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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

ऐसा निश्चय करके मैंने अपने को कमल से नीचे उतारा। मुने! मैं उस कमल की एक-एक नाल में गया और सैकड़ों वर्षों तक वहाँ भ्रमण करता रहा, किंतु कहीं भी उस कमल के उद्गम का उत्तम स्थान मुझे नहीं मिला। तब पुन: संशय में पड़कर मैं उस कमलपुष्प पर जाने को उत्सुक हुआ और नाल के मार्ग से उस कमल पर चढ़ने लगा। इस तरह बहुत ऊपर जाने पर भी मैं उस कमल के कोश को न पा सका। उस दशा में मैं और भी मोहित हो उठा। मुने! उस समय भगवान् शिव की इच्छा से परम मंगलमयी उत्तम आकाशवाणी प्रकट हुई, जो मेरे मोह का विध्वंस करनेवाली थी। उस वाणीने कहा- 'तप' (तपस्या करो)। उस आकाशवाणी को सुनकर मैंने अपने जन्मदाता पिता का दर्शन करने के लिये उस समय पुन: प्रयत्नपूर्वक बारह वर्षों तक घोर तपस्या की। तब मुझ पर अनुग्रह करने के लिये ही चार भुजाओं और सुन्दर नेत्रों से सुशोभित भगवान् विष्णु वहाँ सहसा प्रकट हो गये। उन परम पुरुष ने अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। उनके सारे अंग सजल जलधर के समान श्याम कान्ति से सुशोभित थे। उन परम प्रभु ने सुन्दर पीताम्बर पहन रखा था। उनके मस्तक आदि अंगों में मुकुट आदि महामूल्यवान् आभूषण शोभा पाते थे। उनका मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला हुआ था। मैं उनकी छविपर मोहित हो रहा था। वे मुझे करोड़ों कामदेवों के समान मनोहर दिखायी दिये। उनका वह अत्यन्त सुन्दर रूप देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे साँवली और सुनहरी आभा से उद्भासित हो रहे थे। उस समय उन सदसत्स्वरूप, सर्वात्मा, चार भुजा धारण करनेवाले, महाबाहु नारायणदेव को वहाँ उस रूप में अपने साथ देखकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ।

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