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संस  : पुं०=संशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसइ  : पुं०=संशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसक्त  : भू० कृ० [सं०] १. किसी के साथ मिला, लगा या सटा हुआ। (कान्टिगुअस) २. जुड़ा हुआ। सम्बद्ध। ३. किसी कार्य में लगा हुआ या प्रवृत्त। ४. किसी के प्रेम में फँसा हुआ। आसक्त। ५. सांसारिक विषय वासना में लगा हुआ। ६. प्रतियोगिता, युद्ध, विवाद आदि में किसी से भिड़ा हुआ। ७. युक्त। सहित। ८. घना। सघन।
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संसक्ति  : स्त्री० [सं०] [विसक्त] १. किसी के साथ सटे या लगे होने का भाव। (कन्टीगुइटी) २. एक ही तरह के पदार्थो या तत्वों का आपस में मिल या सटकर एक रूप होना। ३. वह शक्ति जिससे वस्तु के सब अंग एक साथ लगे या सटे रहते हैं। (कोहेशन) ४. संबंध। लगाव। ५. विषय अनुराग या आसक्ति। लगन। ६. लीनता। प्रवृत्ति।
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संसगर  : वि० [सं० शस्य=अन्न, फसल+आगार] १. (भूमि) जिसमें पैदावार अधिक हो। उपजाऊ। उर्वर। २. लाभ-दायक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसज्जन  : पुं० [सं० सम्√सज्ज् (तैयार होना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसज्जित] १. अच्छी तरह सजाने की क्रिया या भाव। २. आज-कल युद्ध आदि के लिए सैनिक एकत्र करने और उन्हे अस्त्र शस्त्र आदि से पूर्णतः युक्त करने की क्रिया। (मोबिलाइजेशन)
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संसद  : स्त्री० [सं०] १. समाज। सभा। मंडली। २. किसी विशेष कार्य के लिए संगठित बहुत से लोगों का निकाय या समुदाय। (एसोसिएशन) ३. आज-कल राज्य शासन संबंधी कार्यों में सहायता देने, पुराने विधानों में संशोधन करने तथा नये विधान बनाने के लिए प्रजा के प्रतिनिधियों की चुनी हुई सभा। (पार्लमेंट) ४. प्राचीन भारत में (क) राज-सभा। (ख) न्याय सभा। ५. एक प्रकार का यज्ञ जो २४ दिनों में पूरा होता है।
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संसदीय  : वि० [सं० संसद] संसद संबंधी। सांसद।
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संसय  : पुं०=संशय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसरण  : पुं० [सम्√सृ (गमनादि)+ल्युट्—अण] [वि० संसरणीय, संसरित, संसृत] १. आगे की ओर खिसकना या बढ़ना। सरकना। २. गमन करना। चलना। ३. सेना या सैनिकों का बिना बाधा के आगे बढते चलना। ४. एक जीवन त्यागकर दूसरा नया जन्म लेना। ५. बहुत दिनों से चला आया हुआ मार्ग या रास्ता। ६. जगत्। संसार। ७. युद्ध का आरंभ। ९. लड़ाई छिड़ना। १॰. प्रचीन भारत में, नगर के मुख्य द्वार के बाहर बना हुआ वह स्थान जहाँ फाटक बंद हो जाने के बाद आये हुए यात्री रात के समय ठहरा करते थे।
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संसर्ग  : पुं० [सं०] १. ऐसा लगाव या संबंध जो पास या सात रहने से उत्पन्न होता है। (कन्टैक्ट) जैसे—(क) संसर्ग से ही गुण और दोष उत्पन्न होते हैं। (ख) यह रोग संसर्ग से ही फैलता है। २. व्यवहारिक घनिष्ठता। मेल-जोल। ३. संपर्क। संबंध। ४. किसी के साथ रहने की क्रिया या भाव। सहवास। ५. मैथुन। संभोग। ६. संपत्ति का ऐसी स्थिति में होना कि परिवार के सब लोगो का उस पर समान अधिकार हो। ७. वैद्यक में बात, पित्त, और कफ में से दो का एक साथ होने वाला प्रकोप या विकार। ८. वह बिन्दु जहाँ एक रेखा दूसरी को काटती हो।
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संसर्गज  : वि० [सं०] १. संसर्ग से उत्पन्न होने वाला। २. (रोग) जो किसी को छूने से उत्पन्न होता है। छुतहा। (इन्फैक्सस) विशेषः संक्रामक और संसर्गज रोगो में अंतर यह है कि संक्रामक रोग तो पानी, हवा आदि के द्वारा भी फैलते हैं, परंतु संसर्गज रोग केवल रोगी के संसर्ग में रहने अथवा उसे छूने मात्र से उत्पन्न होते हैं। अर्थात संसर्गज रोग तो केवल प्रत्यक्ष संबंध से उत्पन्न होतो हैं ,परंतु संक्रामक रोग अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनो रूपों में फैलते हैं।
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संसर्ग-दोष  : पुं० [सं०] वप दोष या बुराई जो किसी संसर्ग से उत्पन्न हो।
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संसर्ग-रोध  : पुं० [सं०] १. ऐसी अवस्था जो किसी स्थान को संक्रामक रोगो आदि से बचाने के लिए बाहर से आने वाले लोगों को कुछ समय तक कहीं अलग रख कर की जाती है। २. उक्त कार्य के लिए अलग या नियत किया हुआ स्थान। (क्वारेनेटाइन)
