शब्द का अर्थ
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संत :
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पुं० [सं० सत] १. साधु, सन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष। सज्जन और महात्मा। २. परम धार्मिक और साधु व्यक्ति। ३.साधुओं की परिभाषा में, वह सम्प्रदाय मुक्त साधु जो विवाह करके ग्रहस्थ बन गया हो। ४. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में २१ मात्राएँ होती हैं। वि० बहुत ही निर्मल और पवित्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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संतत :
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अव्य० [सं०] निरंतर। बराबर। लगातार। वि० १. फैला या फैलाया हुआ। विस्तृत। २. लगातार चलता या बना रहने वाला। जैसे—संतत ज्वर, संतत वर्षा। स्त्री०=संतति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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संतति :
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स्त्री० [सं०] १. फैलाव। विस्तार। २. किसी काम या बात का लगातार होता रहना। ३. बाल-बच्चे। संतान। औलाद। ४. प्रजा। रिआया। ५. गोत्र। ६. झुंड। दल। ७. मार्कंडेय पुराण के अनुसार ऋतु की पत्नी जो दत्त की कन्या थी। |
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संतति-होम :
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पुं० [सं० मध्यम० स०] एक प्रकार का यज्ञ जो संतान की कामना से किया जाता था। |
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संतपन :
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पुं० [सं० सम्√ तप् (तप्त होना)+ल्युट-अन] १. अच्छी तरह तपने या तापने की क्रिया या भाव। २. बहुत अधिक संताप या दुःख देना। |
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संतृप्त :
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भू० कृ० [सं०] १. बहुत अधिक तपा या जला हुआ। दग्ध। २. जिसे बहुत अधिक संताप या मानसिक कष्ट पहुँचा हो। ३. जिसका मन बहुत दुःखी हो। ४. थका हुआ। श्रान्त। ५. गला या पिघला हुआ। |
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संतरण :
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पुं० [सं० सम्√ तृ (तैरकर पार होना)+ल्यूट्—अन] १. अच्छी तरह से तैरने या पार होने की क्रिया या भाव। वि० १. तारने वाला। २. नष्ट करने वाला (यौं के अंत में ) |
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संतरा :
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पुं० [पुर्त० संगतरा] एक प्रकार का बड़ा और मीठा नीबू। बड़ी नारंगी। |
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संतरी :
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पुं० [अं० सेंटरी] १. किसी स्थान पर पहरा देने वाला सिपाही। पहरेदार। २. द्वारपाल। |
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संतर्जन :
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पुं० [सं०] [भू० कृ० संतर्जित] १. डाँट-डपट करना। डराना। धमकाना। २. कार्तिकेय का एक अनुचर। |
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संतर्पक :
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वि० [सं० सम√तृप् (तृप्त करना)+ण्वुल्-अक] संतर्पण करने वाला। |
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संतर्पण :
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पुं० [सं०] [कर्ता संतर्पक, भू० कृ० संतृप्त] १. अच्छी तरह तृप्त, प्रसन्न या संतुष्ट करने की क्रिया या भाव। २. आधुनिक विज्ञान में, कोई ऐसी प्रक्रिया जिससे (क) कोई घोल किसी वस्तु के अन्दर पूरी तरह से समा जाय; या (ख) कोई तत्व या वस्तु किसी दूसरे पदार्थ के अन्दर अच्छी तरह से भर जाय। |
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संतान :
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पुं० [सं०] १. स्त्री और पुरुष या नर और मादा के संयोग से उत्पन्न होने वाले उसी प्रकार या वर्ग के अन्य जीव आदि। २. बाल-बच्चे लड़के बाले। संतति। औलाद। ३. कुल। वंश। ४. विस्तार। फैलाव। ५. लगातार चलता रहने वाला क्रम। धारा। ६. प्रबंध। व्यवस्था। ७. कल्पतरु। ८. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। |
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संतान-गणपति :
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पुं० [सं०] पुराणानुसार एक विशिष्ट गणपति जो संतान देने वाले कहे गये हैं। |
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संतान-संधि :
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स्त्री० [सं०] राजनीति क्षेत्र में ऐसी संधि जो अपना लड़का या लड़की देकर की जाय। |
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संतानिक :
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वि० [सं० संताम+ठन्-इक] कल्पतरु के फूलों से बना हुआ। वि० संतान-संबंधी। संतान का। |
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संतानिका :
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स्त्री० [सं० संतानिक—टाप्] १. क्षीर सागर। २. फेन। ३. मलाई। ४. चाकू का फल। ४. एक तरह की घास। |
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संतानिनी :
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स्त्री० [सं० संताप+इनि-ङीप्] दूध या दही पर की मलाई। साढ़ी। वि० संतान अर्थात बाल-बच्चों वाली (स्त्री)। |
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संताप :
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पुं० [सं० सम्√तप् (तपना)+घञ] १. अग्नि धूप आदि का बहुत तीव्र ताप। आँच। २. शरीर में किसी कारण से होने वाली बहुत अधिक जलन। ३. ज्वर। बुखार। ४. शरीर में होने वाला दाह नामक रोग। ५. कोई ऐसा बहुत बड़ा कष्ट या दुःख जिससे मन जलता हुआ सा जान पड़े। बहुत तीव्र मानसिक क्लेश या पीड़ा। ६. दुश्मन। शत्रु। ७. पाप आदि करने पर मन में होने वाला अनुताप। |
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संतापन :
