शब्द का अर्थ
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सोन :
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पुं० [सं० शोण] एक प्रसिद्ध नद का नाम जो मध्य प्रदेश की अमरकंटक की अधित्यका से निकला है और मध्य प्रदेश तथा बुंदेलखंड होता हुआ बिहार में दानापुर से १॰ मील उत्तर में गंगा में मिला है। शोणभद्र नद। वि० रक्तवर्ण का। लाल। स्त्री० [हिं० सोना=स्वर्ण] एक प्रकार की सदाबहार लता जिसमें पीले फूल लगतें हैं। वि० हिं० ‘सोना’ का संक्षिप्त रूप जो यौ० शब्दों के पहले लगकर प्रायः पीले रंग का वाचक होता है। जैसे–सोन-जर्द, सोन-जूही आदि। पुं०=सोना (स्वर्ण)। उदा०–मारग मानुस सोन उछाया।–जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [सं० रसोनक] लहसुन। (डिं०) पुं० [देश०] एक प्रकार का जल-पक्षी। |
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समानार्थी शब्द-
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सोन-किरवा :
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पुं० [हिं० सोन+किरवा=कीड़ा] १. चमकीले तथा सुनहरें परों वाला एक प्रकार का कीड़ा। २. जुगनूँ। |
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सोनकीकर :
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पुं० [हिं० सोना+कीकर] कीकर की जाति का एक प्रकार का बहुत बड़ा पेड़। |
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सोन-केला :
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पुं० [हिं० सोना+केला] चंपा केला। सुवर्ण कदली। पीला केला। |
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सोन-गढ़ी :
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पुं० [सोनगढ़ (स्थान)] एक प्रकार का गन्ना। |
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सोन-गहरा :
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वि० , पुं० [हिं० सोना+गहरा] गहरा सुनहला (रंग)। |
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सोन-गेरू :
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पुं० दे० ‘सोना गेरी’। |
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सोन-चंपा :
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पुं० [हिं० सोना+चंपा] पीला चंपा। सुवर्ण चंपा। स्वर्ण चंपा। |
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सोन-चिरी :
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स्त्री० [हिं० सोना+चिरी=चिड़िया] १. नटी। २. नर्तकी। |
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सोन-जरद (जर्द) :
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वि० [हिं० सोना=स्वर्ण+फा० जर्द=पीला] सोने की तरह पीले रंगवाला। पुं० उक्त प्रकार का रंग। (गोल्डेन यलो) |
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सोन-जूही :
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स्त्री० [हिं० सोना+जूही] एक प्रकार की जूही जिसके फूल हलके पीले रंग के और अधिक सुगंधित होते हैं। |
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सोन-पेडुकी :
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स्त्री० [हिं० सोना+पेड़ुकी] एक प्रकार का पक्षी जो सुनहला पन लिए हरे रंग का होता है। |
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सोनभद्र :
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पुं०=(सोन) नद। |
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सोनवाना :
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वि० [हिं० सोना+वाना (प्रत्य०)] [स्त्री० सोनावानी] १. सोने का बना हुआ। २. सोने के रंग का। सुनहला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सोनहला :
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वि०=सुनहला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सोनहा :
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पुं० [सं० शनु=कुत्ता] १. कुत्ते की जाति का एक छोटा जंगली हिंसक जंतु जो झुंड में रहता है। २. एक प्रकार का पक्षी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सोनहार :
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पुं० [देश०] एक प्रकार का समुद्री पक्षी। |
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सोना :
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पुं० [सं० स्वर्ण] १. एक प्रसिद्ध बहु—मूल्य पीला धातु जिसके गहने आदि बनते हैं। स्वर्ण। कांचन। (गोल्ड) पद–सोने की कटार=ऐसी चीज जो सुंदर होने पर भी घातक या हानिकारक हो। सोने की चिड़िया=ऐसा संपन्न व्यक्ति जिससे बहुत कुछ धन प्राप्त किया जा सकता हो। मुहा०–सोने का घर मिट्टी करना=बहुत अधिक धन—संपत्ति व्यर्थ और पूरी तरह से नष्ट करना। सोने में घुन लगना=परम असंभव बात होना। सोने में सुगंध होना=किसी बहुत अच्छी चीज में और भी कोई ऐसा गुण या विशेषतः होना कि जिससे उसका महत्व या मूल्य और भी बढ़ जाय। विशेष–लोक में भूल से इसी की जगह ‘सोने में सुहागा होना’ भी प्रचलित है। २. बहुत सुंदर या बहुमूल्य पदार्थ। ३. राजहंस। स्त्री० [?] प्रायः एक हाथ लंबी एक प्रकार की मछली जो भारत और वरमा की नदियों में पाई जाती हैं। पुं० [?] मझोले आकार का एक प्रकार का वृक्ष। अ० [सं० शयन] १. लेटकर शरीर और मस्तिष्क को विश्राम देने वाली निद्रा की अवस्था में होना। नींद लेना। मुहा०–सोते-जागते=हर समय। २. शरीर का किसी अंग का एक ही स्थिति में रहने के कारण कुछ समय के लिए सुन्न हो जाना। जैसे–पैर या हाथ सोना। ३. किसी विषय या बात की ओर से उदासीन होकर चुप या निष्क्रिय रहना। |
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सोना-कुत्ता :
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पुं०=सोनहा (जंतु)। |
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सोना-गेरु :
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पुं० [हिं० सोना+गेरू] एक प्रकार का गेरू जो मामूली गेरू से अधिक लाल, चमकीला और मुलायम होता है। |
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सोना-पठा :
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पुं० [हिं० शोण+हिं० पाठा] एक प्रकार का ऊँचा वृक्ष जो भारत और लंका के सर्वत्र में होता है और जिसके कई भेद होते हैं। श्योनक। |
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सोनापुर :
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पुं० [हिं०] स्वर्ग। मुहा०–सोनापुर सिधारना=मर जाना। |
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सोना-पेट :
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पुं० [हिं० सोना+पेट=गर्भ] सोने की खान। |
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सोना-फूल :
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पुं० [हिं० सोना+फूल] आसाम और खसिया पहाड़ियों पर होने वाली एक प्रकार की झाड़ी। |
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सोना-मक्खी :
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स्त्री० [सं० स्वर्णमक्षिका] १. मक्षिका नामक खनिज पदार्थ का वह भोद जो पीला होता है। (देखें मक्षिका) २. रेशम का एक प्रकार का कीड़ा। |
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सोना-माखी :
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स्त्री० =सोनामक्खी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सोनार :
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पुं० =सुनार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सोनित :
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पुं० =सोणित (खून)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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सोनी :
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पुं० [देश०] तनु की जाति का एक वृक्ष। पुं० =सुनार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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सोनैया :
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स्त्री० [देश०] देवदाली। घघरबेल। बंदाल। |
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सोनारी :
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पुं० [?] संगीत में पन्द्रह मात्राओं का एक ताल जिसमें पाँच आघात और तीन खाली होते हैं। |
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