शब्द का अर्थ
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स्वर्णकर्ष :
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पुं० [सं०] सोने की एक प्राचीन तौल जो किसी के मत से दश माशे की और किसी के मत से सोलह माशे की होती थी। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर् :
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पुं० [सं०] १. स्वर्ग। २. परलोक। ३. आकाश। |
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समानार्थी शब्द-
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स्वर :
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पुं० [सं०] [वि० स्वरिक, स्वरित, भाव० स्वरता] १. कोमलता, तीव्रता, उतार-चढ़ाव आदि से युक्त वह शब्द, जो प्राणियों के गले अथवा एक वस्तु पर दूसरी वस्तु का आघात पड़ने से निकलता है। २. स्वर-तंत्रियों के ढील पड़ने और तनने के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न होनेवाली कंठध्वनि। सुर। (साउन्ड) मुहा०–स्वर फूँकना=कोई ऐसा काम या बात करना, जिसका दूसरे पर पूरा प्रभाव पड़े अथवा वह अनुयायी या वशवर्ती। हो जाय। स्वर मिलाना=किसी सुनाई पड़ते हुए स्वर के अनुसार स्वर उत्पन्न करना। ३. संगीत में, उक्त प्रकार के वे सात निश्चित शब्द या ध्वनियाँ जिनका स्वरूप, तन्यता, तीव्रता आदि विशिष्ट प्रकार से स्थिर हैं। यथा-षड़ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद। विशेष–साम वेद में सातों स्वरों के नाम इस प्रकार हैं–क्रुष्ट, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, मंद और अतिस्वार (या अतिस्वर) हैं। परन्तु यह उनका अवरोहण क्रम है और आजकल के म, ग, रे, स, नि, व, प के समान है। मुहा०–स्वर उतारना=स्वर नीचा या धीमा करना। स्वर चढ़ाना=स्वर ऊँचा या तेज करना। स्वर निकालना=कंठ या बाजे से स्वर उत्पन्न करना। स्वर भरना=अभ्यास के लिए किसी एक ही स्वर का कुछ समय तक उच्चारण करना। ३. व्याकरण में, वह वर्णनात्मक ध्वनि या शब्द जिसका उच्चारण बिना किसी दूसरे वर्ण की सहायता के आप से आप होता है और जिसके बिना किसी व्यंजन का उच्चारण नहीं हो सकता। (वॉवेल) यथा–अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ और औ। विशेष–आज-कल का ध्वनि-विज्ञान बतलाता है कि कुछ अवस्थाओं में बिना स्वर की सहायता के भी कुछ व्यंजनों का उच्चारण संभव है। ४. वेदपाठ में होनेवाले शब्दों का उतार-चढ़ाव जो उदात्त, अनुदात्त और स्वरित नामक तीन प्रकारों का होता है। ५. साँस लेने के समय नाक से निकलनेवाली वायु के कारण उत्पन्न होनेवाला शब्द। ६. आकाश। |
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स्वर-कर :
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पुं० [सं०] ऐसा पदार्थ जिसके सेवन से गले का स्वर मधुर और सुरीला होता है। |
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स्वर कलानिधि :
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स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। |
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स्वर-क्षय :
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पुं०=स्वर-भंग। |
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स्वरक्षु :
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स्त्री० [सं०] वक्षु नदी का एक नाम। |
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स्वरंग :
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पुं०=स्वर्ग।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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स्वर-ग्राम :
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पुं० [सं०] संगीत में, सा से नि तक के सातों स्वरों का समूह। सप्तक। |
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स्वरघ्न :
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पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार वायु के प्रकोप से होनेवाला गले का एक रोग जिसके कारण गले से ठीक स्वर नहीं निकलता। गला बैठना। |
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स्वर-तंत्री :
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स्त्री० [सं०] स्वर-सूत्र। (दे०) |
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स्वरता :
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स्त्री० [सं०] १. ‘स्वर’ होने का भाव। २. ‘स्वरित’ होने की अवस्था या भाव। (सोनोरिटी) |
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स्वर-नलिका :
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स्त्री० [सं०] स्वर-सूत्र। (दे०) |
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स्वरनादी (दिन्) :
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पुं० [सं०] मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला बाजा। (संगीत) |
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स्वर-नाभि :
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पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा। |
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स्वर-पत्तन :
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पुं० [सं०] सामवेद। |
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स्वर-पात :
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पुं० [सं०] १. किसी शब्द का उच्चारण करने में उसके किसी वर्ण पर कुछ ठहरना या रुकना। २. उचित वेग, रुकाव आदि का ध्यान रखते हुए होनेवाला शब्दों का उच्चारण (एक्सेन्ट) |
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स्वर-प्रधान :
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वि० [सं०] ऐसा रोग जिसमें स्वर का ही आग्रह या प्रधानता हो। ताल की प्रधानता न हो। |
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स्वर-बद्ध :
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भू० कृ० [सं०] स्वरों में बाँधा हुआ (संगीत)। |
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स्वर-ब्रह्मा :
