ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
सूतजी कहते हैं- महर्षियो! नारदमुनि की ऐसी बात सुनकर भगवान् मधुसूदन हँस पड़े और भगवान् शंकरके प्रभाव का अनुभव करके उन दयालु प्रभु ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया-
भगवान् विष्णु बोले- मुने! तुम अपने अभीष्ट स्थान को जाओ। मैं उसी तरह तुम्हारा हितसाधन करूँगा, जैसे श्रेष्ठ वैद्य अत्यन्त पीड़ित रोगी का करता है; क्योंकि तुम मुझे विशेष प्रिय हो।
ऐसा कहकर भगवान् विष्णु ने नारदमुनि को मुख तो वानर का दे दिया और शेष अंगों में अपने-जैसा स्वरूप देकर वे वहाँ से अन्तर्धान हो गये। भगवान् की पूर्वोक्त बात सुनकर और उनका मनोहर रूप प्राप्त हो गया समझकर नारदमुनि को बड़ा हर्ष हुआ। वे अपने को कृतकृत्य मानने लगे। भगवान् ने क्या प्रयत्न किया है इसको वे समझ न सके। तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ नारद शीघ्र ही उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ राजा शीलनिधि ने राजकुमारों से भरी हुई स्वयंवर-सभा का आयोजन किया था। विप्रवरो! राजपुत्रों से घिरी हुई वह दिव्य स्वयंवर-सभा दूसरी इन्द्रसभा के समान अत्यन्त शोभा पा रही थी। नारदजी उस राजसभा में जा बैठे और वहाँ बैठकर प्रसन्न मन से बार-बार यही सोचने लगे कि 'मैं भगवान् विष्णु के समान रूप धारण किये हुए हूँ। अत: वह राजकुमारी अवश्य मेरा ही वरण करेगी, दूसरे का नहीं।' मुनिश्रेष्ठ नारद को यह ज्ञात नहीं था कि मेरा मुँह कितना कुरूप है। उस सभा में बैठे हुए सब मनुष्यों ने मुनि को उनके पूर्वरूप में ही देखा। राजकुमार आदि कोई भी उनके रूप-परिवर्तन के रहस्य को न जान सके। वहाँ नारदजी की रक्षा के लिये भगवान् रुद्र के दो पार्षद आये थे, जो ब्राह्मण का रूप धारण करके गूढ़भाव से वहाँ बैठे थे। वे ही नारदजी के रूप-परिवर्तन के उत्तम भेद को जानते थे। मुनि को कामावेश से मूढ़ हुआ जान वे दोनों पार्षद उनके निकट गये और आपस में बातचीत करते हुए उनकी हँसी उड़ाने लगे। परंतु मुनि तो काम से विह्वल हो रहे थे। अत: उन्होंने उनकी यथार्थ बात भी अनसुनी कर दी। वे मोहित हो श्रीमती को प्राप्त करने की इच्छा से उसके आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।
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