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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा

मुकदमा वापस लिया गया


मुकदमा चला। सरकारी वकील, मजिस्ट्रेट आदि घबराये हुए थे। उन्हें सूझ नहीं पड़ रहा था कि किया क्या जाये। सरकारी वकील सुनवाई मुलतवी रखने की माँग कर रहा था। मैं बीच में पड़ा और बिनती कर रहा था कि सुनवाई मुलतवी रखने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि चम्पारन छोड़ने की नोटिस का अनादर करने का अपराध स्वीकार करना है। यह कह कर मैं उस बहुत ही छोटे से ब्यान को पढ़ गया, जो मैंने तैयार किया था। वह इस प्रकार था :

'जाब्ता फौजदारी की दफा 144 के अनुसार दी हुई आज्ञा का खुला अनादर करने का गंभीर कदम मुझे क्यों उठाना पड़ा, इस संबंध में मैं एक छोटा सा ब्यान अदालत की अनुमति से देना चाहता हूँ। मेरी नम्र सम्मति में यह प्रश्न अनादर का नहीं है, बल्कि स्थानीय सरकार और मेरे बीच मतभेद का प्रश्न है। मैं इस प्रदेश में जन-सेवा और देश-सेवा के ही उद्देश्य से आया हूँ। निलहे गोरे रैयत के साथ न्याय का व्यवहार नहीं करते, इस कारण उनकी मदद के लिए आने का प्रबल आग्रह मुझसे किया गया। इसलिए मुझे आना पड़ा है। समूचे प्रश्न का अध्ययन किये बिना मैं उनकी मदद किस प्रकार कर सकता हूँ? इसलिए मैं इस प्रश्न का अध्ययन करने आया हूँ और सम्भव हो तो सरकार और निलहो की सहायता लेकर इसका अध्ययन करना चाहता हूँ। मेरे सामने कोई दूसरा उद्देश्य नहीं है, और मैं यह नहीं मान सकता कि मेरे आने से लोगों की शान्ति भंग होगी औऱ खून-खराबा होगा। मेरा दावा है कि इस विषय का मुझे अच्छा खासा अनुभव है। पर सरकार का विचार इस सम्बन्ध में मुझसे भिन्न है। उनकी कठिनाई को मैं समझता हूँ और मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि उसे प्राप्त जानकारी पर ही विश्वास करना होता है। कानून का आदर करने वाले एक प्रजाजन के नाते तो मुझे यह आज्ञा दी गयी है उसे स्वीकार करने की स्वाभाविक इच्छा होनी चाहिये, और हुई थी। पर मुझे लगा कि वैसा करने में जिनके लिए मैं यहाँ आया हूँ उनके प्रति रहे अपने कर्तव्य की मैं हत्या करूँगा। मुझे लगा है कि आज मैं उनकी सेवा उनके बीच रहकर ही कर सकता हूँ। इसलिए स्वेच्छा से चम्पारन छोड़ना मेरे लिए सम्भव नहीं है। इस धर्म-संकट के कारण मुझे चम्पारन से हटाने की जिम्मेदारी मैं सरकार पर ड़ाले बिना रह न सका।

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