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पुं० [सं०] ब्रह्मा की स्वर में होनेवाली अभिव्यक्ति। |
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स्वर-भंग :
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पुं० [सं०] १. उच्वारण में होनेवाली बाधा या अस्पष्टता। २. आवाज या गला बैठना, जो एक रोग माना गया है। ३. साहित्य में हर्ष, भय, क्रोध, मद आदि से गला भर आना अथवा जो कुछ कहना हो उसके बदले मुख से और कुछ निकल जाना, जो एक सात्त्विक अनुभाव माना गया है। |
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स्वर-भंगी (गिन्) :
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पुं० [सं०] १. वह जिसे स्वरभंग रोग हुआ हो। २. वह जिसका गला बैठ गया हो और मुँह से साफ आवाज न निकलती हो। ३. एक प्रकार का पक्षी। |
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स्वर-भाव :
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पुं० [सं०] संगीत में, बिना अंग-संचालन किये केवल स्वर से ही दुःख-सुख आदि के भाव प्रकट करने की क्रिया। (यह चार प्रकार के भावों में एक माना गया है।) |
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स्वर-भूषणी :
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स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। |
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स्वरभेद :
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पुं० [सं०] स्वर भंग (दे०)। |
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स्वरमंडल :
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पुं० [सं०] वीणा की तरह का एक बाजा जिसका प्रचार आजकल बहुत कम हो गया है। |
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स्वर-मंडलिका :
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स्त्री० [सं०]=स्वर-मंडल। |
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स्वर-यंत्र :
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पुं० [सं०] गले के अंदर का वह अवयव या अंश जिसकी सहायता या प्रयत्न से स्वर या शब्द निकलते हैं। (लैरिंक्स) |
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स्वर-रंजनी :
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स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। |
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स्वर-लहरी :
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स्त्री० [सं०] १. ऊँचे-नीचे स्वरों की वह लहर या क्रम जो प्रायः संगीत आदि के लिए उत्पन्न की जाती है। २. संगीत में, वह झंकार या आलाप, जो कुछ समय तक एक ही रूप में होता है। |
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स्वर-लालिका :
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स्त्री० [सं०] बाँसुरी या मुरली। |
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स्वर-लिपि :
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स्त्री० [सं०] संगीत में किसी गीत, तान, राग, लय आदि में आनेवाले सभी स्वरों का क्रमबद्ध लेख। (नोटेशन) |
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स्वरवाही (हिन्) :
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पुं० [सं०] वह बाजा या बाजों का समूह जो स्वर उत्पन्न करता हो। ताल देनेवाले बाजों से भिन्न। जैसे–वंशी, वीणा, सारंगी, आदि (ढोल, तबले, मँजीरे आदि से भिन्न)। |
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स्वर-वेधी :
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वि०=शब्द-वेधी। |
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स्वर-शास्त्र :
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पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें स्वर-संबंधी सब बातों का विवचेन हो। स्वर-विज्ञान। |
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स्वर-शून्य :
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वि० [सं०] [भाव० स्वर-शून्यता] (ध्वनि) जिसमें मधुरता, संगीतमयता या लय न हो। |
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स्वर-संक्रम :
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पुं० [सं०] संगीत में, स्वरों का आरोह और अवरोह। स्वरों का उतार और चढ़ाव। |
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स्वर-संधि :
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स्त्री० [सं०] व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान में, दो या अधिक पास-पास आनेवाले स्वरों का मिलकर एक होना। स्वरों का मेल। |
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स्वरस :
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पुं० [सं०] १. वैद्यक में, पत्ती आदि को भिगोकर और अच्छी तरह कूट, पीस और छानकर निकाला हुआ रस। २. किसी चीज का अपना प्राकृतिक स्वर। |
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स्वर-समुद्र :
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पुं० [सं०] एक प्रकार का पुराना बाजा, जिसमें बजाने के लिए तार लगे होते थे। |
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स्वरसादि :
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पुं० [सं०] ओषधियों को पानी में औटाकर तैयार किया हुआ काढ़ा। कषाय। |
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स्वर-साधन :
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पुं० [सं०] संगीत में, बार-बार कंठ से उच्चारण करते हुए प्रत्येक स्वर ठीक तरह से निकालने की क्रिया या भाव। |
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स्वर-सूत्र :
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पुं० [सं०] गले और छाती से अंदर का सूत्र के आकार का वह अंग, जिसकी सहायता से स्वर या आवाज निकलती है। (वोकल कॉर्ड) |
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स्वरांत :
