढ़कर तैयार किया गया हो। गंडा।
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मंत्रालय  : पुं० [मंत्र-आलय, ष० त०] १. मंत्री का कार्यालय। २. आजकल शासन में, कर्मचारियों का वह विभाग जो किसी मंत्री के निर्देशन में काम करता हो। (मिनिस्टरी) जैसे—शिक्षा मंत्रालय।
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मंत्रित  : भू० कृ० [सं०√मंत्र्+क्त या मंत्र+इतच्] १. मंत्र द्वारा संस्कृत। अभिमंत्रित। २. जिसे मंत्र दिया गया हो।
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मंत्रिता  : स्त्री० [सं० मंत्रिन्+तल्+टाप्] १. मंत्री होने की अवस्था, पद या भाव। मंत्रित्व। २. मंत्री का कार्य।
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मंत्रित्व  : पुं० [सं० मंत्रिन्+त्व] मंत्री का कार्य या पद। मंत्री-पद।
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मंत्रि-पति  : पुं० [सं० ष० त०] प्रधान मंत्री।
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मंत्रि-परिषद्  : स्त्री० [ष० त०] किसी राज्य, संस्था आदि के मंत्रियों का समूह या समाहार। (कैबिनेट, काउन्सिल)
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मंत्रि-मंडल  : पुं० [ष० त०] किसी राज्य के मंत्रियों का मंडल, वर्ग या समूह (मिनिस्टरी)
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मंत्री (त्रिन्)  : पुं० [सं० मंत्र+इनि,] १. वह जो मंत्रणा अर्थात् परामर्श या सलाह देता हो। २. राजा का वह प्रधान अधिकारी जो उसे राजकार्यों के संबंध में परामर्श देता और राज-कार्यों का संचालन करता हो। अमात्य। ३. वह व्यक्ति जिसके आदेश और परामर्श से राज्य के किसी विभाग के सब काम-काज होते हों। (मिनिस्टर) जैसे—अर्थ-मंत्री, शिक्षा-मंत्री। विशेष—मंत्री और सचिव के अन्तर के लिए दे० ‘सचिव’ का विशेष। ४. किसी संस्था का वह प्रधान अधिकारी जिसके आदेश तथा परामर्श से उसके सब काम होते हों। (सेक्रेटरी) जैसे—सभा का मंत्री। ५. वह जो किसी उच्च अधिकारी के साथ रहकर उसके पत्र-व्यवहार तथा महत्त्व के कार्यों की व्यवस्था करता हो। सचिव। (सेक्रेटरी) ६. शतरंज में वजीर नाम की गोटी या मोहरा।
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मंथ  : पुं० [सं० √मंथ् (मथना)+घञ्] १. मथना। बिलोना। २. हिलाना। ३. मलना।। रगड़ना। ४. मारना-पीटना। ५. काँपना। कंपन। ६. मथानी। ७. सूर्य की किरण। ८. एक प्रकार का मृग। ९. एक प्रकार का पेय पदार्थ जो कई प्रकार के तरल पदार्थों को मथकर बनाया जाता था। १॰. दूध या जल में मिलाकर मथा हुआ सत्तू। ११. आँख का एक रोग जिसमें आँखों से पानी या कीचड़ बहता है। १२. एक प्रकार का ज्वर जो बाल-रोग के अन्तर्गत माना जाता है। मंथर।
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मंथक  : पुं० [सं√मंथ्+ण्वुल्—अक] १. एक गोत्रकार मुनि का नाम। २. उक्त ऋषि के वंशज या अनुयायी। ३. चँवर डुलाने पर निकलनेवाली वायु। वि० मंथन करनेवाला।
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मंथज  : वि० [सं० मंथ्√जन् (उत्पन्न करना)+ड] मथने से उत्पन्न होनेवाला। मथकर निकाला जानेवाला। पुं० नवनीत।
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मंथन  : पुं० [सं०√मंथ्+ल्युट्—अन] १. वह प्रक्रिया जिससे दही को मथानी द्वारा चलाकर मक्खन निकाला जाता है। २. किसी गूढ़ या नवीन तत्त्व को खोज निकालने के लिए परिश्रमपूर्वक की जानेवाली छान-बीन। जैसे—शास्त्रों का मन्थन।
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मंथन-घट  : स्त्री० [सं० मंथन+ङीष्] मिट्टी का वह पात्र जिसमें दही मथा जाता है। मटकी।
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मंथ-पर्वत  : पुं० [सं० ष० त०] मंदर पर्वत।
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मंथर  : वि० [सं०√मंथ्+अरन्] १. धीमा। मन्द। २. मट्ठर। सुस्त। ३. मन्द-बुद्धि। कम-समझ। ४. बड़ा और भारी। स्थूल। ५. टेढ़ा। वक्र। ६. अधम। नीच। पुं० १. बालों का गुच्छा। २. कोष। खजाना। ३. फल। ४. बाधा। रुकावट। ५. मंथानी। ६. क्रोध। गुस्सा। ७. दूब। ८. वैशाख का महीना। ९. भँवर। १॰. किला। दुर्ग। ११. मृग। हिरन। १२. नवनीत। मक्खन। १३. मंथ (देखें) नामक ज्वर।
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मंथरा  : स्त्री० [सं० मंथर+टाप्] रानी कैकेयी की एक प्रसिद्ध कुबड़ी दासी जिसके बहकावे में आकर उसने राजा दशरथ से दो वर माँगे थे और राम को वन-वास दिलाया था। २. १२0 हाथ लंबी, ६0 हाथ चौड़ी और ३0 हाथ ऊँची नाव। (युक्तिकल्पतरु)