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संसर्ग-विद्या  : स्त्री० [ष० त०] लोगों से मेल जोल पैदा करने की कला। व्यवहार-कुशलता।
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संसर्गाभाव  : पुं० [ष० त०] १. संसर्ग का आभाव। संबंध का न होना। २. न्यायशास्त्र में आभाव का वह प्रकार या भेद जो संसर्ग न रहने की दशा में माना जाता है। जैसे—यदि घर में घड़ा न हो तो वह संसर्गाभाव माना जायगा। क्योंकि घर में न होने पर भी कहीं बाहर तो घड़ा होगा ही।
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संसर्गी  : वि० [संसर्ग+इति, सम्√सृज (छोड़नादि)+धिनुण वा] [स्त्री० संसर्गिनी] १. संसर्ग या लगाव रखने वाला। २. प्रायः या सदा साथ रहने वाला। संगी। साथी० पुं० धर्मशास्त्र आदि के अनुसार वह जो पैतृक सम्पत्ति का विभाग हो जाने पर भी कुटुम्बियों आदि के साथ रहता हो।
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संसर्जन  : पुं० [सम्√सृज (देना आदि)+ल्युट्—अन] [वि० संसर्जनीय, संसर्ज्य, भू० कृ० संसर्जित] १. संयोग होना। मिलना। २. जुड़ना या सटना। ३. अपनी ओर मिलाना। ४. त्याग करना। छोड़ना।
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संसर्प  : पुं० [सम्√सृप (धीरे चलना)+घञ] १. रेंगना। २. खिसकना। सरकना। ३. ज्योतिष में चन्द्र गणना के अनुसार वह अधिक भाग जो किसी छय मास वाले वर्ष में पड़ता है।
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संसर्पण  : पुं० [सं०√सृप् (धीरे चलना)+ल्युट्—अन] [वि० संसर्प-णीय, भू० कृ० संसर्पणीय] १. धीरे-धीरे आगे की और चलना या बढना। २. खिसकना या रेंगना। ३. उक्त प्रकार या रूप से ऊपर की ओर बढ़ना या चढ़ना। ४. सहसा आक्रमण करना। अकस्मात हमला करना।
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संसर्पी  : वि० [संसर्प+इनि, सम√सृप् (धीरे चलना)+णिनि वा] १. संसर्पण करने वाला। २. वैद्यक में पानी में तैरने या उतरने वाला।
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संसा  : पुं० १. =संशय। २. =साँस। ३. =सँड़सा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसादन  : सं० सम्√सद् (गत्यादि)+णिच्-ल्युट्—अन] [वि० संसादनीय, संसाद्य, भू० कृ० संसादित] १. इकट्ठा करना या एकत्र करना। जमा करना० २. क्रम या सिलसिले से रखना या लगाना।
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संसाधक  : वि० [सम्√साध् (सिद्ध करना)+ल्युट्-अक] जीतने या वश में करने वाला।
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संसाधन  : पुं० [सम्√साध् (सिद्ध करना)+ल्युट्-अन] [वि० संसाधनीय, संसाध्य, भू० कृ० संसाधित] १. कोई काम अच्छी तरह पूरा करना। २. काम करने की तैयारी। आयोजन। ३. जीत या दबाकर वश में करना। दमन करना।
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संसाधनीय  : वि० सम्√साध् (सिद्ध करना)+अनीयर्] =संसाध्य।
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संसाध्य  : वि० सम्√ साध् (सिद्ध करना)+ण्यत] १. जो काम पूरा किया जा सकता हो या हो सकता हो। २. जो जीता या दबाया जा सकता हो। ३.जो किये जाने योग्य हो। ४.जो जीते या दबाये जाने योग्य हो।
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संसार  : पुं० [सं०] १. लगातार एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाते रहना। २. यह जगत या दुनिया जिसमें जीव या प्राणी आते जाते रहते है। इहलोक। मर्त्यलोको। ३. इस संसार में बार-बार जन्म लेने और मरने की अवस्था। ४. जीवन तथा संसार का प्रबंध और माया। ५. घर-गृहस्थी और उसमें का जीवन। उदा—मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा।—प्रसाद। ६. समूह। (क्व०) ७. दुर्गन्ध खादिर। विट् खादिर।
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संसार-गुरु  : पुं० [सं०] १. संसार को उपदेश देने वाला। जगदगुरु। २. कामदेव।
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संसार-चक्र  : पुं० [मध्यम० स०] १. बार-बार इस संसार मे आकर जन्म लेने और मर कर यह संसार छोड़ने का क्रम या चक्र। २. संसार का जंजाल या झंझट। सांसारिक प्रपंच। ३. संसार में होता रहने वाला उलटफेर या परिवर्तन।
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संसारण  : पुं० सम्√सृ (गमनादि)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसारित] गति देना। चलाना।
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संसार-तिलक  : पुं० [सं० ष० त०] १. एक प्रकार का बढिया चावल।