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वि० [सं०] (शब्द) जिसके अंत में कोई स्वर हो। जैसे–माला, रोटी आदि। |
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स्वरांतर :
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पुं० [सं०] दो स्वरों के उच्चारण के बीच का अन्तर या विराम। |
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स्वरांश :
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पुं० [सं०] संगीत में, स्वर का आधा या चौथाई अंग। |
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स्वरा :
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स्त्री० [सं०] ब्रह्मा की बड़ी पत्नी जो गायत्री को सपत्नी कही गई है। |
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स्वरागम :
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पुं० [सं० स्वर+आगम] निरुक्त में किसी शब्द के दो वर्णों के बीच में किसी प्रकार कोई स्वर आ लगना। जैसे–कर्म से करम रूप बनने में अ का स्वरागम हुआ है। |
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स्वराघात :
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पुं० [सं० स्वर-आघात] किसी शब्द का उच्चारण करने, किसी को पुकारने, कुछ कहने, गाने आदि के समय किसी व्यंजन या स्वर पर साधारण से अधिक जोर देने या अधिक प्राण-शक्ति लगाने की क्रिया या भाव (ऐक्सेन्ट)। विशेष–साधारणतः ध्वनियों पर होनेवाला आघात या प्राण-शक्ति का प्रयोग हो प्रकार का होता है। पहले प्रकार में तो जिज्ञासा विधि, निषेध, विस्मय, संतोष, हर्ष आदि प्रकट करने के लिए होता है। उदा०–हरणार्थ जब हम कहते हैं–हम जायेंगे–तो कभी तो हमें ‘हम’ पर जोर देना अभीष्ट होता है, जिसका आशय होता है–हम अवश्य जाएँगे, बिना गये नहीं मानेंगे। ध्वनियों पर दूसरे प्रकार का आघात वह होता है, जिसमें या तो मात्रा खींचकर बढ़ाई जाती है (जैसे–क्या, जी, हाँ–आदि या उच्चारण ही कुछ अधिक या कम जोर लगाकर किया जाता है। वैदिक मंत्रों के उच्चारण के संबंध में जो उदात्त, अनुदात्त और स्वरित नामक तीन भेद हैं, वे इसी प्रकार के अन्तर्गत आते हैं। पाश्चात्य देशों की अँगरेजी आदि कुछ आर्य परिवारवाली भाषाओं में शब्दों के उच्चारण का शुद्ध रूप बतलानेवाला कुछ विशिष्ट प्रकार का स्वराघात भी होता है, जो छपाई-लिखाई आदि में एक विशिष्ट प्रकार का स्वराघात भी होता है, जो छपाई-लिखाई आदि में एक विशिष्ट प्रकार का स्वराघात भी होता है, जो छपाई-लिखाई आदि में एक विशिष्ट प्रकार के चिह्न (‘) से सूचित किया जाता है। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वराजी :
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पुं० [सं० स्वराज्य] १. वहो जो ‘स्वाराज्य’ नामक राजनीतिक पक्ष या दल का हो। २. स्वराज्य-प्राप्ति के लिए आन्दोलन तथा प्रयत्न करनेवाले राजनीतिक दल का मनुष्य। वि० स्वराज्य संबंधी। स्वराज्य का। |
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समानार्थी शब्द-
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स्वराज्य :
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पुं० [सं०] १. अपना राज्य। अपना देश। २. वह अवस्था जिसमें शासन-सत्ता विदेशी शासकों के हाथ से निकलकर देशवासियों के हाथों में आ चुकी होती है। |
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समानार्थी शब्द-
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स्वराट् :
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वि० [सं०] जो स्वयं प्रकाशमान हो और दूसरों को प्रकाशित करता हो। पुं० १. ईश्वर। २. ब्रह्मा। ३. वहा राजा जो किसी ऐसे राज्य का स्वामी हो, जिसमें स्वराज्य-शासन प्रणाली प्रचलित हो। ४. ऐसा वैदिक छंद जिसके सब पादों में से मिलकर नियमित वर्णों में दो वर्ण कम हों। |
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समानार्थी शब्द-
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स्वरापगा :
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स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मन्दाकिनी। |
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समानार्थी शब्द-
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स्वराभरण :
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पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग। |
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समानार्थी शब्द-
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स्वरालाप :
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पुं० [सं० स्वर+आलाप] संगीत में ऊँचे-नीचे स्वरों को नियत और नियमित रूप से लयदार और सुन्दर बनाकर उच्चारण करने की क्रिया या भाव। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरालाप :
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स्त्री० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वराष्टक :
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पुं० [सं०] संगीत में, एक प्रकार का संकर रोग जो बंगाली, भैरव, गांधार, पंचम और गुर्जरी के मेल से बनता है। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वराष्ट्र :
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वि० [सं०] जिसका संबंध अपने राष्ट्र से हो। फलतः अन्य राष्ट्रों, उपनिवेशों से संबंध न रखनेवाला। (होम) जैसे–स्वराष्ट्र मंत्रालय; स्वराष्ट्र मंत्री। पुं० १. अपना राष्ट्र या राज्य। २. सुराष्ट्र नामक प्राचीन देश। ३. तामस मनु के पिता, जो पुराणानुसार एक सार्वभौम राजा थे और जिन्होंने बहुत से यज्ञादि किए थे। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वराष्ट्र मंत्री :
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पुं० [सं०] किसी देश की सरकार या मंत्रिमण्डल का वह सदस्य जिसके अधीन राष्ट्र की आन्तरिक व्यवस्था और सुरक्षा-संबंधी विभागों की देख-रेख और संचालन हो। (होम मिनिस्टर) |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरित :
