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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

'आखिर प्यारेलाल, तुम चाहते क्या हो ?'' विजय ने गौरव की आंखों में झांकते हुए प्रश्न किया।

'सबसे पहले तो यही यकीन दिलाना चाहता हूं कि मैं आपका पुत्र हूं।'' गौरव ने उसी सम्मान के साथ कहा।

'अगर प्यारे, तुम ये कहने लगे कि सूरज सन् अट्ठाइस में पश्चिम से निकलकर पूरब में ड़ूबता था तो हम कैसे यकीन कर लेंगे?''

'लेकिन ये बात दूसरी है, पिताजी।'' गौरव ने कहा।

विजय को यह पिताजी शब्द बड़ा अजीब-सा लगा, उसने घूरकर गौरव को देखा। किन्तु उसके चेहरे पर वह मासूमियत के अतिरिक्त किसी भी प्रकार के भाव नहीं पढ़ सका। विजय को लगा कि वह व्यक्ति बहुत बड़ा अभिनेता है। परन्तु उसकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि आखिर ये व्यक्ति इतने सफल अभिनय के साथ खुद को उसका पुत्र साबित करके अपने कौन से षड्यंत्र अथवा उद्देश्य में सफल होना चाहता है? उसने निश्चय किया कि इसकी चक्करदार बातों का जवाब मुझे भी उसी ढंग से देना चाहिए - इस तरह शायद ये व्यक्ति सीधा हो सके, बिजय बोला----''वैसे प्यारे आपका लेबिल क्या है?''

जी-लेबिल!'' गौरव चकरा-सा गया-''मैं आपका मतलब नहीं समझा।''

'वस प्यारे-इसी तरह मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा।'' विजय बोला-''खैर, तुम अपना नाम बताओ।''

गौरवसिंह।''

'कहां की पैदावार हो ?''

'जी।'' गौरव पुनः चकरा गया।

'मेरा मतलव कहां पैदा हुए - कहां रहते हो?''

' 'जी, मैं भरतपुर में पैदा हुआ और वहीं रहता हूं।'' गौरव ने उत्तर दिया।

''तुम्हारी उम्र क्या होगी?''

'यही कोई चालीस वर्ष।''

'और तुम्हारी जानकारी के लिए हम तुम्हें बता दें प्यारे गौरव मियां कि हमारी भी चालीस साल की बांकी उम्र है।'' विजय अपने ही ढंग से अपने ही मूड में बोला--''अब प्यारे तुम ही सोचो कि तुम हमारे पुत्र कैसे हो सकते हो - हमारे ख्याल से तो दुनिया में कभी ऐसा हुआ नहीं होगा कि चालीस वर्ष के बाप का चालीस साल का ही पुत्र हो - फिर तुम हमें जरा सिद्ध करके दिखाओ कि हम तुम्हारे वाप और तुम हमारे पुत्र कैसे हो गए?''

'ओह! आपका मतलब इससे था।'' गौरव एकदम इस प्रकार बोला, मानो खुश हो गया हो।

'जी हां।'' विजय उसी की नकल उतारता हुआ बोला-''अब जरा ये भी बता दो कि तुम्हारे माता-पिता का नाम क्या है?''

देवकांता।'' गौरव ने जवाब दिया।

' देवकांता ?'' विजय ने पूछा--''ये कौन से युग का नाम है, प्यारे ?'' - ''मेरा विचार है पिताजी कि आप समझे नहीं।'' गौरव ने कहा-- 'देवकांता मेरे माता-पिता का नाम है, अर्थात पिता का नाम देवसिंह और माता का नाम कांन्ता और मैं देवकांता की सन्तति यानी सन्तान हूं - मेरी एक बहन भी है - वन्दना।''

देव और कांता।

ये दो नाम विस्फोट से वनकर विजय के मस्तिष्क पर फट गए। उसका सिर चकराने लगा। इस बार उसने ध्यान से गौरव को देखा और बोला-''लेकिन प्यारेलाल मेरा नाम तो देवसिंह नहीं है - फिर तुम हमारे पीछे क्यों हाथ धोकर पड़े हो?''

'मैं जानता हूं कि इस समय आपका नाम विजय है।'' गौरव ने कहा-''लेकिन मुझे यकीन है कि मेरी मां और अपनी पत्नी कांता को देखते ही आप सबकुछ समझ जाएंगे--अगर हुक्म हो तो मैं मां को बुलवा दूं?''

विजय को लगा - जैसे उसके मस्तिष्क पर कोई जोर-जोर से हथौड़े बरसा रहा है। उसे लगने लगा जैसे उसके मस्तिष्क में कीड़ा सो रहा है जैसे वह कीड़ा कह रहा है--'देव. ..देव...कांता. कांता...देवकांता....।'

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