शब्द का अर्थ
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सच :
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वि० [सं० सत्य] १. जो यथार्त हो वास्विकता। २. झूठ रहित। सत्य। |
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सचक्री :
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पुं० [सं० सचक्र+इनि] वह जो रथ चलाता हो। सारथी। |
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सचन :
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पुं० [सं० चन्+अञ-समान=स] सेवा करने की क्रिया या भाव। सेवन। |
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सचना :
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स० [सं० संचयन] १. संचय करना। इकट्ठा करना। २. कार्य का संपादन करना। काम पूरा करना। ३. बनाना। रचना। अ०=सचरना। अ० १. संचित या एकत्र होना। उदा०—मालती मल्लि मलैज लवंगनि सेवाती संग समूह सची है।—देव। २. कार्य का संपादित या पूरा होना। उदा—बहु कुंड शोनित सों भरे, पितु तर्पणादि क्रिया सची।—कबीर। ३. रचा जाना। बनाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सचनावत् :
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पुं० [सं० सचन√अन (रक्षा करना)+क्रिय-तुक] परमेश्वर जिसका भजन सब लोग करते हैं। |
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सच-मुच :
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अव्य० [हिं० सच+मुच (अनु०)] १. यथार्थतः। ठीक। वास्तव में। वस्तुतः। २. निश्चित रूप से अवश्य। |
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सचरना :
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अ० [सं० संचरण] १. किसी के ऊपर प्रविष्ट होकर संचरित होना। फैलना। २. किसी वर्ग या समाज में पहुँचकर लोगो से हेल-मेल बढ़ाना। उदा०—जा दिन तै सचरे गोपिन में, ताहि दिन तै करत लगरैया।—सूर। ३. किसी चीज या बात का लोगों में प्रचलन या प्रचार होना। फैलना। |
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सचराचर :
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पुं० [सं० द्व० स०] संसार की सब चर और अचर वस्तुएँ। स्थावर और जंगम सभी वस्तुएँ। |
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सचल :
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वि० [सं०] [भाव० सचलता] १. जो अचल न हो। चलता हुआ। जंगम। २. जो एक से दूसरी जगह आ जा सके। ३. जो बराबर एक जगह से जगह जाता रहता हो। (मूविंग) जैसे—सचल पुस्तकालय, सचल नरीक्षण आदि। ४.जो स्थिर न रहे। चंचल। ५. जगम। |
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सचल-लवण :
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पुं० [सं० मध्यम० स०] साँचर नमक। |
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सचा :
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पुं०=सखा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सचाई :
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स्त्री०=सच्चाई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सचान :
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पुं० [सं० सचान=श्येन] श्येन पक्षी। बाज। |
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सचाना :
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स० [हिं० सच=सत्य] सच्चा कर दिखलाया। उदा—झुठहिं सचावै, कर कलम मचावै, अहो जुलुम मचावै ये अदालत के अमला। |
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सचारना :
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स० [हिं० सचरना का सकर्मक रूप] संचारित करना। फैलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सचावट :
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स्त्री० [हिं० सच+आवट (प्रत्य०] सच्चापन। सच्चाई। सत्यता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सचिंत :
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वि० [सं० अव्य० स०] जिसे चिंता हो। फिक्रमंद। |
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सचिक्कण :
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वि० [सं० अव्य० स०] बहुत अधिक चिकना। जैसै०—सच्चिकण केश। |
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सचिक्कन :
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वि०=सचिक्कण। |
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सचित :
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वि० [सं०√चित् (ज्ञान करना)+क्विष्=स] जिसमें अथवा जिसे चित्त ज्ञान या चेतना हो। |
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सचित्त :
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वि० [सं० अव्य० स०] जिसका ध्यान किसी ओर लगा हो। |
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सचिव :
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पुं० [सं०] १. मित्र। दोस्त। २. मंत्री या वजीर। ३.सहायक। मददगार। ४. आजकल किसी बड़े अधिकारी या विभाग का वह व्यक्ति जो अभिलेख आदि सुरक्षित रखता हो। और मुख्य रूप से पत्र व्यवहार आदि की व्यवस्था करता हो। (सेक्रेटरी) विशेष—प्राचीन भारत में, मंत्री और सचिव प्रायः समानार्थक शब्द माने जाते थे, परंतु आजकल सचिव से मंत्री पद भिन्न होता है। मंत्री का काम मंत्रणा या परामर्श देना होता है। परंतु सचिव को कोई ऐसा अधिकार नहीं होता है। ५. धतूरे का पेड़। |
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सचिवता :
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स्त्री० [सं० सचिव+तल—टाप] सचिव होने की अवस्था, पद या भाव। |
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सचिव-मंडल :
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पुं० [सं०]=मंत्रि-मंडल। |
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सचिवाधिकार :
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पुं० [सं० सचिव+अधिकार] किसी राज्य के मंत्रियौं अर्थात सचिवों का शासन काल। (मिनिस्टरी) जैसे—कांग्रेस सचिवाधिकार से शासन विधि में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए हैं। |
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सचिवालय :
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पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ राज्य के प्रमुख विभागों के सचिवो और प्रमुख अधिकारियों के कार्यकाल हों। (सेक्रेटेरिएट) |
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सची :