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वि० [सं०] १. (अक्षर या वर्ण) जो स्वर से युक्त हो। जिसमें स्वर हो या लगा हो। २. जिसमें कुछ ऊँचा और स्पष्ट रूप से सुने जाने के योग्य स्वर हो। ३. जो अच्छे या मधुर स्वर से युक्त हो। ४. (स्थान) जिसमें स्वर भर या गूँज रहा हो। (सोनोरस) पुं० व्याकरण में स्वरों के उच्चारण के तीन प्रकारों या भेदों में से एक। स्वर का ऐसा उच्चारण जो न तो बहुत ऊँचा या तीव्र हो और न बहुत नीचा या कोमल हो। मध्यम या सम-भाव से स्वरों का होनेवाला उच्चारण। (शेष दो भेद उदात्त और अनुदात्त कहलाते हैं) |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरितत्व :
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पुं० [सं०] स्वरित का गुण, धर्म या भाव। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरु :
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पुं० [सं०] १. वज्र। २. यज्ञ। ३. सूर्य की किरण। ४. तीर। बाण। ५. एक प्रकार का विच्छू। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरुप :
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पुं० [सं०] [वि० स्वरूपी] १. किसी चीज का वह पक्ष, जिसमें वह उपस्थित या प्रस्तुत होती है। रंग, रूप सामग्री आदि से भिन्न। २. किसी वस्तु, विषय, व्यक्ति का अपना या निजी आकार-प्रकार तथा बनावट, जो समान तत्त्वधारी वस्तुओं के आकार-प्रकार तथा बनावट से भिन्न तथा स्वतन्त्र होती है। आकृति। रूप। शक्ल। ३. उक्त के आधार पर किसी देवता या देवी का बना हुआ चित्र या मूर्ति। जैसे–वैष्णव भक्तों की स्वरूप-सेवा। ४. लीला आदि में किसी देवता या देवी का वह रूप, जो किसी पात्र या व्यक्ति ने धारण किया हो। जैसे–वाक्य का यह स्वरूप व्याकरण सम्मत नहीं है। ६. पंडित। विद्वान्। ७. आत्मा। ८. प्रकृति। स्वभाव। वि० १. सुन्दर। खूबसूरत। २. तुल्य। समान। अव्य० (किसी के) तौर पर या रूप में। जैसे–प्रमाण-स्वरूप कोई मंत्र कहना या ग्रंथ का उद्धरण सामने रखना। पुं०=सारूप्य (मुक्ति)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूपज्ञ :
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पुं० [सं०] वह जो परमात्मा और आत्मा का वास्तविक स्वरूप जानता हो। तत्त्वज्ञ। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूपता :
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स्त्री० [सं०] स्वरूप का गुण, धर्म या भाव। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूप दया :
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पुं० [सं०] जैनों में ऐसी दया या जीवरक्षा जो वास्तविक न हो केवल इहलोक और परलोक में सुख पाने के लिए लोगों की देखा-देखी की जाय। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूप प्रतिष्ठा :
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स्त्री० [सं०] जीव का अपनी स्वाभाविक शक्तियों और गुणों से युक्त होना। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूपमान :
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वि०=स्वरूपवान् (सुन्दर)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूपवान् :
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वि० [सं० स्वरूपवत्] [स्त्री० स्वरूपवती] जिसका स्वरूप अच्छा हो। सुन्दर। खूबसूरत। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूप संबंध :
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पुं० [सं०] ऐसा संबंध जो किसी से उसके अपने स्वरूप के समान होने की अवस्था में माना जाता है। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूपाभास :
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पुं० [सं०] कोई वास्तविक स्वरूप न होने पर भी उसका आभास होना। जैसे–गंधर्वनगर या मरीचिका जिसका वास्तव में अस्तित्व न होने पर भी उनके रूप का आभास (स्वरूपाभास) होता है। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूपासिद्ध :
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वि० [सं०] जो स्वयं अपने स्वरूप से ही असिद्ध होता हो। कभी सिद्ध न हो सकनेवाला। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूपी (पिन्) :
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वि० [सं०] १. स्वरूपवाला। स्वरूपयुक्त। २. जो किसी के स्वरूप के अनुसार बना हो अथवा जिसने किसी का स्वरूप धारण किया हो। पुं०=सारूप्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरूपोपनिषद् :
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स्त्री० [सं०] एक उपनिषद् का नाम। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरेणु :
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स्त्री० [सं०] सूर्य की पत्नी संज्ञा का एक नाम। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरोचिस् :
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पुं० [सं०] पुराणानुसार स्वारोचिष् मनु के पिता जो कलि नामक गंधर्व के पुत्र थे और वरूथिनी नाम की अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरोद :
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पुं०=सरोद (बाजा)। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वरोदय :
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पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसके द्वारा इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना आदि नाडियों के श्वासों के आधार पर सब प्रकार के शुभ और अशुभ फल जाने जाते हैं। दाहिने और बाएँ नथुने से निकलते हुए श्वासों को देखकर शुभ और अशुभ फल कहने की विद्या। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्गगा :
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स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मंदाकिनी। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग :