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संसार-पथ  : पुं० [ष० त०] १. संसार में आने का मार्ग। २. स्त्रियो की जननेंद्रिय। भग। योनि।
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संसार-भावन  : पुं० [सं०] संसार को दुखमय समझना।
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संसार-सारथि  : पुं० [सं०] संसार की जीवन यात्रा चलाने वाला, परमेश्वर। २. शिव।
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संसारी  : वि० सम्√सृ (गत्यादि)+णिन् संसार+इनि वा] [स्त्री० संसारिणी] १. संसार संबंधी। लौकिक। सांसारिक। २. घर में रहकर घर-गृहस्थी चलाने या ग्रहस्थ जीवन व्यतीत करने वाला। ३. संसार में आकर बार-बार जन्म लेने और मरने वाला। ४. लोक व्यवहार मे कुशल। दुनियादार।
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संसिक्त  : भू० कृ० [सम्√सिच (सींचना)+क्त] अच्छी तरह सींचा हुआ। जिस पर खूब पानी छिड़का गया हो।
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संसिद्ध  : वि० [सम्√सिध् (पूरा करना)+क्त] १. (काम) जो अच्छी तरह किया गया हो या ठीक तरह से पूरा उतरा हो। २. (खाद्य पदार्थ) जो अच्छी तरह सीझा या पका हो। ३. प्राप्त। लब्ध। ४. निरोग। स्वस्थ। ५. उदयत्। प्रस्तुत। ६. कुशल। दक्ष। निपुण। ७. जिसनें योग साधन करके सिद्धि प्राप्त कर ली हो।
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संसिद्धि  : स्त्री० [सम्√सिध् (पूरा करना)+क्तिन] १. प्रसिद्ध होने की अवस्था या भाव। २. सफलता। ३. पक्वता। ४. पूर्णता। ५. स्वस्थता। ६.परिणाम। ७. मुक्ति। ८. अवश्य और निश्चित होने वाली बात। ९. निसर्ग। प्रक्रति। १॰. स्वभाव। ११. मगमत्त स्त्री।
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संसी  : स्त्री०=सँड़स।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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संसुप्त  : भू० कृ० [सम्√सुप् (शयन करना)+क्त] गहरी नींद में सोया हुआ।
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संसुप्ति  : स्त्री० [सं०] गहरी नींद।
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संसूचक  : वि० [सम्√सूच् (सूचना देना)+णिच्—णवुल्—अक स्त्री० संसूचिका] १. प्रकट करने या जताने वाला। २. भेद या रहस्य बतलाने वाला। ३.समझाने बुझानेवाला। ४. डाँटने डपटने वाला।
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संसूची  : वि० [सम्√ सूच् (सूचना देना)+णिनि] [स्त्री० संसूचनी]=संसूचक।
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संसूच्य  : वि० [सम्√सूच् (सूचना देना)+ण्यत] जिसके संबंध में या जिसके प्रति संसूचन हो सके। संसूचन का अधिकारी या पात्र। पुं० दे० ‘सूच्य’। (नाटक का)
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संसृति  : स्त्री० [सम्√सृ (गत्यादि)+क्तिन] १. संसार में बार-बार जन्म लेने की परम्परा। आवागमन। २. जगत। संसार।
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संसृष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. जो एक साथ उत्पन्न या अविर्भूत हुए हों। २. जो आपस में एक दूसरे से मिलें हो। संश्लिष्ट। ३. परस्पर संबद्ध। ४. जो किसी के अंतर्गत अंतर्भूत हों। ५. बहुत आधिक हिला मिला हुआ। बहुत मेल जोल वाला। ६. (काम) पूरा या सम्पन्न किया हुआ। ७. इकट्ठा किया हुआ। संग्रहित। ८. वैद्यक में, (रोगी) जिसका पेट वमन, विरेचन आदि के द्वारा साफ कर दिया गया हो। ९. धर्मशास्त्र में (परिवार) बँटवारा हो चुकने के बाद भी मिलकर एक हो गये हों। पुं० १. घनिष्ठता। हेल-मेल। २. एक पौराणिक पर्वत।
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संसृष्टत्व  : पुं० [सं० संसृष्ट+त्व] १ संसृष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव। २. संपत्ति का बँचवारा हो के बाद फिर हिस्सेदारों का एक में मिलकर रहना। (समृति)
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संसृष्ट-होम  : पुं० [सं०] अग्नि और सूर्य को एक साथ दी जाने वाली आहुति।
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संसृष्टि  : स्त्री० [सम० सम्√सृज (बना)+क्तिव+षत्व स्टुत्व] १. सृसष्ट होने की अवस्था, गुण या भाव। २. घनिष्ठता। हेल-मेल। ३. मिलावट। मिश्रण। ४. लगाव। संबंध। ५. बनावट। रचना। ६. संग्रह। ७. धर्म-शास्त्र में बँटवारा या विभाजन हो जाने पर भी परिवारों का फिर मिलकर एक हो जाना। ८. साहित्य में, दो या अधिक काव्यालंकारों का इस प्रकार संसृष्ट होना। या साथ-साथ हो जाना। कि वे सब अलग-अलग दिखाई दें। इसकी गणना एक स्वतंत्र अलंकार के रूप में होती है।
