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देवकांता संतति भाग 1

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2052

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

'हां, मैं माँ को साथ लाया हूं।'' गौरव ने कहा।

'जल्दी कांता को मेरे सामने लाओ।'' विजय न जाने किस मूड में आ गया था।

'रोशनसिंह।'' गौरव ने तुरन्त एक आदमी को आदेश दिया-''जल्दी से भागकर मां को सूचना दो कि मैं पिता को ले आया हूं। पिताजी उन्हें बुला रहे हैं। उन्हें तुरन्त यहां ले आओ अब उनको जिन्दगी में किसी प्रकार का कोई दुःख नहीं रहेगा।''

रोशनसिंह नामक आदमी तुरन्त उस कमरे से बाहर चला गया।

विजय के मस्तिष्क में एक तेज तूफान चल रहा था। उसके दिमाग मे तेजी से हजारों विचारों का आवागमन हो रहा था। वह स्वयं नहीं समझ पा रहा था कि उसका दिमाग क्यों परेशान है। उसे अचानक क्या हो गया है।

'देव।'' अचानक एक नारी स्वर उसकी विचार-श्रृंखला तोड़ देता है-''मेरे प्राणनाथ.,.मेरे देवता.. मेरे भगवान!''

विजय तेजी से पलटकर कमरे के दरवाजे की ओर देखता है। वहां एक औरत खड़ी है - अत्यन्त बूढ़ी औरत। परन्तु फिर भी बेहद सुन्दर - उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हुई हैं - चेहरे की हड्डियां उभरी हुई.. मानो वह एक लम्बे समय से विरह की अग्रि में जल रही हो। उसके जिस्म पर एक दूध जैसी सफेद और साफ धोती है। बूढ़ी आंखों में आंसू हैं। उसने 'देव' कहकर विजय को पुकारा था। उसकी आवाज में असीम दर्द था - मानो अभी फूट-फूटकर रो पड़ेगी। कमरे में एक चिराग जल रहा था। चिराग के इस क्षीण-से पीले प्रकाश में द्वार पर खड़ी वह बूढ़ी औरत रूह-सी लग रही थी। विजय ने देखा, उसने अपनी बाहें फैला रखी थीं और खड़ी-खड़ी कांप रही थी।

'कांता!'' एकदम पागल-सा होकर चीख पड़ा विजय। न जाने उसे एकदम क्या हो गया कि वह उस बूढ़ी औरत की बांहों में समाने के लिए मचल उठा, उसका सारा चेहरा सुर्ख हो गया। सारी दुनिया को भूलकर वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति से चीखा-''कांता...!''

बूढ़ी कांता उसकी तरफ दौड़ी - विजय कांता की तरफ।

विजय की बांहें भी इस कदर फैल गई थीं, मानो सदियों से बिछुड़ा हुआ प्रेमी अपनी प्रेमिका को वांहों में लेने के लिए तड़प उठा हो। वे दोनों पागल होकर एक-दूसरे की ओर लपके!

और फिर-एक झटके से वे एक-दूसरे की बांहों में समा गए।

गौरव के साथ उसके सभी साथियों के होंठों पर अजीब-सी मुस्कान नृत्य कर उठी। कांता नामक वह बुढ़िया और विजय इस प्रकार एक-दूसरे से लिपटे जा रहे थे, मानो एक-दूसरे के जिस्म में समा जाना चाहते हों। विजय.. विजय जैसे पागल हो गया था। इस समय विजय का एक नया रूप देखने को मिल रहा था। गले मिले-ही-मिले.... विजय रो पड़ा। कांता पहले ही फूट-फूटकर रो रही थी 1

विजय.. विजय रो रहा था, कदाचित् जीवन में पहली बार।

सारी दुनिया को भूलकर विजय और कांता एक-दूसरे की बांहों में समाए हुए थे। उन दोनों को कमरे में उपस्थित अन्य किसी का भी जैसे कोई आभास ही नहीं था। और उधर गौरवसिंह ने अपने आदमियों को वहां से हटने का संकेत दिया। वे सब चुपचाप कमरे से बाहर निकल गए। स्वयं गौरवसिंह भी कमरे से बाहर चला गया और बाहर से उसने इस कमरे का दरवाजा बंद कर दिया।

उसके बाहर जाते ही बूढ़ी कांता ने एकदम रंग बदला। उसके हाथ में एक कागज था, जिसमें सफेद चूर्ण था। उसने वह चूर्ण विजय की नाक के सामने अड़ा दिया। सांस के साथ उसकी सुगंध विजय के मस्तिष्क में घुसती चली गई। एक क्षण बाद वह बेहोश होकर कांता की बांहों में झूल गया। कांता.. जो अभी तक बूढ़ी और शक्तिहीन नजर आती थी एकदम उसकी बांहों में इतनी शक्ति आ गई कि उसने बेहोश विजय को अपनी बांहों में समा लिया। इसके बाद उसने धीरे-धीरे उसे धरती पर लिटा दिया।

इस समय कांता की फुर्ती दर्शनीय थी।

उसने जल्दी से अपनी धोती के नीचे कमर पर बंधा कमन्द निकाला और दूसरे कमरे की छत में बने रोशनदान पर अटका दिया। उसने तेजी से अपनी सफेद साड़ी उतार दी और इसके नीचे उसने सलवार और कुर्ता पहन रखा था। धोती में उसने जल्दी से विजय को बांधा। गठरी कन्धे पर लटकाई और फुर्ती के साथ कमन्द पर चढ़कर रोशनदान पर पहुंच गई। कदाचित वह विजय को लेकर जल्दी-से-जल्दी गौरवसिंह इत्यादि से दूर निकल जाना चाहती थी।

और अगले ही पल वह बेहोश विजय के साथ रोशनदान के दूसरी ओर फुर्ती के साथ उतर रही थी।

चारों ओर सन्नाटा-सा छाया हुआ था।

० ० ०

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