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मंथ-शैल  : पुं० [ष० त०] मंदर पर्वत।
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मंथान  : पुं० [सं०√मंथ्+अनच्] १. बड़ी मथानी। २. महादेव। शिव। ३. मंदर पर्वत। ४. एक भैरव का नाम। ५. मथानी। ६. अमलतास। ७. एक प्रकार का वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरम में दो तगण होते हैं।
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मंथानक  : पुं० [सं० मंथान+कन्] एक तरह की घास।
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मंथिता (तृ)  : वि० [सं०√मंथ्+तृच्] [स्त्री० मंथिनी] जो मथानी से दही मथता हो। मथनेवाला।
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मंथिनी  : स्त्री० [सं० मंथ+इनि+ञीप्] दही मथने की मटकी।
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मंथिप  : वि० [सं० मंथिन्√पा (पीना)+क] मथा हुआ सोम पीनेवाला।
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मंथी (थिन्)  : वि० [सं० मंथ+इन्,] १. मंथन करने या मथनेवाला। २. कष्ट देनेवाला। पीड़क। पुं० मथा हुआ सोमरस।
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मंद  : वि० [सं०√मंद् (सुस्त पड़ना)+अच्] १. जिसकी गति, चाल, प्रवाह, वेग अपेक्षाकृत अपने वर्गवालों से कम या घटकर हो। धीमा। २. जिसमें अधिक उग्रता या तीव्रता न हो। जैसे—मंद ज्वर। ३. जो जल्दी या सहसा नहीं; बल्कि धीरे-धीरे अपना प्रभाव दिखाता हो। जैसे—मंद विष। ४. जिसमें जल्दी-जल्दी तथा अच्छी तरह काम करने की शक्ति या सामर्थ्य न हो। जैसे—मंद-बुद्धि। ५. बेवकूफ। मूर्ख। ६. खल। दुष्ट। पुं० १. वह हाथी जिसकी छाती और मध्य-भाग की बलि ढीली हो, पेट लंबा, चमड़ा मोटा, गला, कोख और पूछ की चैवरी मोटी हो। २. शनि नामक ग्रह। ३. यम। ४. अभाग्य या दुर्भाग्य। ५. प्रलय। पुं०=मद्य (शराब)। प्रत्य० [सं० भान् या मन् से फा०] किसी गुण या वस्तु से प्राप्त अथवा संपन्न। वाला। जैसे—दौलतमंद, गरजमंद, जरूरतमंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंदऊ  : पुं० [देश०] घोड़े की गले की हड्डी सूजने का एक रोग।
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मंदक  : वि० [सं० मंद+कन्] मूर्ख। ना-समझ।
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मंदग  : वि० [सं० मंद√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० मंदगा] मंद गतिवाला। धीमी चालवाला। पुं० महाभारत के अनुसार शाकद्वीप के अन्तर्गत चार जन-पदों में से एक।
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मंद-गति  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] ग्रहों की गति की वह अवस्था जब वे अपनी कक्षा में घूमते हुए सूर्य से दूर निकल जाते हैं। वि० [ब० स०] धीमे चलनेवाला।
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मंद-ज्वर  : पुं० [सं० कर्म० स०] प्रायः आता रहनेवाला ऐसा ज्वर जिसमें शरीर का तापमान बहुत अधिक न बढ़े। धीमा या हल्का ज्वर। (स्लो फ़ीवर)
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मंदट  : पुं० [सं० मन्द√अट्+अच्] देवदारु।
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मंदता  : स्त्री० [सं० मंद+तल्+टाप्] १. मंद होने की अवस्था, कर्म या भाव। धीमापन। २. आलस्य। सुस्ती। ३. क्षीणता।
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मंद-धूप  : पुं० [सं० कर्म० स०] काला धूप। काला डामर।
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मंदना  : अ० [सं० मन्द] १. मंद होना। धीमा पड़ना। २. सुस्त होना। ३. फीका या हलका पड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंद-फल  : पुं० [सं० ब० स०] गणित ज्योतिष में ग्रहों की गति का एक प्रकार का भेद।
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मंदभागी  : वि० [सं० मंदभाग्य] अभागा। बदकिस्मत।
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मंदर  : पुं० [सं०√मंद+अर्] १. पुराणानुसार एक पर्वत जिससे समुद्र मथा गया था। मन्दराचल। २. मंदार नामक वृक्ष। ३. स्वर्ग। ४. दर्पण। शीशा। ५. पुराणानुसार कुश द्वीप का एक पर्वत। ६. पुराणानुसार प्रासाद के बीस भेदों में से दूसरा भेद या प्रकार। ७. एक वर्णवृत का नाम जिसमें प्रत्येक चरण में एक भगण (ऽऽ।।) होता है। ८. मोतियों का वह हार जिसमें आठ या सोलह लड़ियाँ हों। वि०=मंद।