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संसृष्टि (ष्टिन)  : पुं० [सं० सृष्ट+इनि] धर्मशास्त्र में, ऐसे परिवार या संबंधी जो विभाजन हो चुकने पर भी मिलकर एक हो गये हों।
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संसेक  : पुं० [सं० सम्√सिच् (सींचना)+घञ] अच्छी तरह किये जाने वाला पानी आदि का छिड़काव।
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संसेचन  : पुं० [सं०] संभोग के समय नर की वीर्य मादा के अंड में मिलना जो प्रजनन के लिए आवश्यक होता है। (इन्सेमिनेशन) विशेष—अब यह क्रिया रासायनिक पद्धतियों में भी होने लगी है।
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संसेवन  : पुं० [सं० सम्√सेव् (सेवा करना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसेवित, वि० संसेवनीय, संसेव्य] १. अच्छी तरह की जाने वाली सेवा। २. सदा सेवा में उपस्थित रहने की क्रिया या भाव। ३. अच्छी तरह किया जाने वाला उपयोग या व्यवहार। ४. अच्छी तरह किया जानेवाला आदर-सत्कार।
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संसेवा  : स्त्री० [सं० सं√सेव् (सेवा करना)+अ]=संसेवन।
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संसेवित  : भू० कृ० [सं० सम्√सेव् (सेवा करना)+क्त] जिसका अच्छी तरह से संसेवन किया हो। अथवा हुआ हो। उदा—सुरांगना, संपदा, सुराओं से संसेवित, नर पशुओ भूभार मनजता जिनसे लज्जित।—पन्त।
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संसेवी (विन्)  : वि० [सं०,सम्√सेव् (सेवा करना)+णिनि] संसेवन करने वाला। पुं० टहलुआ। खिदमतगार।
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संसेव्य  : वि० [सं० सम्√सेव् (सेवा करना)+यत] जिसका संसेवन हो सकता हो आवश्यक या उचित हो।
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संसौ  : पुं० [पुं० [स० श्वास] १. श्वास। साँस। २. जीवनी। शक्ति। प्राण। पुं०=संशय।
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संस्करण  : पुं० [स० सम्√कृ (करना)+ल्यिट-अन-सुट्] १. संसकार करने की क्रिया या भाव। २. अच्छी तरह ठीक, दुरुस्त या शुद्ध करना। सुधारना। ३. अच्छा, नया और सुंदर रूप देना। ४. द्विजातियों के लिए विहित संस्कार करना। ५. आज-कल पुस्तकों, समाचार-पत्रों आदि की एक बार में और एक तरह की होने वाली छपाई। आवृत्ति (एडिशन) जैसे—(क) पुस्तक का राज संस्करण, (ख) समाचार-पत्र का प्रातः संस्करण।
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संस्कर्ता  : वि० [सं० सम्√कृ (करना)+तृच्-सुट्] संस्कार करने वाला।
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संस्कार  : पुं० [सं०] १. किसी चीज को ठीक या दुरुस्त करके उचित रूप देने की क्रिया। जैसे—व्यारकण में होने वाला शब्दो का संस्कार। २. किसी चीज की त्रुटियाँ, दोष, विकार आदि दूर करके उसे उपयोगी तथा निर्मल बनाने की क्रिया। जैसे—वैद्यक में होने वाला पारे का संस्कार। ३. किसी प्रकार की असंगति, भद्दापन आदि दूर करके उसे शिष्ट और सुन्दर रूप देने की क्रिया। जैसे—भाषा का संस्कार। ४. धो-पोंछ या माँजकर की जाने वाली सफाई। जैसे—शरीर का संस्कार। ५. किसी को उन्नत, सभ्य, समर्थ आदि बनाने के लिए कुछ बताने, सिखाने या अच्छे मार्ग पर लाने की क्रिया। जैसे—बुद्धि का संस्कार। ६. मनो-वृत्ति, स्वभाव आदि का परिष्करण तथा संशोधन करने की क्रिया। (कल्चर) ७. उपदेश, शिक्षा, संगीत, आदि के प्रभाव का वह बहुत कुछ स्थाई परिणाम जो मन में अज्ञात अथवा ज्ञात रूप से बना रहता है और हमारे परिवर्ती आचार व्यवहार, रहन-सहन आदि का स्वरूप स्थिर करता है। जैसे—बाल्यावस्था का संस्कार, देश समाज आदि के कारण बनने वाला संस्कार। ८. भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में, इंद्रियों के विषय भोगसे मन पर पड़ने वाला संस्कार। ९. धार्मिक क्षेत्र में पूर्वजन्मो के लिए हुए आचार-व्यवहार, पाप-पुण्य आदि का आत्मा पर पड़ा हुआ वह प्रभाव जो मनुष्य के परिवर्ती जन्मों में से उसके कार्यों, प्रवृत्तियों, रुचियों आदि के रूप में प्रकट होता है। १॰. सामाजिक क्षेत्र में, धार्मिक दृष्टि से किया जाने वाला कोई ऐसा कृत्य जो किसी से कोई पात्रता अथवा योग्यता उत्पन्न करने वाला माना जाता हो और उसका कुछ विशिष्ट अवसरों के लिए विधान हो। (सेक्रामेंट) जैसे—(क) जातिच्युत या विधर्मी को जाति या धर्म में मिलाने के