शब्द का अर्थ
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शब :
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स्त्री० [फा०] रात। रात्रि। पद-शबोरोज=रात-दिन। |
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समानार्थी शब्द-
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शबदी :
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पुं० [सं० शब्द] १. शब्द। लफ्ज। २. किसी महात्मा के कहे हुए उपदेशात्मक पद या पद्य। जैसे—गुरु नानक की शबदी। |
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शबनम :
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स्त्री० [फा०] १. ओस। २. सफेद रंग का एक प्रकार का बढ़िया कपड़ा। |
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शबनमी :
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स्त्री० [फा] शबनम अर्थात् ओस से बचने के लिए ताना जानेवाला कपड़ा। |
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शबबरात :
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स्त्री० [फा०] हिजरी सन के शाबान माह की चौदहवीं रात। विशेष-इस दिन मुसलमान अपने मृत पूर्वजों के उद्देश्य से गरीबों को भोजन, बाँटते, उत्सव, मनाते दीपमालाएँ जलाते तथा आतिशबाजी छोड़ते हैं। |
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शबर :
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पु० [सं० श√वृ (वरण करना)+अच्] १. दक्षिण भारत में रहनेवाली एक जंगली या पहाड़ी जाति। २. जंगली आदमी। ३. शिव। ४. हाथ। ५. जल। ६. ऐसी सन्तान जो शूद्र भील के संयोग से उत्पन्न हुई हो। वि० चितकबरा। |
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शबरक :
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वि० [सं० शबर+कन्] [स्त्री० शबरिका] १. शबर लोगों में होनेवाला। २. जंगली। |
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शबर-चंदन :
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पुं० [सं० शबर+हिं० चंदन] एक प्रकार का चंदन जो लाल और सफेद दोनों मिले हुए रंगों का होता है। |
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शबरी :
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पुं० [सं० शबर+ङीष्] १. शबर जाति की नारी। २. रामायण में वर्णित शबर जाति की एक राम-भक्त स्त्री जिसने उन्हें चख चखकर जूठे बेर खिलाये थे। ३. बौद्ध तांत्रिकों की एक उपास्य नायिका जो बहुत दूर के किसी ऊँचे पर्वत पर रहनेवाली अबोध बालिका के रूप में मानी गई है। |
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शबल :
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वि० [सं० शप् (निन्दा करना)+वल्, प+ब] १. चितकबरा। २. रंगबिरंगा। ३. अनुकृत। पुं० १. कई रंगों को मिलाकर बनाया हुआ रंग। २. बौद्धों का एक प्रकार का धार्मिक कृत्य। ३. अगिया घास। ४. चित्रक। चीता। |
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शबलक :
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वि० [सं० शबल+कन्]=शबल। |
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शबलता :
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स्त्री० [सं० शबल+तल्+टाप्] शबल होने की अवस्था या भाव। रंग-बिरंगा होना। |
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शबलत्व :
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पुं० [सं० शबल+त्व]=शबलता। |
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शबला :
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स्त्री० [सं० शबल+टाप्] १. चितकबरी या बहुरंगी गौ। २. कामधेनु। |
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शबलित :
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भू० कृ० [सं० शबल+इतच्] १. चितकबरा। रंगबिरंगा। २. अनेक रंगों में रँगा हुआ। |
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शबली :
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स्त्री० [सं० शबल+ङीष्] शबला। (दे०) |
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शबाब :
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पुं० [अं०] १. यौवनकाल। युवावस्था। जवानी। २. उठती जवानी। ३. युवावस्था का सौन्दर्य। ४. सौन्दर्य। |
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शबाहत :
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स्त्री० [अ०] १. रूप। २. आकृति। सूरत। ३. अनुरूपता। समानता। |
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शबिस्तान :
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पुं० [फा०] १. बड़े आदमियों के सोने का कमरा। अंतःपुर। २. मसजिद में वह स्थान जहाँ रात को ईश्वर-प्रार्थना करते हैं। |
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शबीह :
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स्त्री० [अं०] १. वह चित्र जो किसी व्यक्ति की सूरत-शक्ल के ठीक अनुरूप बना हो। २. अनुरूपता। समानता। |