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मंदर-गिरि  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. मंदराचल पर्वत। २. मुंगेर के पास का एक पहाड़ जहाँ सीता-कुंड नाम का गरम पानी का कुंड और जैनों बौद्धों तथा हिन्दुओं के मंदिर हैं।
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मँदरा  : वि० [सं० मंदर मि० पं० मँदरा=नाटा] [स्त्री० मँदरी] छोटे आकार का। नाटा। पुं० [सं० मंडल] एक प्रकार का बाजा जिसे मंडिल भी कहते हैं।
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मँदरी  : स्त्री० [देश०] खाजे की जाति का एक पेड़।
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मंदला  : पुं०=मंदिल (बाजा)।
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मंदसान  : पुं० [सं०√मंद् (प्राप्त होना)+सानच्)] १. अग्नि। २. प्राण। ३. निद्रा। नींद।
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मंदा  : स्त्री० [सं० मन्द+टाप्] १. सूर्य की वह संक्रांति जो उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद और रोहिणी नक्षत्र में पड़े। २. बल्ली करंज। वि० [सं० मंद] [स्त्री० भाव० मंदी] १. मंद। धीमा। २. ढीला। शिथिल। ३. (शारीरिक अवस्था) जो ठीक न हो। ४. बिगड़ा हुआ। विकृत। ५. (बाजार या व्यापार) जिसमें तेजी न हो। जिसमें लेन-देन या क्रय-विक्रय बहुत कम हो रहा हो।
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मंदाकिनी  : स्त्री० [सं०√मंद्+आक, मंदाक+इनि वा मंद√अक् (गति)+णिनि+ङीष्] १. पुराणानुसार गंगा की वह धारा जो स्वर्ग में है। २. आकाश-गंगा। ३. सात प्रकार की संक्रांतियों में से एक। ४. चित्रकूट के पास बहनेवाली एक नदी। (महाभारत) ५. एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः दो-दो नगण और दो-दो रगण होते हैं।
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मंदाक्रांता  : स्त्री० [सं० मंद-आक्रान्ता, कर्म० स०] सत्रह अक्षरों का एक वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण, भगण, नगण और तगण और अंत में दो गुरु होते हैं।
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मंदाक्ष  : विय [सं० मंद-अक्षि,+षच्] संकुचित आँखोंवाला। पुं० लज्जा। शरम।
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मंदाग्नि  : स्त्री० [सं० मंद-अग्नि, कर्म० स०] एक प्रकार का रोग जिसमें रोगी की पाचन शक्ति मंद पड़ जाती है, भूख कम लगती है और खाई हुई चीज जल्दी हजम नहीं होती।
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मंदात्मा (त्मन्)  : वि० [सं० मंद-आत्मन्, ब० स०] १. मूर्ख। २. नीच।
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मंदान  : पुं० [?] जहाज का अगला भाग। (लश०)
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मंदानल  : पुं० [सं० मंद-अनल, कर्म० स०] मंदाग्नि (रोग)।
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मंदाना  : अ० [हिं० मंद] मंद पड़ना या होना। स० मन्द या धीमा करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मंदानिल  : पुं० [सं० मंद-अनिल, कर्म० स०] धीमे चलनेवाली हलकी और सुखद वायु।
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मंदार  : पुं० [सं०√मंद्+आरन्] १. स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक देव वृक्ष। २. आक। मदार। ३. स्वर्ग। ४. हाथ। ५. धतूरा। ६. हाथी। ७. बिन्ध्य पर्वत के पास का एक तीर्थ। ८. हिरण्य-कश्यप का एक पुत्र।
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मंदारक  : पुं० [सं० मंदार+कन्]=मंदार।
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मंदार-माला  : स्त्री० [सं० ष० त०] बाइस अक्षरों का एक वर्ण-वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सात तगण और अंत में एक गुरु होता है।
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मंदालसा  : स्त्री०=मदालसा।
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मंदिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० मंद+इमनिच्,] १. मंदता। धीमापन। २. शिथिलता। सुस्ती। ३. अल्पता। कमी।
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मंदिर  : पुं० [सं०√मंद्+किरच्] १. रहने का घर। मकान। २. वह घर या मकान जिसमें पूजन आदि के लिए कोई मूर्ति स्थापित हो। देवालय। ३. किसी विशिष्ट शुभ कार्य के लिए बना हुआ भवन या मकान। जैसे—विद्या-मंदिर। ४. नगर। शहर। ५. छावनी। ६. समुद्र। ७. घोड़े की जाघ का पिछला भाग।