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पुं० [सं०] [वि० स्वर्गीय] १. हिंदुओं के अनुसार ऊपर के सात लोकों में से तीसरा लोक, जिसका विस्तार सूर्यलोक से ध्रुवलोक तक कहा गया है और जिसमें ईश्वर तथा देवताओं का निवास माना गया है। यह भी माना जाता है कि पुण्यात्माओं और सत्कर्मियों की मृत्यु होने पर उनकी आत्माएँ इसी लोक में जाकर निवास करती हैं। देवलोक। पद–स्वर्ग की धार=आकाश-गंगा। मंदाकिनी। मुहा०–स्वर्ग के पथ पर पैर रखना=(क) यह लोक छोड़कर परलोक के लिए प्रस्थान करना। मरना। (ख) जान जोखिम में डालना। स्वर्ग छना=स्वर्ग के सुख का इसी जीवन में अनुभव करना। उदा०–मदोन्मत्ता महर्षि-मुख देख थी स्वर्ग छूती।–हरिहौध। स्वर्ग जाना या सिधारना=परलोकगामी होना। मरना। २. अन्य धर्मों के अनुसार इसी प्रकार का वह विशिष्ट स्थान जो आकाश में माना जाता है। बिहिश्त (हेवेन)। विशेष–भिन्न-भिन्न धर्मों में स्वर्ग की कल्पना अलग-अलग प्रकार से की गई है। तो भी प्रायः सभी धर्मों के अनुसार इसमें ईश्वर, देवताओ, देवदूतों और पवित्र आत्माओं का निवास माना जाता है और यह सभी प्रकार के सुखों और सौन्दर्यों का भंडार कहा गया है। ३. बोल-चाल में पृथ्वी के ऊपर का वह सारा विस्तार, जिसमें सूर्य, चाँद, तारे, बादल आदि निकलते, डूबते या उठते-बैठते हैं। ४. कोई ऐसा स्थान, जहाँ सभी प्रकार के सुख प्राप्त हों और नाम को भी कोई कष्ट या चिंता न हो। जैसे–यहाँ तो हमें स्वर्ग जान पड़ता है। ५. आकाश। आसमान। पद–स्वर्ग-सुख=सभी प्रकार का बहुत अधिक सुख। मुहा०–(किसी चीज का) स्वर्ग छूना=बहुत अधिक ऊँचा होना। जैसे–वहाँ की अट्टालिकाएँ स्वर्ग छूती थीं। ६. ईश्वर। ७. सुख। ८. प्रलय।। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग काम :
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वि० [सं०] जो स्वर्ग की कामना रखता हो। स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा रखनेवाला। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग-गत :
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भू० कृ०, वि० [सं०] जो स्वर्ग चला गया हो। मरा हुआ। स्वर्गीय। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग-गति :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ग जाना। मरना। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग गमन :
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पुं० [सं०] स्वर्ग सिधारना। मरना। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग-गामी (मिन्) :
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वि० [सं०] १. स्वर्ग की ओर गमन करनेवाला। स्वर्ग जानेवाला। २. जो स्वर्ग जा चुका अर्थात् मर चुका हो। मृत। स्वर्गीय। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग गिरि :
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पुं०=स्वर्णगिरि (सुमेरु पर्वत)। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग-तंरगिणी :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ग की नदी, मंदाकिनी। आकाश-गंगा। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग तरु :
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पुं० [सं०] १. कल्पतरु। २. पारिजात। परजाता। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्गति :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ग की ओर जाने की क्रिया। स्वर्ग-गमन। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्गद :
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वि० [सं०] जो स्वर्ग पहुँचाता हो। स्वर्ग देनेवाला। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्गदायक :
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वि०=स्वर्गद। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग धेनु :
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स्त्री० [सं०] कामधेनु। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग नदी :
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स्त्री० [सं० स्वर्ग+नदी] आकाश गंगा। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग-पताली :
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स्त्री० [सं० स्वर्ग+पाताल] ऐसा बैल जिसका एक सींग सींधा ऊपर को उठा हुआ और दूसरा सीधा नीचे की ओर झुका हुआ हो। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग पति :
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पुं० [सं०] स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग पुरी :
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स्त्री० [सं०] इन्द्र की पुरी, अमरावती। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग भूमि :
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स्त्री० [सं०] १. एक प्राचीन जनपद जो वाराणसी के पश्चिम ओर था। २. ऐसा स्थान जहाँ स्वर्ग का-सा आनन्द और सुख हो। |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
स्वर्ग मंदाकिनी :
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स्त्री० [सं०] आकाशगंगा। मंदाकिनी। |
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स्वर्ग-योनि :
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पुं० [सं०] यज्ञ, दान आदि वे शुभ कर्म, जिनके कारण मनुष्य स्वर्ग जाता है। |
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स्वर्ग-लाभ :
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पुं० [सं०] स्वर्ग की प्राप्ति।। स्वर्ग पहुँचाना। मरना। |
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स्वर्ग-लोक :
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पुं० दे० ‘स्वर्ग’। |
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स्वर्ग लोकेश :
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पुं० [सं०] १. स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र। २. तन। शरीर। |
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स्वर्ग-वधू :
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स्त्री० [सं०] अप्सरा। |
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स्वर्ग-वाणी :
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स्त्री० [सं० स्वर्ग+वाणी] आकाशवाणी। |
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स्वर्गवास :
