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वितंड  : पुं० [सं० वि√तंड् (ताड़न करना)+अच्] १. हाथी। २. एक तरह का पुरानी चाल का ताला।
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वितंडा  : स्त्री० [सं० वितंड+टाप्] १. ऐसी आपत्ति, आलोचना विरोध जो छिद्रान्वेषण के विचार से किया गया हो। २. दूसरे के पक्ष को दबाते हुए अपने मत की स्थापना करना। ३. व्यर्थ की कहा-सुनी झगड़ा। ४. दूब। ५. कबूतर। ६. शिला। रस।
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वितंत्र  : पुं० [सं० वि+तंत्र] ऐसा बाजा जिसमें तार न लगे हों। बिना तार का बाजा।
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वितंत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०] ऐसी वीणा जिसके तारों का स्वर ठीक मिला न हो।
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वितंस  : पुं० [सं० वि√तंस् (भूषित करना)+अच्] १. पक्षी रखने का पिंजरा। २. बस, रस्सी, जंजीर आदि जिससे पशु या पक्षी को बाँधा जाय।
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वित  : वि० [सं० विद्] १. जाननेवाला। ज्ञाता। २. चतुर। होशियार। पुं०=वित्त (अर्थ)।
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वितताना  : अ० [सं० व्यथा] व्याकुल या बेचैन होना।
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वितति  : स्त्री० [सं० वि√तन्+क्तिन्] वितत होने की अवस्था या भाव। विस्तार।
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विततोरसि  : वि० [सं० वितत (फैला हुआ)+उरसि] १. चौड़ी या विस्तृत छातीवाला (वीरों का लक्षण) २. उदार हृदय।
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वितथ  : वि० [सं०√तन+क्थन्] [भाव० वितयता] १. झूठा। मिथ्या। वि २.निरर्थक। व्यर्थ। पु० १. गृह-देवताओं का एक वर्ग। २. भरद्वाज ऋषि।
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वितथ्य  : वि० [सं०] १. तथ्य-रहित। २. वितथ (दे०)
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वितद्रु  : पुं० [सं० वि√तन्+रु, दुट्-आगम] पंजाब की झेलम नदी का प्रचीन नाम।
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वितनु  : [सं० वि√तन्+उ] १. तनहीन। देहहीन। विदेह। २. कोमल, सूक्ष्म, तथा सुंदर। पुं० कामदेव।
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वितपन्न  : वि०=व्युत्पन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितमस  : वि०=वितमस्क।
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वितमस्क  : वि० [सं०] १. जिसमें तम या अंधकार न हो। २. तमोगुण से रहित।
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वितरक  : वि० [सं० वितर+कन्] वितरण करनेवाला। बाँटनेवाला। पुं० व्यावसायिक क्षेत्र में वह व्यक्ति या संस्था जो किसी उत्पादक संस्था की वस्तुओं की बिक्री आदि का प्रबंध करती हो। (डिस्ट्रीब्यूटर)।
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वितरक-नदी  : स्त्री० [सं०] आधुनिक भूगोल में, किसी नदी के मुहाने पर बननेवाली उसकी शाखाओं में से प्रत्येक शाखा जो स्वतंत्र रूप से जाकर समुद्र में गिरती है (डिस्ट्रीब्यूटरी)।
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वितरण  : पुं० [सं० वि√तृ (पार करना)+ल्युट-अन] १. दान करना। देना। २. अर्पण करना। ३. बाँटना। ४. अर्थशास्त्र में उत्पत्ति के फलस्वरूप होनेवाली प्राप्ति का उत्पत्ति के साधनों में बाँटना। ५. व्यापारिक क्षेत्र में विक्रय तथा प्रदर्शन के उद्देश्य से दुकानदारों तथा व्यापारियों को निर्मित वस्तुएँ देना।
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वितरन  : वि०=वितरक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितरना  : स० [सं० वितरण] वितरण करना। बाँटना। उदाहरण—आकर्षण धन-सा वितरे जल। निर्वासित हो सन्ताप सकल।—प्रसाद।
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वितरिक्त  : अव्य,=अतिरिक्त।
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वितरित  : भू० कृ० [सं० वितर+इतष्] जो वितरण किया गया हो। बाँटा हुआ।
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वितरिता  : वि० [सं० वि√तृ (तरना)+तृच्]=वितरक।
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वितरेक  : पुं०=व्यतिरेक।
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वितर्क  : पुं० [सं० वि√तर्क (तर्क करना)+अच्] १. कुतर्क करना। २. किसी के तर्क का खंडन करने के लिए उसके विपरीत उपस्थित किया जानेवाला तर्क। ३. साहित्य में एक संचारी भाव जो उस समय माना जाता है जब मन में कोई विचार उत्पन्न होने पर मन ही मन उसके विरुद्ध तर्क किया जाता है और इस प्रकार असमंजस में रहा जाता है। ४. एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी प्रकार के सन्देह या वितर्क का उल्लेख होता है और कुछ निर्णय नहीं होता।
