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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

इसी प्रकार की अन्य कुछ बातें उनके मध्य हुईं और चलते-चलते बाग के एक कोने में पहुंच गए। इस समय वन्दना उन सबसे आगे चल रही थी। वन्दना उस खतरे के प्रति सतर्क भी नहीं थी, जो एकदम उसके सिर पर आ गया।

पहले वह एक शेर की दहाड़ से कांप उठी। फिर स्वयं ही उसके पैर धरती से उखड़ गए। न चाहते हुए भी उसका जिस्म हवा में लहराता चला गया और वह केवल इतना 'देख पाई कि वह एक शेर के मुंह में समा गई है। भय से उसकी आखें बन्द हो गईं।

जिस्म को एक झटका लगा तो नेत्र खुल गए।

हुवा में लहराती हुई वह किसी गद्देदार धरती पर आ गिरी थी। इस समय वह एक बहुत ही गहरे और संकरे-से गोल कुएं की धरती पर पड़ी है। धरती पर घास बिछी हुई है। कुएं की दीवारें-यूं ही सपाट बहुत दूर तक चली गई हैं।

इस जादुई करिश्मे से वह चमत्कृत-सी रह गई थी।

कुएं की एक दीवार पर मशाल जल रही थी - जिसके प्रकाश में वन्दना अपने चारों ओर की स्थिति भली-भांति देख सकती थी। न जाने क्या सोचकर उसने एक स्थान से घास हटानी शुरू कर दी। कुछ देर बाद उसने सारी घास कुएं के एक कोने में जमा कर दी। कुएं की धरती में उसे एक गड्ढा नजर आया - उसने गड्ढे में हाथ डाल दिया।

हथेली के बीच एक लोहे की टोंटी-सी आई। टोंटी को उसने दाई ओर घुमा दिया। उसके घूमते ही कुएं में ऐसी आवाज गूंजने लगी, जैसे कोई भारी मशीन कुएं में चल रही हो। कुएं की वह धरती, जिस पर वन्दना और घास थी, कुएं की दीवारों से उसी प्रकार सटी हुई नीचे को खिसकने लगी। कुछ देर बाद कुएं की दीवार में एक दरवाजा नजर आया। इस दरवाजे की केवल चौखट थी, किवाड़ नहीं थे। दरवाजे के निचले हिस्से से अटककर कुएं की धरती रुक गई। वन्दना उसी दरवाजे में से होकर एक कोठरी में पहुंच गई।

जैसे ही उसने कोठरी में पैर रखा-

उसके पीछे गड़गड़ाहट हुई - तेजी से पलटकर वन्दना ने पीछे देखा, कुंए और कोठरी के बीच का दरवाजा बन्द हो चुका था। इस कोठरी में चिराग जल रहा था। एक दीवार पर शानदार फ्रेम में जड़ी हुई अपनी तस्वीर को वन्दना देखती रह गई।

वह कुछ इस तेजी से इस मायाजाल में फंसती चली गई थी कि कुछ समझ नहीं पा रही थी।

हर स्थान पर अनी तस्वीर का मतलब तो उसकी समझ में बिल्कुल नहीं आया था। कोठरी में अन्य कोई वस्तु नहीं थी, वह धीरे-धीरे अपनी तस्वीर की ओर ही बढ़ गई। अभी वह तस्वीर के समीप पहुंची ही थी कि एकाएक कोठरी की छत में एक मोखला बना।

वन्दना ने तेजी से पलटकर उधर देखा, मोखले में इस समय एक आदमी नजर आ रहा था। उसका चेहरा काली स्याही से पुता हुआ था और सूरत पहचान में नहीं आ रही थी।

एक रस्सी उसने कमरे में लटका दी और धीरे से बोला-

''महारानी.. जल्दी से इस पर चढ़ जाएं।''

० ० ०

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