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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय ५

नारदजी का शिवतीर्थों में भ्रमण, शिवगणों को शापोद्धार की बात बताना तथा ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्माजी से शिवतत्त्व के विषय में प्रश्न करना

सूतजी कहते हैं- महर्षियो! भगवान् श्रीहरि के अन्तर्धान हो जाने पर मुनिश्रेष्ठ नारद शिवलिंगों का भक्तिपूर्वक दर्शन करते हुए पृथ्वीपर विचरने लगे। ब्राह्मणो! भूमण्डल पर घूम-फिरकर उन्होंने भोग और मोक्ष देनेवाले बहुत-से शिवलिंगों का प्रेमपूर्वक दर्शन किया। दिव्यदर्शी नारदजी भूतल के तीर्थों में विचर रहे हैं और इस समय उनका चित्त शुद्ध है - यह जानकर वे दोनों शिवगण उनके पास गये। वे उनके दिये हुए शाप से उद्धार की इच्छा रखकर वहाँ गये थे। उन्होंने आदरपूर्वक मुनि के दोनों पैर पकड़ लिये और मस्तक झुकाकर भलीभांति प्रणाम करके शीघ्र ही इस प्रकार कहा-

शिवगण बोले- ब्रह्मन्! हम दोनों शिव के गण हैं। मुने! हमने ही आपका अपराध किया है। राजकुमारी श्रीमती के स्वयंवर में आपका चित्त माया से मोहित हो रहा था। उस समय परमेश्वर की प्रेरणा से आपने हम दोनों को शाप दे दिया। वहाँ कुसमय जानकर हमने चुप रह जाना ही अपनी जीवन- रक्षा का उपाय समझा। इसमें किसी का दोष नहीं है। हमें अपने कर्म का ही फल प्राप्त हुआ है। प्रभो! अब आप प्रसन्न होइये और हम दोनोंपर अनुग्रह कीजिये।

नारदजी ने कहा- आप दोनों महादेवजी के गण हैं और सत्पुरुषों के लिये परम सम्माननीय हैं। अत: मेरे मोहरहित एवं सुखदायक यथार्थ वचन को सुनिये। पहले निश्चय ही मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी, बिगड़ गयी थी और मैं सर्वथा मोह के वशीभूत हो गया था। इसीलिये आप दोनों को मैंने शाप दे दिया। शिवगणो! मैंने जो कुछ कहा है वह वैसा ही होगा, तथापि मेरी बात सुनिये। मैं आपके लिये शापोद्धार की बात बता रहा हूँ। आपलोग आज मेरे अपराध को क्षमा कर दें। मुनिवर विश्रवा के वीर्य से जन्म ग्रहण करके आप सम्पूर्ण दिशाओं में प्रसिद्ध (कुम्भकर्ण-रावण) राक्षसराज का पद प्राप्त करेंगे और बलवान्, वैभव से युक्त तथा परम प्रतापी होंगे। समस्त ब्रह्माण्ड के राजा होकर शिवभक्त एवं जितेन्द्रिय होंगे और शिव के ही दूसरे स्वरूप श्रीविष्णु के हाथों मृत्यु पाकर फिर अपने पदपर प्रतिष्ठित हो जायँगे।

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