लिए किया जाने वाला संस्कार। (ख) मृतक का अन्त्येष्टि संस्कार। ११. हिंदुओं में, जन्म से मरण तक होने वाले वे विशिष्ट धार्मिक कृत्य जो द्विजातियो के लिए विहित हैं। जैसे—मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कार। (रिचुअल राइट) विशेष—मनुस्मृति में, नाम-कर्म, निष्क्रमण, अन्नप्रशन, चूड़ा-कर्म, उपनयन, केशांत, समावर्तन और विवाह। परवर्ती स्मृतिकारों इनमें चार और संस्कार बढ़ाकर इनकी संख्या १६ करदी है। परंतु इन नये संस्कारों के नामों के संबंध में उनके मत भेद हैं। १२. वैशेशिक दर्शन में गुण का वह धर्म जिसके कारण या फलस्वरूप वह अपने आपको अभिव्यक्त करता है। १३. अन्न आदि कूट पीसकर पकाने और उन्हे खाद्य बनाने की क्रिया। १४. स्मरण शक्ति। १५. अलंकरण। सजावट। १६. पत्थर आदि का वह टुकड़ा जिससे रगड़कर कोई चीज साफ की जाती हो। जासे०—पैर के तलुओं के रगड़ने का झाँवाँ।, धातुएँ चमकाने के लिए पत्थर की बटिया आदि।
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संस्कारक  : वि० [सं०] संस्कार करने वाला।
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संस्कारवर्जित  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जिसका धर्म शास्त्र के अनुसार संस्कार न हुआ हो। व्रात्य।
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संस्कारवान (वत्)  : वि० [सं० संस्कार+मतुप्-म=व-नुम् दीर्घ] १. जिसका संस्कार हुआ हो। २. जिसपर किसी संस्कार का प्रभाव दिखाई देता हो। ३. सुन्दर।
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संस्कारहीन  : वि० [सं०] (व्यक्ति) जिसका धर्म शास्त्र के अनुसार संस्कार हुआ हो। व्रात्य।
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संस्कार्य  : वि० [सं० सं√कृ (करना)+ण्यत] १. जिसका संस्कार हो सकता हो। २. जिसका संस्कार होना आवश्यक या उचित हो।
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संस्कृत  : वि० [सम्√कृ (करना)+क्त—सुट्] [भाव० संस्कृति] १. जिसका संस्कार किया गया हो। २. परिमार्जित। परिष्कृत। ३. निखारा और साफ किया हुआ। ४. (खाद्य पदार्थ) पकाया सिझाया हुआ। ५. ठीक किया या सुधारा हुआ। ६. अच्छे रूप में लाया हुआ। सँवारा या सजाया हुआ। ७. जिसका उपनयन संस्कार हो चुका हो। स्त्री० भारतीय आर्यों की प्राचीन साहित्यिक और शिष्ट समाज की भाषा जो जन साधारण की बोलचाल की तत्कालिक प्राकृत भाषा को परिमार्जित करके प्रचलित की गई थी। देव-वाणी। विशेष—इस भाषा के दो मुख्य रूप हैं—वैदिक और लौकिक। पाणिनी नें अपने व्याकरण के द्वारा इसे एक और निश्चित और परिनिष्ठित रूप दिया था।
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संस्कृति  : स्त्री० [सं० सम्√कृ (करना)+क्तिन्-सुट्] [वि० सांस्कृतिक] १. संस्कार करने अर्थात किसी वस्तु को संस्कृत रूप देने की क्रिया या भाव। परिमार्जित, शुद्ध या साफ करना। संस्कार। २. अलंकृत करना। सजाना। ३. आज-कल किसी समाज की वे सब बातें जिनसे विदित होता है कि उसने आरंभ से अब तक कुछ विशिष्ट क्षेत्र में कितना उन्नति की है। विशेष—आधुनिक विद्वानों के मत से संस्कृति भी सभ्यता का ही दूसरा अंग या पक्ष है। सभ्यता मुख्यता आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक सिद्धियो से संबद्ध है, और संस्कृति आध्यातमिक, बौद्धिक तथा मानसिक सिद्धियों से संबद्ध है। यह संस्कृति कला, कौशल के क्षेत्र की उन्नति के आधार पर आँकी जाती है। सभ्यता मानव समाज की बाह्य और भौतिक सिद्धियों की मापक है, और संस्कृति लोगो के आंतरिक तथा मानसिक उन्नति की परिचायक होती है। इसी लिए सभ्यता समाजगत और संस्कृति मनोगत है। ४. छंदशास्त्र में २४ वर्णो वाले वृत्तों की संज्ञा।
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संस्कृतीकरण  : पुं० [सं०] १. कोई चीज संस्कृत करने की क्रिया या भाव। २. अन्य भाषा के शब्दों को संस्कृत रूप देना।
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संस्क्रिया  : स्त्री० [सं० सम्√कृ (करना)+श्-यक-रिपङ-रिङ् बा] संस्कार।
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संस्खलन  : पुं० [सं० सम√स्खल् (गिरना+ल्युट्-अन] १. गति का सहसा होने वाला रोध। एक बारगी रुक जाना। २. निश्चेष्ठता। ३. स्तब्धता। ४. लकवा या इसी प्रकार का कोई ऐसा रोग जिसमें कोई अंग बेकार या सुन्न हो जाता हो। ५. दृढता। ६. धीरता। ७. जिद। हठ। ८. आधार। सहारा।
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संस्तंभन  : पुं० [सं०] [वि० संस्तब्ध, संस्तंभनीय, संस्तंभित] १. गति का सहसा रुकना या रोकना। एकबारगी ठहर जाना। २. निश्चेष्ठता या संतब्ध करना या होना। ३. सहारा देना या लेना।