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पुं० [सं०] १. स्वर्ग में निवास करना। स्वर्ग में रहना। २. मर कर स्वर्ग जाना। मरना। जैसे–आज उनका स्वर्गवास हो गया। |
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स्वर्गवासी (सिन्) :
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वि० [सं०] [स्त्री० स्वर्गवासिनी] १. स्वर्ग में रहनेवाला। २. जो मरकर स्वर्ग जा चुका हो। मृत। स्वर्गीय। |
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स्वर्गसार :
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पुं० [सं०] ताल के चौदह मुख्य भेदों में से एक। (संगीत) |
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स्वर्ग स्त्री :
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स्त्री० [सं०] अप्सरा। |
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स्वर्गस्थ :
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भू० कृ०, वि० [सं०] १. स्वर्ग में स्थित। स्वर्ग का। २. जो मरकर स्वर्ग जा चुका हो। मृत। स्वर्गीय। |
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स्वर्गापगा :
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स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। मंदाकिनी। |
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स्वर्गामी (मिन्) :
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वि० [सं० स्वर्गमिन्]=स्वर्गगामी। |
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स्वर्गरूढ़ :
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भू० कृ०, वि० [सं०] स्वर्ग सिधारा हुआ। स्वर्ग पहुँचा हुआ। मृत। स्वर्गवासी। |
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स्वर्गरोहण :
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पुं० [सं०] १. स्वर्ग की ओर जाना या चढ़ना। २. मरकर स्वर्ग जाना। |
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स्वर्गवास :
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पुं० [सं०]=स्वर्गवास। |
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स्वर्गिक :
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वि०=स्वर्गीय। |
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स्वर्गि-गिरि :
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पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत, जिसके श्रृंग पर स्वर्ग की स्थिति मानी जाती है। |
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स्वर्गी (गिन्) :
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वि० [सं०]=स्वर्गीय। पुं० देवता। |
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स्वर्गीय :
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वि० [सं०] [स्त्री० स्वर्गीया] १. स्वर्ग-संबंधी। स्वर्ग का। २. स्वर्ग में रहने या होनेवाला। ३. जो मरकर स्वर्ग चला गया हो। (मृत व्यक्ति के लिए आदरसूचक) ४. जिसकी मृत्यु अभी हाल में अथवा कुछ ही दिन पहले हुई हो। (लेट) ५. जिसमें लौकिक पवित्रता या सौन्दर्य की पराकाष्ठा हो। दिव्य। जैसे—स्वर्गीय रूप। |
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स्वर्ग्य :
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वि० [सं०] स्वर्ग-संबंधी। स्वर्ग तक पहुँचानेवाला। |
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स्वर्चन :
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पुं० [सं०] ऐसी अग्नि जिसमें से सुन्दर ज्वाला निकलती हो। |
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स्वर्जि :
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स्त्री० [सं०] १. सज्जी मिट्टी। २. शोरा। |
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स्वर्जिक :
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पुं० [सं०] सज्जी मिट्टी। |
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स्वर्जिकाक्षार :
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पुं० [सं०] जिसने स्वर्ग पर विजय प्राप्त कर ली हो। स्वर्गजेता। पुं० एक प्रकार का यज्ञ। |
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स्वर्ण :
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पुं० [सं०] १. सुवर्ण या सोना नामक बहुमूल्य धातु। कनक। २. धतूरा। ३. नाग केसर। ४. गौर स्वर्ण नामक साग। ५. कामरूप देश की एक नदी। वि० सोने की तरह का पीला। |
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स्वर्णकाय :
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वि० [सं०] जिसका शरीर सोने का अथवा सोने का-सा हो। पुं० गरुड़। |
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स्वर्णकार :
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पुं० [सं०] १. एक जाति जो सोने-चाँदी के आभूषण आदि बनाती है। २. सुनार। |
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स्वर्णकारी :
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स्त्री० [हिं० स्वर्णकार] सोने-चाँदी के गहने आदि बनाने का व्यवसाय। सुनारी। |
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स्वर्ण-कूट :
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पुं० [सं०] हिमालय की एक चोटी। |
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स्वर्ण-केतकी :
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स्त्री० [सं०] पीली केतकी। |
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स्वर्ण-गिरि :
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पुं० [सं०] सुमेरु पर्वत। |
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स्वर्ण-गैरिक :
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पुं० [सं०] सोनोगेरू। |
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स्वर्ण ग्रीवा :
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स्त्री० [सं०] कालिका पुराण के अनुसार एक पवित्र नदी जो नाटक शैल के पूर्वी भाग से निकली हुई मानी गई है। |
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स्वर्ण-चूड़, स्वर्ण-चूल :