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मंदिर-पशु  : पुं० [सं० मध्य० स०] बिल्ली।
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मंदिरा  : स्त्री० [सं० मन्दिर+टाप्] १. घुड़साल। अश्वशाला। २. मँजारी नाम का बाजा।
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मंदिल  : पुं० [सं० मंदिर] १. घर। मकान। २. देव-मंदिर। देवालय। ३. वह धन जो व्यापारी लोग किसी चीज का दाम चुकाने के समय किसी बड़े मन्दिर में भेजने के लिए काट लेते हैं। क्रि० प्र०—काटना। पुं०=मंदल (बाजा)।
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मंदी  : स्त्री० [हिं० मंद] १. मंद होने की अवस्था या भाव। २. बाजार की वह स्थिति जिसमें चीजों की दर या भाव उतर रहा हो। ३. बाजार की वह स्थिति जिसमें चीजें कम बिकती हों या रोजगार कम चलता हो। ‘तेजी’ का विपर्याय। ४. अर्थ-शास्त्र में, बाजार की वह स्थिति जिसमें लोगों की क्रयशक्ति कम होने के कारण चीजों की बिक्री घटने लगती है।
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मंदील  : पुं० [हिं० मुंड] एक प्रकार का सिरबंद जिस पर जरदोजी का काम बना रहता है। पुं०=मंदिल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंदुरा  : स्त्री० [सं√मंद्+उरच्+टाप्] १. अश्व-साला। घुड़साल। २. चटाई।
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मंदोच्च  : पुं० [सं० मंद-उच्च, कर्म० स०] ग्रहों की एक प्रकार की गति जिससे राशि आदि का संशोधन करते हैं।
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मंदोदर  : वि० [सं मंद-उदर, ब० स०] [स्त्री० मंदोदरी] छोटे या पतले पेटवाला।
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मंदोदरी  : स्त्री० [सं० मंदोदरी+ङीष्] रावण की पटरानी जो मय दानव की कन्या थी।
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मँदोवै  : स्त्री०=मंदोदरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मंदोष्ण  : वि० [सं० मंद-उष्ण, कर्म० स०] कम या थोड़ा गरम। कुनकुना।
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मंद्र  : पुं० [सं०√मंद्+रक्] १. गंभीर ध्वनि। जोर का शब्द। २. संगीत में तीन प्रकार के स्वरों से एक जो अपेक्षया धीमा या मंद होता है। ३. मृदंग
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मंद्राज  : पुं० [सं०] [स्त्री० मंद्राजिन] १. दक्षिण का एक प्रधान नगर जो पूर्वी घाट के किनारे है। २. उक्त नगर के आसपास का प्रदेश जो अब कई राज्यों में बँट गया है। मदरास।
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मंद्राजी  : वि०, पुं०=मदरासी।
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मंशा  : स्त्री० [अ० मि० सं० मनस्] १. इच्छा। इरादा। २. अभिप्राय। उद्देश्य।
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मंसना  : स०=मनसना।
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मंसब  : पुं० [अ०] १. बड़े अधिकारी या कार्य-कर्ता का पद। ओहदा। २. किसी पद या स्थान पर रहकर किया जानेवाला कर्तव्य या काम।
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मंसा  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घा जो बहुत शीघ्रता से बढ़ती और पशुओं के लिए बहुत पुष्टिकारक समझी जाती है। मकड़ा। स्त्री०=मंशा (अभिप्राय या उद्देश्य)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मंसूख  : वि० [अ०] [भाव० मंसूखी] (आज्ञा या निश्चय) जो रदकर दिया गया हो।
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मंसूखी  : स्त्री० [अ०] मंसूख अर्थात् रद किये जाने की क्रिया, दशा या भाव।
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मंसूबा  : पुं०=मनसूबा।
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मँसूर  : वि० [अ०] १. जिसे ईश्वरीय सहायता मिली हो। २. विजयी।
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मंज़िल  : स्त्री०=मंजिल। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मंदती  : स्त्री० [सं०] विकृत धैवत की चार श्रुतियों में से दूसरी श्रुति।
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मंद्रकर  : वि० [सं० मद्र√कृ+खच्, मुमागम] मंगलकारक। शुभ।
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