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संस्तंभी (भिन्)  : वि० [सं० सम्√स्तभ्भ् (रुकना)+क्त=ध-भ्-म लोप] १. एकबारगी रुका या ठहरा हुआ। २. निश्चेष्ट। स्तब्ध। ३. सहारा देकर रोका हुआ।
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संस्तर  : पुं० [सं० सम्√स्तृ (रुकना)+अच्] १. तह। परत। २. घास-फूस आदि की चटाई या बिछौना। ३. घास-फूस आदि का छप्पर। ५. जलाशय या नदी का नीचे वाला भू-भाग। तल। ६. भू-गर्भ में, कोई ऐसी तह या परत जो एक ही तरह के तत्व या पदार्थ की बनी हो, अथवा किसी विशिष्ट काल में जमी हो। (बेड) जैसे—कोयले का संस्तर, चूने का संस्तर आदि।
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संस्तरण  : पुं० [सं० सम्√स्तृ (आच्छादन करना)+ल्युट्-अन] १. फैलाना। पसरना। २. बिछौना। बिछावन। ३.छितराना। बिखेरना। ४. तह या परत चढ़ना। ५. बिछौना। बिस्तर।
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संस्तव  : पुं० [सं०] १. प्रशंसा। स्तुति। तारीफ। २. उल्लेख। कथन। जिक्र। ३. जान-पहिचान। परिचय। ४. घनिष्ठता। हेल-मेल।
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संस्तवन  : पुं० [सं० सम्√स्तु (प्रशंसा करना)+ल्युट—अन] १. प्रशंसा करना। स्तुति करना। २. कीर्ति या यश का गान करना। ३.आज-कल किसी की प्रशंसा करते हुए उसके सम्बन्ध में यह कहना कि यह अमुख (काम, बात या सेवा के लिए उपयुक्त और योग्य है। (कॉमेन्डेशन)
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संस्तार  : पुं० [सं०] १. तह। परत। २. बिछौना। बिस्तर। ३. खाट या पलंग। शय्या। ४. एक प्रकार का यज्ञ।
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संस्ताव  : पुं० [सं० सम्√स्तु (स्तुति करना)+घञ] १. यज्ञ में सतुति करने वाले ब्राह्मणों के बैठने का स्थान। २. प्रशंसा। स्तुति। ३. जान-पहचान। परिचय।
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संस्ताव्य  : वि० [सम्√स्तु (प्रशंसा करना)+विच्+यत्] प्रशंसनीय। जिसका या जिसके संबंध में संस्तवन हो सकता हो। (कॉमेंडेबिल)
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संस्तीर्ण  : वि० [सं० सम्√स्तृ (आच्छादन)-कु-रु-दीर्घ] १. फैलाया या पसारा हुआ। २. बिछाया हुआ। ३. छिटकाना या बिखेरा हुआ। ४. ढका या छिपाया हुआ।
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संस्तुत  : वि० [सं० सम्√स्तु (सतुति करना)+क्त] १. जिसकी खूब प्रशंसा या स्तुति की गई हो। २. साथ में गिना हुआ। ३. जाना हुआ। ज्ञात। ४. परिचित।
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संस्तुति  : स्त्री० [सं० सम्√स्तु (स्तुति करना)+क्तिन] १. अच्छी या पूरी तरह से होने वाली तारीफ या स्तुति। २. अनुशंसा। सिफारिश। (रिकमेन्डेशन)
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संस्तृत  : भू० कृ० [सं० सम्√स्तृ (आच्छादन करना)+क्त]=संस्तीर्ण।
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संस्थ  : पुं० [सं० सं√स्था (ठहरना)+क] १. अपने देश का निवास। स्वदेश वासी। २. चर। दूत।
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संस्था  : स्त्री० [सं०] १. ठहरने की क्रिया या भाव। ठहराव। स्थति। २. प्रकट होने की क्रिया या भाव। अभिव्यक्ति। आविर्भाव। ३. बँधा हुआ नियम, मर्यादा या विधि। रुढि। ४. आकृति। रूप। ५. गुण। सिफत। ६. कोई काम, चीज या बात ठिकाने लगाने की क्रिया। आवश्यक या उचित परिणाम तक पहुँचना। ७. अंत। समाप्ति। ८. मृत्यु। मौत। ९. धवंस। नाश। १॰. वध। हिंसा। ११. प्रलय। १२. यज्ञ का मुख्य अंग। १३.गुप्तचरों या भेदियों का दल या वर्ग। १४. पेशा। व्यवसाय। १५. गिरोह। जत्था। दल। १६. राजाज्ञा। फरमान। १७. समानता। सादृश्य। १८. समाज। १९. आज-कल कोई संघठित वर्ग, समाज या समूह। (बॉडी) २॰. किसी विशिष्ट सामाजिक या सार्वजनिक कार्य की सिद्धी के उद्देश्य से संघठित मंडल या समाज। २१. व्यवसायिक दृष्टि से कुछ विशिष्ट नियमों सिद्धांतो के अनुसार काम करने वाला कोई संधठित दल, वर्ग या समाज। (सोसाइटी) जैसे-सहकारी संस्था। २२ राजनीतिक या सामाजिक जीवन से संबंध रखने वाला कोई नियम, विधन या परम्परागत प्रथा जो किसी समाज में समान रूप से प्रचलित हो। (इन्स्टिच्यूशन) जैसे—हिंदुओं में विवाह धार्मिक संस्था है, आन्यान्य जातियो की तरह मात्र सामाजिक समझौता नहीं।