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पुं० [सं०] नीलकंठ नामक पक्षी। |
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स्वर्णज :
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वि० [सं०] १. सोने से उत्पन्न। २. सोने का बना हुआ। पुं० १. राँगा वंग। २. सोनामक्खी। |
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स्वर्ण-जयंती :
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स्त्री० [सं०] किसी व्यक्ति, संस्था आदि या किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के जन्म या आरम्भ होने के ५0 वर्ष पूरा होने पर होनेवाली जयंती (गोल्डेन जुबली)। |
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स्वर्णजीवी (विन्) :
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पुं० [सं०] स्वर्णकार। सुनार। |
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स्वर्णद :
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वि० [सं०] १. स्वर्ण या सोना देनेवाला। २. स्वर्ण या सोना दान करनेवाला। |
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स्वर्णदी :
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स्त्री० [सं०] १. मंदाकिनी। स्वर्गंगा। २. कामाख्या के पास की एक नदी। |
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स्वर्ण-द्वीप :
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पुं० [सं०] आधुनिक सुमात्रा द्वीप का मध्ययुगीन नाम। |
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स्वर्ण नाभ :
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पुं० [सं०] एक प्रकार के शालग्राम। |
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स्वर्ण पत्र :
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पुं० [सं०] सोने का पत्तर या तबक। |
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स्वर्ण-पर्पटी :
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स्त्री० [सं०] वैद्यक में एक प्रसिद्ध औषध, जो संग्रहणी रोग के लिए सबसे अधिक गुणकारी मानी जाती है। |
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स्वर्ण पाटक :
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पुं० [सं०] सुहागा जिसके मिलाने से सोना गल जाता है। |
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स्वर्ण-पुष्प :
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पुं० [सं०] १. अमलतास। २. चंपा। ३. कीकर। बबूल। ४. कैथ। ५. पेठा। |
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स्वर्ण-पुष्पा :
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स्त्री० [सं०] १. कलिहारी। लागली। २. सातला नामक थूहर। ३. मेढ़ा-सिंगी। ४. अमलतास। ५. पीली केतकी। |
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स्वर्ण-पुष्पी :
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स्त्री० [सं०] १. स्वर्ण-केतकी। पीला केवड़ा। २. अमलतास। ३. सातला। |
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स्वर्ण-प्रस्थ :
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पुं० [सं०] पुराणानुसार जंबू द्वीप का एक उपद्वीप। |
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स्वर्ण-फल :
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पुं० [सं०] धतूरा। |
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स्वर्ण फला :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ण कपाली। चंपा केला। |
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स्वर्ण-बीज :
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पुं० [सं०] धतूरे का बीज। |
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स्वर्ण-भाज :
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पुं० [सं०] सूर्य। |
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स्वर्ण मय :
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वि० [सं०] १. स्वर्ण से युक्ति। २. जो बिलकुल सोने का हो। जैसे–स्वर्णमय सिंहासन। |
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स्वर्ण-माक्षिक :
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पुं० [सं०] सोनामक्खी नामक उपधातु। |
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स्वर्ण-माता :
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स्त्री० [सं० स्वर्णमातृ] हिमालय की एक छोटी नदी। |
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स्वर्ण-मान :
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पुं० [सं०] अर्थशास्त्र में, सिक्कों के संबंध की वह प्रणाली जिसमें कोई देश अपनी मुद्रा की इकाई या मानक का अर्ध सोने की एक निश्चित तौल के अर्ध के बराबर रखता है। (गोल्ड स्टैन्डर्ड) विशेष–जिस देश में यह प्रणाली प्रचलित रहती है, वहाँ (क) या तो सोने के ही सिक्के चलते हैं या (ख) ऐसी मुद्रा चलती है, जो तत्काल सोने के सिक्कों में बदली जा सकती है या (ग) लोग अपना सोना देकर टकसाल से उसके सिक्के ढलवा सकते हैं। |
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स्वर्ण मानक :
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पुं०=स्वर्णमान। |
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स्वर्ण मीन :
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पुं० [सं०] सुनहले रंग की एक प्रकार की मछली। |
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स्वर्ण-मुखी (खिन्) :
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स्त्री० [सं०] १. मध्ययुग में, 6४ हाथ लंबी, ३२ हाथ ऊँची और ३२ हाथ चौड़ी नाव। २. सनाय। |
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स्वर्ण-मुद्रा :
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स्त्री० [सं०] सोने का सिक्का। अशरफी। |
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स्वर्ण-यूथिक, स्वर्ण-यूथी :
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स्त्री० [सं०] पीली जूही। सोनजूही। |