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स्त्री० [सं० शची] अगर। अगुरु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=शची (इंद्राणि)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सची-सुत :
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पुं० [सं० सची-सुत] १. शची का पुत्र, जयंत। २. श्री चैतन्य महाप्रभु। |
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सचु :
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पुं० [?] १. प्रसन्नता। खुशी। २. सुख। वि०=सच।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सचेत :
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वि० [सं० सचतन] १. जिसे या जिसमें चेतना हो। चेतना युक्त। सचेतन। २. समझदार। सयाना। ३. सजग। सावधान। |
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सचेतक :
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वि० [सं०] सचेत या सजग करने वाला। पुं० निधायिका, सभाओं, संसदों आदि में वह अधिकारी। जिसका कर्तव्य सदस्यों को इस विषय में सचेत करना होता है कि अमुक प्रस्ताव या विषय पर मत देने के लिए आपकी उपस्थिति आवश्यक है। (ह्विप) |
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सचेतन :
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पुं० [सं० अव्य० स०] १. ऐसा प्राणी जिसमें चेतना हो। विवेक युक्त प्राणी। २. ऐसी वस्तु जो जड़ न हो। चेतन्य। वि० १. चेतना युक्त। चेतन्य। २. सजग। सावधान। ३. चतुर। होशियार। |
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सचेता (तस्) :
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वि० [सं० चित्+आसन-सह=स] समझदार। वि०=सचेत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सचेती :
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स्त्री० [हिं० सचेत+ई (प्रत्य०)] सचेत होने की अवस्था, गुण या भाव। |
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सचेष्ट :
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स्त्री० [सं० अव्य० स०] १. जिसमें चेष्ठा हो। २. जो चेष्ठा या प्रयत्न कर रहा हो। पुं० आम का पेड़। |
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सचैयत :
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स्त्री० [हिं० सच्च-ऐयत (प्रत्य०)]=सच्चाई। |
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सच्चरित :
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वि० [सं० कर्म० स०] जिसका चरित्र आच्छा हो। सच्चरित्र। सदाचारी। |
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सच्चा :
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वि० [सं० सत्य] [स्त्री० सच्ची] १. सच बोलने वाला। जो कभी झूठ न बोलता हो। सत्यवादी। २. जिसमें किसी प्रकार का छल-कपट या झूठा व्यवहार न हो। अथवा जिसकी प्रमाणिकता, सत्यता आदि में किसी प्रकार के अंतरया संदेह की संभावना हो। जैसै—(क) जबान का सच्चा अर्थात सदा सत्य बोलने वाला। और अपने वचन का पालन करने वाला। (ख) लंगोट का सच्चा अर्थात जो परस्त्रीगामी न हो और पूर्ण ब्रह्मचारी हों। (ग) हाथ का सच्चा, जो कभी चोरी या बेईमानी न करता हो। ३. जिसमें कोई खोट या मेल न हो। खरा। विशुद्ध। जैसे—सच्चा होना। ४. जितना या जैसा होना चाहिए, उतना या वैसा। त्रुटि, दोष आदि से रहित। जैसे—सच्ची जड़ाई करना, सच्चा हाथ मारना। ५. जो नकली या बनावटी न हो, बल्कि असली या वास्तविक हो। जासे०—साड़ी पर सच्ची जरी का काम। |
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सच्चाई :
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स्त्री० [हिं० सच्चा+आई (प्रत्य०)] सच अर्थात सत्य होने का गुण या भाव। सत्यता। |
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सच्चापन :
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पुं० [हिं० सच्चा+पन (प्रत्य०)] सच अर्थात सत्य होने का गुण या भाव। सत्यता। |
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सच्चाहट :
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स्त्री=सच्चाई। (क्व०) |
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सच्चित् :
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पुं० [सं० द्व० स०] सत् और चित से युक्त ब्रह्मा। |
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सच्चिदानंद :
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पुं० [सं० कर्म० स०] सत्, चित् और आनन्द से युक्त परमात्मा का एक नाम। ईश्वर। परमेश्वर। |
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सच्चिन्मय :
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वि० [सं० सच्चित-मयट] १. सत् और चैतन्य स्वरीप। २. सत् और चैतन्य से युक्त। |
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सच्ची टिपाई :
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स्त्री० [स्त्री० [हिं०] भारतीय मध्य युगीन चित्र कला में चित्र बनाने के समय पहले रूप रेखा अमकित कर चुकने पर गेरू से होने वाला अंकन। |
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सच्छंद :
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वि०=स्वच्छंद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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सच्छ :
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वि०=स्वच्छ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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सच्छत :
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वि० [सं० स०+क्षत] जिसे क्षत लगा हो। घायल। |
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सच्छांति :
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स्त्री० [सं० सद्+शांति] सद या उत्तम शांति। पूरी या विशुद्ध शांति। |
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सच्छाय :
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वि० [सं० अव्य० स०] १. छायादार। २. सुंदर रंगो वाला। ३. चमकदार। ४. एक ही रंग का। |
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सच्छी :
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स्त्री०=साक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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सच्छील :
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पुं० [सं० कर्म० स०] सदाचार। वि० अच्छे शील वाला। शीलवान। |
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