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वितर्कण  : पुं० [सं० वि√तर्क (तर्क करना)+ल्युट-अन] १. तर्क करने की क्रिया या भाव। २. संदेह। ३. वाद-विवाद।
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वितर्क्य  : वि० [सं० वितर्क+यत्] १. जिसमें किसी प्रकार के वितर्क या संदेह के लिए अवकाश हो। २. अद्भुत। विलक्षण।
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वितर्दि (तर्द्धि)  : स्त्री० [वि०√तर्द (मारना)+इनि] १. वेदी० २. मंत्र। ३. छज्जा।
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वितल  : पुं० [सं० तृ० त०] पृथ्वी के नीचे स्थित सात लोगों में से दूसरा लोक (पुराण)।
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वितली (लिन्)  : पुं० [सं० वितल+इनि] बकदेव, जो वितल के धारक माने गए है (पुराण)।
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वितस्ता  : स्त्री० [सं० वि√तस् (ऊपर फेंकना)+क्त+टाप्] पंजाब की झेलम नदी का प्राचीन नाम।
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वितस्ताख्य  : पुं० [सं० ब० स०] कश्मीर में स्थित तक्षक नाग का निवास स्थान (महाभारत)।
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वितस्तिद्रि  : पुं० [सं० मध्यम० स०] राजतरंगिणी में उल्लखित एक पर्वत।
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वितस्ति  : पुं० [सं० वि√तस्+ति] बारह अंगुल की एक नाप। बित्ता।
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विताडन  : पुं० [सं० वि√तड् (मारना)+ल्युट-अन] [भू० कृ० विताड़ित]=ताड़न।
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वितान  : पुं० [सं० वि√तन् (विस्तार करना)+घञ्] १. फैलाव। विस्तार। २. ऊपर से फैलाई जानेवाली चादर। चँदोआ। ३. जमाव। समूह। ४. घृणा। ५. शून्य स्थान। खाली जगह। ६. यज्ञ। ७. अग्निहोत्र आदि कृत्य। ८. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सगण,भगण और दो दो गुरु होते हैं। ९. सिर पर बाँधी जानेवाली पट्टी। वि०१. खाली। शून्य। २. दुःखी। ३. मूर्ख। ४. दुष्ट। ५. परिव्यक्त।
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वितानक  : पुं० [सं०] १. बड़ा। चँदोआ। २. खेमा। ३. धन-सम्पत्ति। ४. धनियाँ। वि० फैलानेवाला।
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वितानना  : स० [सं० वितान] १. खेमा, शामियाना आदि का तानना। २. कोई चीज तानना या फैलाना।
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वितार  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का केतु या पुच्छल तारा (बृहत्संहिता)।
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वितारक  : पुं० [सं० वितार+कन्] विधारा नामक जड़ी।
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विताल  : वि० [सं० ब० स०] (संगीत या वाक्य) जो ठीक ताल में न दे रहा हो। बे-ताल। पुं० संगीत में ऐसा ताल जो गाई या बजाई जानेवाली चीज के उपयुक्त न हो।
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वितिक्रम  : पुं०=व्यतिक्रम।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितिमिर  : वि० [सं० ब० स०] जिसमें तम या अंधकार न हो।
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वितीत  : वि०=व्यतीत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितीपात  : पुं०=व्यतीपात।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितीपाती  : वि० [सं० व्यतीपात+ई (प्रत्यय)] जो बहुत अधिक उपद्रव करता हो। पाजी। शरारती। विशेष—फलित के अनुसार ज्योतिष के व्यतीपात योग में जन्म लेनेवाले बालक बहुत दुष्ट होते हैं। इसी आधार पर यह विशेषण बना है।
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वितीर्ण  : पुं० [सं० वि√तृ+क्त]=वितरण। भू० कृ० १. पार किया या लाँघा हुआ। २. दिया या सौंपा हुआ। ३. जीता हुआ।
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वितुंड  : पुं० [सं०] हाथी।
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वितु  : पुं०=वित्त (अर्थ)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वितुव  : पुं० [सं० वि√तुद् (पीड़ित करना)+अच्] एक प्रकार की भूत योनि (वैदिक साहित्य)।
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वितुन्न  : पुं० [सं० वि√तुद्+क्त] १. शिरियारी या सुसना नामक साग। २. शैवाल। सेवार।
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वितुन्नक  : पुं० [सं० वितुन्न+कन्] १. धनिया। २. तूतिया। ३. केवटी। मोथा। ४. भू-आँवला।
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वितुष्ट  : वि० [सं० वि√तुष् (संतुष्ट होना)+क्त]=असंतुष्ट।
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वितृण  : वि० [सं० ब० स०] (स्थान) जिसमें तृण, घास आदि न उगती हो। तृण से रहित।
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वितृप्त  : वि० [सं० ब० स०] जो तृप्त या संतुष्ट न हुआ हो। अतृप्त।
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वितृष  : वि० [सं० ब० स०]=वितृष्ण।