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स्वर्ण-रंभा :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ण कदली। चंपा केला। |
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स्वर्ण-रस :
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पुं० [सं०] १. मध्यकालीन तांत्रिकों और रासायनिकों की परिभाषा में ऐसा रस, जिसके स्पर्श से कोई धातु सोना बन जाता हो या बन सकती हो। २. परवर्ती रहस्यवादी साधकों या संप्रदायों में वह क्रिया या तत्त्व, जिसमें मन की चंचलता नष्ट होती हो और वह पूर्ण रूप से शांत हो जाता हो। |
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स्वर्ण-रेखा :
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स्त्री०=सुवर्ण-रेखा (नदी)। |
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स्वर्ण लता :
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स्त्री० [सं०] १. मालकंगनी। ज्योतिष्मती। २. पीली जीवंती। |
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स्वर्ण-वज्र :
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पुं० [सं०] एक प्रकार का लोहा। |
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स्वर्ण-वर्ण :
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पुं० [सं०] १. कण-गुग्गल। २. हरताल। ३. सोना गेरू। ४. दारुहलदी। |
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स्वर्ण वर्णा :
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स्त्री० [सं०] १. हलदी। २. दारुहलदी। |
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स्वर्ण वल्ली :
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स्त्री० [सं०] १. सोनावल्ली। रक्तफला। २. पीली जीवंती। |
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स्वर्ण-विंदु :
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पुं० [सं०] १. विष्णु। २. एक प्राचीन तीर्थ। |
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स्वर्ण शिख :
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पुं० [सं०] स्वर्णचूड़ या नीलकंठ नामक पक्षी। |
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स्वर्ण-श्रृंगी (गित्) :
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पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत जो सुमेरु पर्वत के उत्तर ओर माना जाता है। |
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स्वर्ण-सिंदूर :
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पुं०=रस-सिंदूर। |
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स्वर्णाकर :
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पुं० [सं०] सोने की खान। |
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स्वर्णाचल :
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पुं० [सं०] उड़ीसा प्रदेश का भुवनेश्वर नामक तीर्थ। |
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स्वर्णाद्रि :
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पुं० [सं०]=स्वर्णाचल। |
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स्वर्णाभ :
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वि० [सं०] १. सोने की सी आभा या चमकवाला। २. सोने के रंग का। सुनहला। ३. (प्रतिभूति) जो सब प्रकार से सुरक्षित हो और जिसके डूबने या व्यर्थ होने की कोई आशंका न हो। (गिल्टएज्ड) पुं० हरताल। |
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स्वर्णारि :
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पुं० [सं०] १. गंधक। २. सीमा नामक धातु। |
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स्वर्णिम :
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वि० [सं०] सोने का। सुनहला। |
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स्वर्णुली :
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स्त्री० [सं०] एक प्रकार का क्षुप। हेमपुष्पी। सोनुली। |
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स्वर्णोपधातु :
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पुं० [सं०] सोनामक्खी नामक उपधातु। |
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स्वर्धनी :
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स्त्री० [सं०] गंगा। |
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स्वर्नगरी :
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स्त्री० [सं०] स्वर्ग की पुरी, अमरावती। |
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स्वर्नदी :
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स्त्री० [सं०] आकाश-गंगा। |
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स्वर्पति :
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पुं० [सं०] स्वर्ग के स्वामी, इन्द्र। |
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स्वर्भानु :
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पुं० [सं०] १. सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम। २. राहु नामक ग्रह। |
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स्वर्लोक :
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पुं० [सं०] स्वर्ग। |
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स्वर्वधू :
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स्त्री० [सं०] अप्सरा। |
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स्वर्वापी :
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स्त्री० [सं०] गंगा। |
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स्वर्वेश्या :
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स्त्री० [सं०] अप्सरा। |
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स्वर्वैद्य :
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पुं० [सं०] स्वर्ग के वैद्य, अश्विनीकुमार। |
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