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पुं० [सं० सम्√तप् (तपाना)+णिच्-ल्यूट्—अन्] १. संताप देने या संतप्त करने की क्रिया। जलाना। २. किसी को बहुत अधिक कष्ट या दुःख देना। संतप्त करना। ३. एक हथियार। ४. काम देव के पाँच बाणों में से एक वि० संतप्त करने वाला। |
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संतापना :
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स० [सं० संतापन] संताप देना। बहुत अधिक दुःख देना। सताना। |
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संतापित :
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भू० कृ०[सं० सम्√ तप् (ताप पहुँचाना)+णिच्-क्त] जिसे बहुत संताप पहुँचाया गया हो। पीड़ित। संतप्त। |
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संतापी (पित्) :
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वि० [सं० सम्√ तप् (तप्त करना)+णिन्, संतापिन] संतप्त करने या दोष देनेवाला। |
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संताप्य :
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वि० [सं० सम्√ तप् (तपाना)+णिच्-ण्यत्] १. जलाये या तपाये जाने के योग्य। २. पीड़ित या संतप्त किये जाने योग्य। |
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संति :
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स्त्री० [सं०√ सनु (दान करना)+क्तिच्] १. दान। २. अन्त। समाप्ति। |
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संती :
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अव्य० [सं० संति?] १. बदले में। एवज में। स्थान पर। २. द्वारा। |
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संतुलन :
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पुं० [सं०] १. अच्छी तरह तौलने की क्रिया या भाव। २. तौलते समय तराजू के दोनों पलड़े बराबर या ठीक करना या होना। ३. लाक्षणिक अर्थ में, वह स्थिति जिसमें सभी अंग या पक्ष बराबर के तथा यथा स्थान हों (बैलेन्स)। |
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संतुलित :
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भू० कृ० [सं०] १. जिसका संतुलन हुआ हो। २. जिसमें दोनों पक्षों का बल या प्रभाव समान हो या रखा जाय। ३. न अधिक न कम। ठीक (बैलेन्सड)। |
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संतुष्ट :
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भू० कृ० [सं० सम्√तुष् (संतोष होना)+क्त] [भाव० संतुष्टि] १. जिसका संतोष कर दिया गया हो। जिसकी तृप्ति हो गई हो। तृप्त। २. समझाने बुझाने से राजी हो गया या मान गया हो। |
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संतुष्टि :
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स्त्री० [सं० सम्√तुष् (तुष्ट होना)+क्तिज] १. संतुष्ट होने की क्रिया या भाव। पृप्ति २. संतोष। ३. प्रसन्नता। |
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संतूर :
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पुं० [कश्मी०] शत-तंत्री वीणा का कश्मीरी नाम। |
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संतोख :
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पुं०=संतोष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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संतोष :
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पुं० [सं० स०√तुष् (संतोष करना)+घञ] १. वह मानसिक अवस्था जिसमें व्यक्ति प्राप्त होने वाली वस्तु को यथेष्ट समझता है और उससे अधिक की कामना नहीं रखता है। २. वह अवस्था जिसमें अभीष्ट कार्य होने या वांछित वस्तु प्राप्त होने पर क्षोभ मिट जाता है। और फलतः कुछ अवस्थाओं में हर्ष भी होता है। जैसे—मजदूरों की माँगें पूरी हो जाने पर ही संतोष होगा। तृप्ति। ३. हर्ष। आनन्द। ४. धैर्य। |
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संतोषक :
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वि० [सं० संतोष+कन्] १. संतुष्ट करने वाला। २. प्रसन्न करने वाला। |
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संतोषण :
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पुं० [सं० सम्√ तुष् (संतोष होना)+ल्युटु-अन] १. संतोष करने की क्रिया या भाव। २. संतुष्ट करने की क्रिया भाव। |
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संतोषणीय :
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पुं० [सं० सम्√ तुष् (संतोष होना)+अनीयर] जिससे या जितने में संतोष हो सके। |
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संतोषना :
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अ० [सं० संतोष] १. संतोष होना। २. संतुष्ट होना। स० १. संतोष करना। २. संतुष्ट करना। |
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संतोषी (षिन्) :
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वि० [सं० सम्√तुष् (प्रसन्न रहना)+णिनि] (व्यक्ति) जो प्राप्त होने वाली वस्तु को यथेष्ट समझता होता हो और उसी में संतुष्ट रहता हो। |
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संतोष्य :
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वि० [सं० सम्√तुष् (संतोष करना)+यत्] जिसका संतोष करना या जिसे संतुष्ट करना आवश्यक या उचित हो। |
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संत्रस्त :
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भू० कृ० [सं०] १. जिसे बहुत संताप हुआ हो। २. बहुत डरा हुआ। ३. भय से काँपता हुआ। |
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संत्रास :
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पुं० [सं० सम√त्रस् (भयभीत होना)+घञ] १. बहुत अधिक या तीव्र त्रास। २. आतंक। |
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संत्री :
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पुं०=संतरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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