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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

आठवाँ बयान

आओ प्यारे पाठको - अब हम जरा बागीसिंह के पिता की खबर लेते हैं। अब जरा सतर्क होकर बैठ जाइए - एक, जैसे ही दो रहस्य हम आपके समक्ष खोल रहे हैं, किन्तु हम विश्वास करते हैं कि रहस्य जानने के वाद आपकी जिज्ञासा और भी अधिक बढ़ जाएगी। दो जबरदस्त ऐयारों के बीच टक्कर चल रही है - अब ये देखना है कि कौन किसको किस-ढंग से धोखा देता है।

बागीसिंह के अधेड़ पिता ने भी नीचे, लोहे के कमरे में पड़े अलफांसे को देखकर और संतुष्ट होकर चबूतरे वाला खाली स्थान बन्द कर दिया। उसने अपने ऐसारी के कपड़े पहने। कमन्द बांधा, बटुआ, तलवार और एक विशेष ढंग से लैस होकर कमरे से बाहर निकल आया। बाग में आकर वह तेजी के साथ उत्तर दिशा की ओर बढ़ा। कुछ ही देर बाद वह एक पतली-सी सुरंग में से गुजर रहा था।

इस सुरंग का मार्ग हमने जान-बूझकर यहां नहीं लिखा है, क्योंकि हम जल्दी से जल्दी पाठकों को एक दिलचस्प रहस्य से अवगत कराना चाहते हैं।

अधेड़ के हाथ में एक मोमबत्ती है और वह बढ़ता चला जा रहा है। सुरंग में एक स्थान पर वह रुक जाता है। सुरंग के बीचोबीच एक गोल कुंआ बना हुआ है। कुएं के चारों ओर किसी प्रकार की दीवार नहीं है। वह धीरे से कुएं के एक किनारे पर पहुंचता है।

उसी क्षण-कुएं के अन्दर एक विशाल शेषनाग अपना फन ऊपर उठाता है और फुफकार के साथ वह अधेड़ को डस लेता है। असलियत है कि वह शेषनाग किसी निश्चित मार्ग पर पहुंचने का गुप्त मार्ग है। शेषनाग का ऊपरी भाग अर्थात विशाल फन कपड़े का है, जिस पर शेषनाग की खाल, जैसी ही कोई खाल चढ़ा दी गई है। कुछ नीचे जाकर स्प्रिंग लगा है और उसका बाकी कुएं के अन्दर आने वाला जिस्म टीन का बना हुआ चौड़ा और लम्बा गोल डिब्बा-सा है।

किसी विशेष कारीगर ने ये शेषनाग तैयार किया है।

इस नकली शेषनाग के अन्दर से सीधा रपटता हुआ अधेड़ घास के एक ढेर पर जाकर गिरता है।

अधेड़ इस मार्ग का जैसे अभ्यस्त हो। वह उछलकर घास पर खड़ा हो जाता है। घास का ये ढेर एक कोठरी में पड़ा था। कोठरी में आले में रखा एक चिराग जल रहा है। दीवार के सहारे जंजीरों में जकड़ा एक आदमी पड़ा है। उस आदमी के सारे कपड़े फटे हुए हैं। ऐसा लगता है जासे वह काफी लम्बे समय से इस कोठरी में पड़ा सड़ रहा हो। भूख-प्यास से निढाल वह धरती पर औधे मुंह पड़ा है।

अधेड़ के होंठों पर एक अजीब गर्वीली मुस्कान नृत्य कर उठती है!

आगे बढ़कर वह कैदी के समीप पहुंचता है और बाल पकड़कर ऊपर उठाता है। एक दर्द-भरी चीख के साथ उसका चेहरा ऊपर उठता है। कमाल ये है कि कैदी का चेहरा अधेड़ के चेहरे से सौ प्रतिशत मिलता है।

''गिरधारीसिंह।'' अधेड़ गुर्राकर कहता है - तुझे अपने बेटे बागीसिंह पर बड़ा गर्व था ना? सुन-आज उसी बेटे ने बहुत बड़ा धोखा खाया है। उसने अलफांसे को गिरफ्तार किया, लेकिन मेरे पास छोड़कर चला गया। वह बेचारा यह नहीं जानता कि उसका सबसे बड़ा दुश्मन मैं ही तो हूं---तुम यह कहा करते थे ना.... कि बागीसिंह पहचान जाएगा कि मैं उसका बाप नहीं हूं और वह तुम्हारा पता लगा लेगा. लेकिन न तो वह मेरी ऐयारी को काट सका और न ही यहां तक पहुंच सका... हां, उसका अन्त अब निश्चित हो चुका है।''

''अधर्म की कभी विजय नहीं हुआ करती, शामा।'' बागीसिंह का असली पिता यानी गिरधारीसिंह बोला- ''अपने बागीसिंह को मैंने ऐयारी सिखाई है - वह तुम्हारे हाथ में नहीं आएगा - याद रखना वह दिन बहुत जल्दी आने वाला है जब ईश्वर मुझे तुम्हारी इस नरक समान कैद से मुक्त करेगा, उस दिन मैं तुमसे गिन-गिन कर बदले लूंगा।''

''क्यों?'' व्यंग्यात्मक स्वर में शामा बोला- ''दोस्त की पत्नी से सम्बन्ध रखना शायद धर्म होता है?''

'मैं तुमसे कह चुका हूं कि भाभी से मेरे सीता और लक्ष्मण जैसे सम्बन्ध थे।'' गिरधारीसिंह बोला- ''तुम्हें यकीन नहीं आता तो मैं इसमें क्या कर सकता हूं - अगर भाभी जिन्दा होतीं तो खुद ही कहतीं।''

''तूने उसे जिन्दा छोड़ा होता.. तभी तो जिन्दा होती, पापी।'' गुर्राकर कहा शामा ने- ''तूने उसकी हत्या कर दी.. उसी दिन से मेरा बेटा बलदेवसिंह गायब हो गया - हालांकि उसकी लाश नहीं मिली, लेकिन मुझे यकीन है कि तूने उसे भी मार दिया है।''

'बकता है तू।'' गिरधारीसिंह चीखा- ''मैंने किसी को नहीं मारा।''

''असलियत मैं जानता हूं।'' एकाएक कोठरी में गूंजने वाली इस तीसरी आवाज ने उन दोनों को चौंका दिया।

० ० ०

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