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शब्द :
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पुं० [सं०√शब्द+घञ्] १. किसी प्रकार के आघात के फल-स्वरूप वायु में होनेवाला ऐसा कंप जो कानों में पहुँचकर सुनाई पड़ता हो। आवाज। ध्वनि। (साउन्ड)। २. अक्षरों, वर्णों आदि से बना और मुँह से उच्चारित होने या लिखा जानेवाला वह संकेत जो किसी कार्य, बात या भाव का बोधक हो। सार्थक ध्वनि। लफ्ज (वर्ड)। ३. परमात्मा का मुख्य नाम ओम्। ४. साधु-संतों के ऐसे पद जिनमें निराकार का गुण कथन होता है। |
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शब्द-काम :
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वि० [सं०] [स्त्री० शब्द-कामा] जिसे बात-चीत करने का चस्का हो। बातें करने का शौकीन। बातरसिया। पुं० बातचीत में होनेवाली चुहलबाजी। |
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शब्दग्रह :
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पुं० [सं० शब्द√ग्रह+अच्] कान। वि० [सं०] शब्द अर्थात् ध्वनि या वर्ण ग्रहण करनेवाला। |
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शब्द-चातुर्य :
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पुं० [सं० प० त०] बातचीत करने का कौशल। |
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शब्द-चित्र :
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पुं० [ब० स०] १. अनुप्रास नामक अलंकार। २. चुने हुए शब्दों में किसी घटना या बात का किया जानेवाला सजीव वर्णन। ऐसी रचना जिसमें किसी घटना, बात आदि का सजीव वर्णन हो। |
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शब्द-चोर :
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पुं० [सं०] दूसरों की रचनाओं से शब्द, प्रयोग आदि उड़ा लेनेवाला। |
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शब्द-जाल :
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पुं० [सं० ष० त० ब० स०] कथन का वह रूप जिसमें कोई छोटी सी तथा सीधी-सी बात बहुत से तथा भारी-भारी शब्दों में घुमाफिरा कर कही गई हो। |
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शब्दत्व :
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पुं० [सं० शब्द+त्व] शब्द का धर्म या भाव। शब्दता। |
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शब्द-नृत्य :
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पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का नृत्य। |
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शब्द-पति :
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पुं० [सं० ष० त०] १. बातों का धनी। २. विशेषतः ऐसा व्यक्ति जो कहता तो बहुत कुछ हो परन्तु करता-धरता कुछ न हो। |
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शब्द-प्रमाण :
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पुं० [सं० कर्म० स०] मौखिक प्रमाण। आप्त प्रमाण। |
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शब्द-प्राश :
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पुं० [सं० ष० त०] शब्द के अर्थों का अनुसंधान। शब्दार्थ की जिज्ञासा। |
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शब्द-बोध :
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पुं० [सं० तृ० त०] किसी की कही हुई बातों मात्र से प्राप्त होनेवाला ज्ञान। |
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शब्द-ब्रह्म :
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पुं० [सं० मध्य० स०] १. परमात्मा या ब्रह्म का वह ब्रह्मा वाला रूप जिससे उसने सृष्टि की रचना की थी। २. योगिनों, साधकों आदि की परिभाषा में कुंडलिनी से ऊपर उठनेवाले नाद का वह रूप जो निरुपाधि दशा में रहता है। ३. ओंकार। प्रणव। ४. वेद। |
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शब्द-भेदी :
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पुं०=शब्दभेदी। |
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शब्दमहेश्वर :
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पुं० [सं० ष० त०] शिव। |
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शब्दयोनि :
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स्त्री० [सं० ष० त०] १. शब्द की उत्पत्ति। व्युत्पत्ति। २. जड़। मूल। पुं० ऐसा शब्द जो अपने आरंभिक या मूल रूप में हो विकृत न हुआ हो। |
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शब्द-विद्या :
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स्त्री० [सं० ष० त०] शब्द-शास्त्र। व्याकरण। |
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शब्दविरोध :
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पुं० [सं० ष० त०] शब्द-गत विरोध। विषयगत विरोध से भिन्न। |
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शब्दवेध :
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पुं० [सं० शब्द√विध् (मारना)+घञ्] किसी ऐसे चिन्ह या लक्ष्य पर तीर चलाना जो देखा तो न गया हो परन्तु जिससे या जिसका होता हुआ शब्द सुना गया हो। |
