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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

अध्याय ७

भगवान् विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव, शिवेच्छावश ब्रह्माजी का उससे प्रकट होना, कमलनाल के उद्गम का पता लगाने में असमर्थ ब्रह्मा का तप करना, श्रीहरि का उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा-विष्णु के बीच में अग्नि-स्तम्भ का प्रकट होना तथा उसके ओर-छोर का पता न पाकर उन दोनों का उसे प्रणाम करना

ब्रह्माजी कहते हैं- देवर्षे! जब नारायणदेव जल में शयन करने लगे, उस समय उनकी नाभि से भगवान् शंकरके इच्छावश सहसा एक उत्तम कमल प्रकट हुआ, जो बहुत बड़ा था। उसमें असंख्य नालदण्ड थे। उसकी कान्ति कनेर के फूल के समान पीले रंग की थी तथा उसकी लम्बाई और ऊँचाई भी अनन्त योजन थी। वह कमल करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशित हो रहा था, सुन्दर होने के साथ ही सम्पूर्ण तत्त्वों से युक्त था और अत्यन्त अद्भुत, परम रमणीय, दर्शन के योग्य तथा सबसे उत्तम था। तत्पश्चात् कल्याणकारी परमेश्वर साम्ब सदाशिव ने पूर्ववत् प्रयत्न करके मुझे अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया। मुने! उन महेश्वर ने मुझे तुरंत ही अपनी माया से मोहित करके नारायणदेव के नाभिकमल में डाल दिया और लीलापूर्वक मुझे वहाँ से प्रकट किया। इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में मुझ हिरण्यगर्भ का जन्म हुआ। मेरे चार मुख हुए और शरीर की कान्ति लाल हुई। मेरे मस्तक त्रिपुण्ड्र की रेखा से अंकित थे। तात! भगवान् शिव की माया से मोहित होने के कारण मेरी ज्ञानशक्ति इतनी दुर्बल हो रही थी कि मैंने उस कमल के सिवा दूसरे किसी को अपने शरीर का जनक या पिता नहीं जाना। मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरा कार्य क्या है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूँ और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है - इस प्रकार संशय में पड़े हुए मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ- 'मैं किसलिये मोहमें पड़ा हुआ हूँ? जिसने मुझे उत्पन्न किया है उसका पता लगाना तो बहुत सरल है। इस कमलपुष्प का जो पत्रयुक्त नाल है उसका उद्गमस्थान इस जलके भीतर नीचे की ओर है। जिसने मुझे उत्पन्न किया है वह पुरुष भी वहीं होगा - इसमें संशय नहीं है।'

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