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संस्थान  : [सं०] १. ठहराव। स्थिति। २. बैठाना। स्थापन। ३. अस्तित्व। ४. देश। ५. सर्व-साधारण के इकट्ठे होने का स्थान। ६. किसी राज्य के अंतर्गत जागीर आदि। ७. साहित्य, विज्ञान, कला आदि की उन्नति के लिए स्थापित समाज। (इन्स्टीच्यूशन) ८. प्रबंध। व्यवस्था। ९. किसी काम या बात का अच्छी तरह किया जाने वाला अनुसरण। पालन। १॰. जनपद। बस्ती। ११. आकृति। रूप। शक्ल। १२. कांति। चमक। १३. सुंदरता। सौन्दर्य। १४. प्रकृति। स्वभाव। १५. अवस्था। दशा। १६. जोड़। योग। १७. समष्टि। १८. अंत। समाप्ति। १९. नाश। ध्वंस। २॰. मृत्यु। मौत। २१. निर्माण। रचना। २२. निकटता। सामीष्ट। २३. पास-पड़ोस। २४. चौमुहानी। चौराहा। २५. चौखटा। ढाँचा। २६. साँचा। २७. रोग का लक्षण। २८. ब्रिटिश शासन के समय देशी रियासत। (दक्षिणभारत)
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संस्थापक  : वि० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+विच् पुक्-ष्टवुल-अक] [स्त्री० संस्थापिका] १. संस्थापन करने वाला। २. बनाकर खड़ा या तैयार करने वाला। ३.नये काम या बात का प्रवर्तन करने वाला। प्रवर्तक। ४. चित्र, खिलौना आदि बनाने वाला। ५. किसी प्रकार का आकार या रूप देने वाला। पुं० आज-कल किसी संस्था, सभा या समज का वह मूल व्यक्ति, जिसने पहले पहल उसकी स्थापना की हो।
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संस्थापन  : पुं० [सं० सम्√श्था (ठहरना)+णिच्-यक, ल्युट्-अन] [वि० संस्थापनीय, संस्थाप्य, भू० कृ० संस्थापित] १. अच्छी तरह जमाकर बैठाना या रखना। २. मशीनों यंत्रो आदि को किसी स्थान पर लगाना। प्रतिष्ठित करना। ३. उक्त रूप में बैठाए या लगाए हुए यंत्रों की सामूहिक संज्ञा। प्रस्थापन। (इन्स्टालेशन) ४. कोई नई चीज बनाकर खड़ी या तैयार करना। निर्मित करना। जैसे—भवन का संस्थापन। ५. कोई नया काम या नई बात चलाना या जारी करना, अथवा उसके लिए कोई संस्था स्थापित करना। ६. उक्त प्रकार से स्थापित की हुई संस्था अथवा उसमें काम करने वाले लोगो का वर्ग या समूह। (एस्टैब्लिशमेंट) ७. किसी काम, चीज या बात को कोई नया आकार या रूप देना। ८. नियंत्रित करना। रोकना। ९. शांत करना।
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संस्थापना  : स्त्री० [सं० संस्थापन-टाप्]=संस्थापन।
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संस्थापनीय  : वि० [सं० सं√स्था (ठहरना)+णिच्-पुक्-अनीयर] जिसका संस्थापना हो सकता हो या होने को हो।
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संस्थापित  : भू० कृ० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+णिच्-पुक्, क्त] १. जिसका संस्थापन किया गया हो या हुआ हो। २. जमाकर बैठाया, रखा या स्थित किया हुआ। ३.चलाया या प्रचलित किया हुआ। ४. इकट्ठा किया हुआ। संचित।
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संस्थाप्य  : वि० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+णिच्-पुक, यत्] जिसका संस्थापन हो सकता हो या होना उचित हो।
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संस्थित  : वि० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+क्त] १. टिका, ठहरा या रुका हुआ। २. अच्छी तरह जमा या बैठा हुआ। ३. किसी नये और विशिष्ट रूप में आया लाया हुआ। ४. बनाकर खड़ा या तैयार किया हुआ। ५. इकट्ठा या एकत्र किया हुआ। ६. मरा हुआ। मृत।
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संस्थिति  : स्त्री० [सं० सम्√स्था (ठहरना)+क्तिन] १. खड़े होने की क्रिया, अवस्था या भाव। २. ठहराव। स्थिरता। ३. बैठने की क्रिया या भाव। ४. एक ही अवस्था में बने रहने की क्रिया या भाव। संस्थान। ५. दृढता। मजबूती। ६.धीरता। ७. अस्तित्व। हस्ती। ८. आकृति। रूप। ९. गुण। १॰. क्रम। सिलसिला। ११. प्रबंध। व्यवस्था। १२. प्रकृति। स्वभाव। १३. अंत। समाप्ति। १४. मृत्यु। मौत। १५. नाश। १६. कोष्ठबद्धता। कब्जियत। १७. ढेर। राशि।
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संस्पर्द्धा  : स्त्री० [सं० सम्√स्पर्ध (संघर्ष करना)+घज्-टाप] १. स्पर्धा। २. ईर्ष्या।
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संस्पर्द्धी  : वि० [सं० सम्√स्पर्ध (स्पर्धा करना)+णिनि] [स्त्री० संस्पर्द्धनी] संस्पर्धा करनेवाला।
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संस्पर्श  : पुं० [सं० सम्√स्पृश (छूना)+घञ] अच्छी या पूरी तरह से होने वाला स्पर्श।
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संस्पर्शी  : वि० [सं० सम्√स्पृश (छूना)+णिनि संस्पर्शिनी] स्पर्श करने या छूने वाला।