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शब्दवेधी (धिन्) :
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पुं० [सं० शब्द√विध् (वेधन करना)+णिनि] १. वह व्यक्ति जो बिना लक्षित किए ऐसे चिन्ह या लक्ष्य का वेधन करता हो जहाँ से कुछ शब्द हुआ हो। २. अर्जुन। |
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शब्दशः :
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अव्य० [सं०] १. जैसे शब्द हैं वैसे। २. शब्दावली के अनुसार। एक एक शब्द करके। |
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शब्द-शक्ति :
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स्त्री० [ष० त०] शब्द की वह शक्ति जो उसका अर्थ उद्घाटित करती है। ये तीन प्रकार की मानी जाती गई है।—अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। |
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शब्द-शास्त्र :
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पुं० [सं० ष० त० मध्य० स०] वह शास्त्र जिसमें भाषा के भिन्न भिन्न अंगों और स्वरूपों का विवेचन तथा निरूपण किया जाय। व्याकरण। |
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शब्द-शूर :
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पुं० [सं० स० त०] वह जो केवल बातें करने में अपनी बहादुरी दिखाता हो। |
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शब्द-साधन :
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पुं० [सं० ब० स०] व्याकरण का वह अंग या अध्याय जिसमें शब्दों की व्युत्पत्ति, रूपांतर आदि दिखलाया जाता है। |
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शब्द-सौष्ठव :
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पुं० [सं० ष० त०] किसी रचना का शब्द-गत सौन्दर्य। शब्दों के संकलन क्रम आदि से लक्षित होनेवाला सौन्दर्य। |
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शब्दाडंबर :
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पुं० [सं० ष० त०] १. साधारण बात कहने के लिए बड़े-बड़े शब्दों और जटिल वाक्यों का प्रयोग। शब्द-जाल (बाम्बाँस्ट) २. साहित्य में उक्त प्रकार की कोई ऐसी उक्ति जिसमें कोई विशेष चमत्कार न हो। जैसे—केवल अनुप्रास के विचार से कहना-का बलमा बलमा बलमा बलमा बलमा बलमा बलमा है। |
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शब्दातीत :
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वि० [सं० ब० स०] १. शब्द की जिस तक पहुँच न हो। जो शब्दों के परे हो। २. जो शब्दों में न कहा जा सके। अकथनीय। ३. ईश्वर का एक विशेषण। |
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शब्दानुशासन :
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पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण। |
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शब्दायमान :
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वि० [सं० शब्द+क्यङ्, शानच्, मुम्] शब्द करता हुआ। |
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शब्दार्थ :
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पुं० [सं० ष० त०] शब्द का अर्थ। |
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शब्दार्थी :
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स्त्री० [सं०] १. किसी अन्य भाषा के कुछ विशिष्ट शब्दों अथवा अपनी ही भाषा के कठिन या पारिभाषिक शब्दों की ऐसी सूची जिसमें उन शब्दों के अर्थ, पर्याय या व्याख्याएँ भी की गई हों। (ग्लासरी)। |
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शब्दालंकार :
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पुं० [सं० मध्य० स०] साहित्य में अलंकारों के दो मुख्य भेदों में से एक जिसमें शब्दों या उनके वर्णों का चमत्कार प्रधान होता है, अर्थों का नहीं। |
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शब्दावली :
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स्त्री० [सं० ष० त०] १. किसी बोली या भाषा में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों का समूह। २. किसी जाति, वर्ग संप्रदाय आदि में प्रचलित सब शब्दों का समूह (वोकेबुलरी)। ३. किसी वाक्य आदि के शब्दों का प्रकार तथा क्रम। ४. किसी विज्ञान या विषय में प्रयुक्त होनेवाले पारिभाषिक शब्दों की सूची, विशेषतः ऐसी सूची जो अक्षरक्रम में लगी हो और जिसके साथ उसके पर्याय या व्याख्याएँ भी दी गई हों (टर्मिनालाँजी) ५. दे० ‘शब्दार्थी’। |
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शब्देन्द्रिय :
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स्त्री० [सं० ष० त०] कान। |
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शब्बो :
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स्त्री० [फा०] रजनीगंधा नामक पौधा या उसका फूल। गुलशब्बो। |
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