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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

उसके सिर पर लगे ताजे घाव से तेजी-के साथ खून बह रहा था। इसके बावजूद भी अलफांसे ने कम फुर्ती का प्रदर्शन नहीं किया। उन चारों के दर्रे के मोड़ पर घूमने से पहले ही उसने स्वयं को एक विशाल पत्थर की आड़ में छुपा लिया।

उसने देखा - दर्रे के इस तरफ एक पहाड़ी थी। पहाड़ी अधिक ऊंची नहीं थी। अलफांसे के दिमाग में आया.. अगर वह इस पहाड़ी के दूसरी तरफ पहुंच जाए तो शायद वह जासूसों की पकड़ से दूर निकल सके। यह विचार दिमाग में आते ही उसने विचार-को अन्जाम देना शुरू कर दिया। स्वयं को पत्थरों की आड़ में रखता हुआ वह पहाड़ी के ऊपर चढ़ने लगा।

वह ऊपर चढ़ने में व्यस्त था कि तभी उसके कानों से जेम्स बांड का स्वर टकराया-

''तुम बच नहीं सकते, अलफांसे.. जहां भी छुपे हो, सामने आ जाओ।''

अलफांसे ने सुना किन्तु ध्यान नहीं दिया। वह अपने कार्य में व्यस्त रहा। प्रतिपल वह पहाड़ी के दूसरी ओर पहुंचता गया। उस समय सूर्य अस्त होना चाहता था, जब वह पहाड़ी के दूसरी ओर पहुंच चुका था। अब वह जासूसों के खतरे के प्रति सन्तुष्ट हो चुका था। उसके चारों ओर सन्नाटा था। चारों ओर दूर-दूर तक फैली हुई पहाड़ियां थीं - वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि उसे किधर बढ़ना चाहिए। अनेकों प्रश्नवाचक चिन्ह उसके मस्तिष्क को जकड़े हुए थे। कुछ भी नहीं सूझा तो वह यूं ही एक तरफ को बढ़ गया।

चलते-चलते उसे रात हो गई.. इन्सान तो इन्सान, किसी प्राणी तक से उसका सामना न हो सका।

तीन दिन और तीन रात अलफांसे भूखा-प्यासा इन पहाड़ियों में भटकता रहा। चौथे दिन का प्रभात था, जब उसने स्वयं को एक पहाड़ी की चोटी पर पाया। सामने उसे घना हरा-भरा जंगल दिखाई दे रहा था। उस जंगल तक पहुंचने के लिए पहाड़ी के नीचे उतरना था। शायद उसे यहां जीवन का कोई चिन्ह मिल जाए - यही धारणा लिए वह नीचे उतरने लगा।

जब वह पहाड़ी से नीचे उतरा तो संध्या हो चुकी थी।

वह बुरी तरह थककर चूर हो गया था, इसलिए वहीं बैठकर सुस्ताने लगा। उस समय सूर्य की अन्तिम लालिमा से सारा गगन लाल था जब वह उठकर जंगल की ओर चला। जंगल में घुसा तो घूमते-घूमते रात हो गई। एक वृक्ष से कुछ अजीब-से फल खाकर उसने अपना पेट अवश्य भर लिया था।

उसे अनुमान नहीं था कि उस समय रात का क्या समय था, जब अचानक वातावरण में तेजी से हवा चलने लगी। कुछ ही देर बाद न जाने कहां से बादलों ने आकर गगन पर डेरा जमा लिया, देखते-ही-देखते तीव्र वेग से वर्षा होने लगी।

सारा जंगल सांय-सांय करने लगा।

वातावरण बेहद डरावना होता चला गया। जोर-जोर से बिजली कड़कने लगी। अलफांसे एक वृक्ष के तने पर भयभीत बन्दर की भांति लिपटा बैठा था। एकाएक बड़ी जोर की गड़गड़ाहट के साथ बिजली चमकी।

सारा जंगल क्षण मात्र के लिए प्रकाश से नहा गया।

इस प्रकाश में अलफांसे ने जंगल के मध्य बनी उस विशाल हवेली को देखा और चौंक पड़ा। बिजली चमककर पुन: विलुप्त हो गई थी। अत: अब वह उस हवेली को नहीं देख सकता था-किन्तु क्षण मात्र के लिए उसे चमकने वाली ये हवेली उसके मस्तिष्क में एक अन्य प्रश्नवाचक चिन्ह बनकर खड़ी हो गई।

उसकी दृष्टि उसी ओर जमी हुई थी...। बिजली पुन: तेज गड़गड़ाहट के साथ चमकी। इस बार अलफांसे ने स्पष्ट देखा - वास्तव में जंगल के बीच एक विशाल हवेली बनी हुई थी। न जाने क्यों, अलफांसे की आखों में चमक उभर आई। निरन्तर कई दिन से उसने किसी आदमी की सूरत नहीं देखी थी - न जाने उसे क्यों यह विश्वास हुआ कि इस हवेली में निश्चय ही कोई-न-कोई मानव होगा।

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