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संस्पृष्ट  : भू० कृ० [सं०] १. छुआ हुआ। जिसका किसी के साथ स्पर्श हुआ हो। २. किसी के साथ लगा या सटा हुआ। ३. किसी के साथ जुड़ा या बँधा हुआ। ४. जो बहुत पास हो समीपस्थ। ५. जिसपर किसी का बहुत थोड़ा नाम मात्र का प्रभाव पड़ा हो।
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संस्फुट  : वि० [सं० सम्√स्फुट् (विकसित होना) +क] १. अच्छी तरह फूटा या खुला हुआ। २. अच्छी तरह खिला हुआ।
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संस्फोट  : पुं० [सं० सम्√स्फुट् (भेदन करना)+घञ] युद्ध। लड़ाई।
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संस्मरण  : पुं० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+ल्युट्-अन] [वि० संस्मरणीय] १. अच्छी तरह या बार-बार स्मरण करना। २. ईष्टदेव आदि का बार-बार स्मरण करना या उनका नाम जपना। ३. पूर्व-जन्म के संस्कारों आदि के कारण उत्पन्न या पआपात होने अथवा बना रहने वाला ज्ञान। ४. आज-कल किसी व्यक्ति विशेषतः मृत व्यक्ति के संबंध की महात्वपूर्ण और मुख्य घटनाओं या बातों का उल्लेख या कथन। (रेमिनिसेन्सेज)
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संस्मरणीय  : वि० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+अनीयर्] १. जिसका प्रायः संस्मरण होता रहता है। बहुत दिनों तक याद रहने लायक। २. जिसका संस्मरण (नाम, जप आदि) करना आवश्यक और उचित हो।
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संस्मारक  : वि० [सं० सम्√स्मृर् (स्मरम करना)+णिच्-णवुल्-अक] [स्त्री० संस्मारिका] स्मरण करने वाला। याद दिलाने वाला।
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संस्मारण  : पुं० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+णिच्-ल्युट्-अन्] [भू० कृ० संस्मरित] १. स्मरण करना। याद दिलाना। २. चौपायों आदि की गिनती करना।
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संस्मृत  : वि० [सं० सं√ स्मृर् (स्मरण करना)+कृ] स्मरण किया हुआ। याद किया हुआ।
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संस्मृति  : स्त्री० [सं० सम्√स्मृ (स्मरण करना)+क्तिन] पूर्ण स्मृति। पूरी याद।
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संस्त्रव  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहाव मे जाना)+णिच्] [स्त्री० संस्त्रवा] १. मिल-जुल कर एक साथ रहना। २. अच्छी तरह बहना। ३. बहती हुई चीज। ४. जल की धारा या प्रवाह। ५. तरल पदार्थ का रस कर टपकना या बहना। ६. किसी चीज में से उखाड़ा या नोंचा हुआ अंश। ७. एक प्रकार का पिंड दान।
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संस्त्रवण  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहना)+ल्युट्-अन] १. प्रवाहित होना। बहना। २. गिरना। चूना या टपकना। जैसे—गर्भ का संश्रवण।
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संस्त्रष्टा  : वि०[सं०सम्√सृज् (सृजन करना)+क्तच, ज, त्र-तत्र संस्त्रष्ट] [स्त्री० संस्त्रष्टी] १. आयोजन करने वाला। २. मिलाने जुलाने वाला। ३. बनाने वाला। रचयिता। ४. लड़ाई-झगड़ा करनेवाला।
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संस्त्राव  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहना)+घञ] १. प्रवाह। बहाव। २. शरीर के घाव, फोड़े आदि में मवाद का इकट्ठा होना। ३.गाद। तलछट।
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संस्त्रावण  : पुं० [सं० सम्√स्त्रु (बहना)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संस्त्रावित] १. प्रवाहित करना। बहाना। २. प्रवाहित होना। बहाना।
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संस्त्रावित  : भू० कृ० [सं० सम्√सु (बहना)+णिच्-क्त] १. बहाया हुआ। बहा हुआ। ३.चू, टपक या रिसकर निकला हुआ।
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संस्त्राव्य  : वि० [सं० सम्√स्त्रु (बहाना)+णिच् यत] १. बहाने या टपकाने योग्य। २. बहाये या टपकाए जाने योग्य।
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संस्वेद  : पुं० [सं०] स्वेद। पसीना।
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संस्वेदी (दिन्)  : वि० [सं०√स्विद् (पसीना होना)+णिच्] १. जिसके बदन से पसीना निकल रहा हो। २. जिसके प्रभाव से बहुत पसीना आता या आने लगता हो। पसीना लाने वाला।
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