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जीवनी/आत्मकथा >> अरस्तू

अरस्तू

सुधीर निगम

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 10541

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सरल शब्दों में महान दार्शनिक की संक्षिप्त जीवनी- मात्र 12 हजार शब्दों में…


दूसरे विद्यार्थी से पूछे जाने पर उसने पूर्व विद्यार्थी का उत्तर दुहरा दिया।

सबसे अंत में प्रश्न सिकंदर से किया गया। अपनी निर्दोष आत्मशक्ति के विश्वास को समेटते हुए उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं नहीं बता सकता। मैं क्या कोई भी नहीं बता सकता कि कल क्या लेकर आएगा ! जब समय आए तब मुझसे ऐसा प्रश्न फिर पूछिएगा। उस समय मैं परिस्थितियों के अनुसार उत्तर दूंगा।’’

सिकंदर के स्वभाव में दूसरों के प्रति उपेक्षा भाव से अनम्यता और अक्खड़ता का आभास भले ही होता हो पर वह दानेदार, खनखनाती वीरवाणी का स्वामी था। मकदूनिया जैसे अर्ध-सभ्य देश में किसी के भी व्यक्तित्व में ऐसी चारित्रिक विशेषताएं सहज ही संचित हो जाती थीं। सिकंदर भी इसका अपवाद नहीं था यद्यपि उसकी प्रारंभिक शिक्षा कठोर गुरुओं के माध्यम से हुई थी। अरस्तू शिष्यों को चिकित्सा, दर्शन, नैतिकता, धर्म, तर्क और कला की शिक्षा देता। उसकी अपनी रुचि राजनीति में इसी समय जाग्रत हुई। उसने मकदूनिया में रहते हुए मोनार्खिया और कोलोनिस्ट्स नामक ग्रंथ लिखे।

अरस्तू ने अपने शिष्य सिकंदर की मनोवृतियों को कोमल बनाने और उन्हें मानवीय संस्पर्श देने के लिए उसे होमर के काव्य ग्रंथ और फ्रिनीखोस आदि के नाट्य-ग्रंथ पढ़ाए। होमर के इलियड में सिकंदर ने विशेष रुचि ली। धीरे धीरे यह रुचि प्रशंसा भाव, फिर पूजा भाव में बदल गई। उसने आजीवन अरस्तू द्वारा दी गई ‘इलियड’ की एक प्रति अपने पास रखी। यह प्रति अरस्तू द्वारा विशेष रूप से सिकंदर के लिए तैयार की गई थी। इसकी टीका स्वयं अरस्तू ने लिखी थी। वह इलियड में रुचि जाग्रत करने के लिए गुरु का आजीवन आभारी बना रहा, यद्यपि राजनीति पर उनके स्पष्ट मतभेद थे। सिकंदर अरस्तू की सहायता करने का कोई अवसर जाने नहीं देता था। बाद में जब अरस्तू ने लीकीयम नामक अपना स्कूल खोला तो पांडुलिपियों की आवश्यकता हुई। तब सिकंदर ने आर्थिक सहायता दी। इसके अतिरिक्त उसने ऐसी दुर्भल पांडुलिपियां उपलब्ध कराईं जिन्हें प्राप्त करना अरस्तू की सामर्थ्य से परे था। गुरु के प्रति सिकंदर का प्रेम और प्रशंसा भाव सदैव बना रहा यद्यपि वे उसके आदर्श दीप स्वयं कभी नहीं रहे। वह कहता, ‘‘मैं अपने जीवन के लिए पिता का ऋणी हूं और उत्तम रीति से जीना सिखाने के लिए ज्ञान देने वाले अरस्तू के प्रति।’’

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