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वितृष्ण  : वि० [सं०] [भाव० वितृष्णा] जिसके मन में कुछ भी या कोई तृष्णा न रह गई हो। तृष्णा-रहित।
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वितृष्णा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] [भाव० वितृष्ण] १. मन में किसी बात की तृष्णा न रह जाना। तृष्णा का अभाव। २. बुरी या विकट तृष्णा।
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वित्त  : पुं० [सं०] १. धन। संपत्ति। २. राज्य, संस्था आदि के आय-व्यय आदि की मद या विभाग और उसकी व्यवस्था (फ़ाइनान्स)।
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वित्त-कोश  : पुं० [सं० ष० त०] १. रुपये-पैसे आदि रखने की थैली। २. धन आदि का खजाना।
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वित्तगोप्ता  : पुं० [सं० ष० त०] कुबेर के भंडारी का नाम।
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वित्तदा  : स्त्री० [सं० वित्त√दा (देना)+क+टाप्] कार्तिकेय की एक मातृका।
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वित्तनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] कुबेर।
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वित्तपति  : पुं० [सं० ष० त०]=वित्तपाल।
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वित्तपाल  : पुं० [सं० वित्त√पाल् (पालन करना)+अच्] १. कुबेर। २. खजानची। ३. भंडारी।
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वित्तपुरी  : स्त्री० [सं० ष० त०] कुबेर की अलका नगरी।
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वित्त-मंत्री  : पुं० [सं० ष० त०] १. राज्य का वह मंत्री जो आय-व्यय वाले विभाग का प्रधान अधिकारी हो (फाइनान्स मिनिस्टर) २. किसी संस्था के आय-व्यय वाले विभाग का मंत्री। अर्थ-मंत्री।
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वित्त-वर्ष  : पुं० [सं०] वित्तीय वर्ष।
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वित्तवान् (क्तृ)  : वि० [सं०वित्त+मतुप्, म-व, नुम्] धनवान।
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वित्त-विधेयक  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक शासन में विधान सभा में आगामी वर्ष के लिए उपस्थित किया जानेवाला वह विधेयक जिसमें आय-व्यय संबंधी सभी मुख्य बातों का उल्लेख रहता है (फाइनान्स बिल)।
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वित्त-सचिव  : पुं० [सं०] वित्त मंत्री।
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वित्त-साधन  : पुं० [सं० ष० त०] आधुनिक शासन व्यवस्था में वे सब द्वार या साधन जिनसे राज्य, संस्था आदि को अर्थ या धन प्राप्त होता है (फ़ाइनान्सेज)।
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वित्तहीन  : वि० [सं० ष० त०] धन-हीन। निर्धन।
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वित्ति  : स्त्री० [सं० विद् (जानना)+क्ति] १. विचार। २. प्राप्ति। ३. लाभ। ४. ज्ञान। ५. संभावना।
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वित्तीय  : वि० [सं० वित्त+छ-ईय] १. वित्त-संबंधी। वित्त का। २. वित्त की व्यवस्था के विचार से चलने या होनेवाला (फ़ाइनान्सल)।
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वित्तीय-वर्ष  : पुं० [सं०] किसी देश की वित्तीय व्यवस्था की दृष्टि से नियत किया हुआ बारह महीनों का समय या वर्ष। जैसे—भारतीय वित्तीय वर्ष १ अप्रैल से ३१ मार्च तक होता है।
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वित्तेश, वित्तेश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] कुबेर।
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वित्त्व  : पुं० [सं० विद्+त्व] वेत्ता होने की अवस्था या भाव।
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वित्थार  : पुं०=विस्तार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वित्पन्न  : भू० कृ० [सं०] घबराया हुआ० व्याकुल। वि०=व्युत्पन्न।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वित्रप  : वि० [सं० ब० स०] निर्लज्ज। बेहया। बेशरम।
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वित्रास  : पुं० [सं० वि√त्रस् (काँपना)+घञ्]=त्रास (भय)।
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वित्रासन  : पुं० [सं० वि√त्रस्+णिच्+ल्युट-अन] [भू० कृ० वित्रासित] डराने की क्रिया। त्रासन। वि० डरावना। भयानक।
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वित्त  : स्त्री०=वृत्ति। पुं०=वृत्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वितंवादी  : वि० [सं० वि-सम्√वद् (कहना)+णिनि, दीर्घ, न-लोप] १. धोखा देनेवाला। २. वचन भंग करनेवाला। ३. खंडन करनेवाला। पुं० संगीत में वह स्वर जिसका वादी स्वर से मेल न बैठता हो।
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