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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

नौवाँ बयान

अब हमें बूढ़े गुरु का हाल लिखना मुनासिब जान पड़ता है, क्योंकि उस वृक्ष पर बैठे-बैठै अब वे ऊबने की अन्तिम सीमा तक पहुंच चुके हैं। रात समाप्त होने वाली है और वे टकटकी लगाए उसी छोटे-से मन्दिर की ओर देख रहे हैं - उनके दिल में तरह-तरह के विचार उठ रहे हैं।

बागीसिंह अलफांसे को लेकर मन्दिर में क्यों गया है? वह अभी तक लौटा क्यों नहीं? कहां गायब हो गया? इत्यादि इसी प्रकार के अनेक सवाल उनके मस्तिष्क में चकरा रहे हैं। जब पहर-भर रात रह जाती है तो वे निश्चय करते हैं कि मन्दिर में चलकर देखा जाए।

वे वृक्ष से उतरने की सोच ही रहे थे कि चौंक पड़े।

उन्हें मन्दिर के अहाते में एक साया नजर आता है। वे ध्यान से उसे देखने लगते हैं। साया तेज कदमों के साथ चलता हुआ बाहर आता है और जिस वृक्ष के ऊपर बूढ़े गुरु बैठे हैं.. उसके नीचे से निकलकर आगे बढ़ जाता है।

''बागीसिंह।'' उसे पहचानकर बूढ़े गुरु बड़बड़ा उठते हैं -'अलफांसे को कहां छोड़ आया?'

एक विचार तो उनके दिमाग में आता है कि मन्दिर के अन्दर जाएं और अलफांसे को वास्तविकता बताकर उसे अपने साथ ले लें किन्तु फिर सोचते हैं कि क्यों न इस समय बागीसिंह की ही खबर ली जाए.. इस समय वह कहां जा रहा है और क्या करना चाहता है। उन्होंने मस्तिष्क में जन्मे दूसरे विचार को ही कार्यान्वित करने की ठानी - और बागीसिंह का पीछा करने लगे।

कोई आधा कोस जाने के बाद बागीसिंह एक मोटी जड़ वाले पीपल के नीचे रुक जाता है। सावधानीवश वह इधर-उधर देखता है, उस समय बूढ़े गुरु उससे काफी दूर एक पेड़ के पीछे खड़े हैं। बागीसिंह पीपल की जड़ में बैठकर कुछ करता है। इसके बाद पीपल की जड़ के अन्दर समाते हुए बागीसिंह को देखकर गुरु की आंखे सन्देह से सिकुड़ जाती हैं।

उसके कुछ देर बाद बूढ़े गुरु भी-पीपल की जड़ में पहुंच जाते हैं।

वे टटोलकर देखते हैं - एक छोटी-सी कील उनके हाथ में आ जाती और वे कील को दाहिनी तरफ घुमाने का प्रयास करते हैं, कील नहीं घूमती। फिर बाईं तरफ घुमाते हैं -- कील बांई तरफ भी नहीं घूमती, किन्तु नीचे दबाते ही पीपल की मोटी जड़ में एक रास्ता बन जाता है - वे उसी के अन्दर समा जाते हैं। बटुए से एक मोमबत्ती निकालकर जलाते हैं, अन्धकार पर विजय पाता हुआ प्रकाश उन्हें मार्ग दिखाता रहा।

नीचे जाने के लिए एक लोहे की सीढ़ी बनी हुई है।

बूढ़े गुरु नीचे उतर जाते हैं -- वृक्ष का रास्ता स्वयं ही बन्द हो चुका है।

नीचे उतरने के बाद वे स्वयं को एक गुफा के अन्दर पाते हैं।

खोज-बीन करने में उन्हें अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती। सुरंग के दाहिनी ओर लगभग पच्चीस कदम आगे एक कमरे से किसी चिराग का प्रकाश झांक रहा है। अपनी मोमबत्ती बुझाकर वे धीरे से उस तरफ बढ़ जाते हैं। समीप पहुंचकर सावधानी के साथ कोठरी में झांककर देखते हैं। यह देखकर वे आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि बागीसिंह जंजीरों में कैद पड़ा है और एक और बागीसिंह सामने खड़ा है। कैदी बागीसिंह का स्वर उनके कानों से टकराता है--

''मेरा भी वक्त आएगा.. मेरे पिता गिरधारीसिंह से तुम ऐयारी में मुकाबला नहीं कर सकोगे। एक दिन वे मेरा पता लगा लेंगे और मुझे यहां से निकालकर ले जाएंगे। वह दिन तुम्हारा अन्तिम दिन होगा।''

''आज मैं तुम्हें ये बताने आया हूं कि तुम्हारे पिता का जीवन मैं सुबह तक बर्बाद कर दूंगा।''

''लेकिन तुम हमारे पीछे क्यों पड़े हो?'' कैदी बागीसिंह ने पूछा--''तुम्हारी हमसे दुश्मनी क्या है ?''

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