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जीवनी/आत्मकथा >> अरस्तू

अरस्तू

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10541

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सरल शब्दों में महान दार्शनिक की संक्षिप्त जीवनी- मात्र 12 हजार शब्दों में…


एक बार पुनः अरस्तू की उस कक्षा की ओर लौटते हैं जहां सिकंदर आदि विद्यार्थी उपस्थित है और होमर के इलियड की चर्चा होनी है।

अरस्तू सभी विद्यार्थियों की ओर दृष्टि घुमाकर कहता है, ‘‘विद्यार्थियों, इलियड का पठन पूरा हो चुका है। एक बार पुनः संक्षेप में : एकलीस और अगामेनन का आपसी वाक्-द्वन्द्व, एकलीस का क्षोभ और युद्ध त्याग, फलस्वरूप ग्रीकों की पराजय-पर-पराजय, एकलीस के प्रिय सखा की मृत्यु, एकलीस का क्रोध-त्याग, फलतः भयंकर युद्ध और हेक्टर की मृत्यु।

‘‘काव्य का प्रारम्भ होता है एकलीस के क्षोभ से और अंत होता है क्षोभ-त्याग और उसके प्रतिफल से। इलियड का मूल रस वीर है। क्रोध उन आदिम वीरों के नस-नस में छत्ते के मधु की तरह भरा था। क्रोध सुधीजन के भीतर भी आग की तरह सुलगता है और धूम्र की तरह समूची आत्मा पर फैल जाता है। वह धूमाच्छन्न आत्मा अपने सारे अन्य संस्कारों को भूल जाती है। इलियड के पात्र आदिम शूर थे-उनके संस्कारों में आदिम वृत्तियों के साथ वर्तमान था। उनमें पशुत्व का प्रतीक क्रोध और देवत्व का प्रतीक तीव्र भोग लालसा, दोनों अति की सीमा पर थे।’’

सिकंदर की जिज्ञासाएं उत्कंठ हो रही थीं। तनिक विराम मिलते ही उसने अपनी बात रखी-‘‘क्या इलियड का समग्र चित्र घोर करुण नहीं है! शानदार देवोपमबली पुरुष एकलीस, जिसकी नियति भावी जेउस (इन्द्र) बनने की थी, और हेक्टर साधारण मनुष्यों की तरह मरुभूमि में खेत रहे। अंत में कोई यश नहीं। इतने सारे प्रतापों का अर्थ क्या सिर्फ मृत्यु ही है ?’’

अरस्तू सिकंदर के मन के उद्वेलन, उसकी मानसिक प्रतिक्रिया की पराकाष्ठा को समझ रहे थे। स्वर में अतिरिक्त उल्लास भरकर बताया, ‘‘देवचक्र की छाया में मनुष्य जीवन बिताता है जो अंततः उसके सारे शौर्य, क्रौर्य, क्रोध, अभिमान के बावजूद दयनीय है। यही है इलियड की सार्वभौम करुणा। परंतु समग्र मनुष्य की दृष्टि में यह स्थिति दयनीय और करुण होते हुए भी व्यक्तिगत जीवन में शौर्य और कीर्ति के लिए स्थान है। मनुष्य का जीवन सार्वभौम रूप से त्रासद है पर इसी के अंदर मनुष्य अपने व्यक्तिगत स्तर पर शौर्य और कीर्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। यही इलियड का जीवन दर्शन है। सार्वभौम सत्य दार्शनिक स्तर के सत्य हैं और व्यक्ति जीवन में दार्शनिक नहीं व्यावहारिक सत्यों की अपेक्षा होती है।’’

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