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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

उस समय श्रीहरि यह सोचने लगे कि 'यह अग्निस्तम्भ यहाँ कहाँ से प्रकट हुआ है? हम दोनों फिर इसकी परीक्षा करें। मैं इस अनुपम अनल स्तम्भ के नीचे जाऊँगा।' ऐसा विचार करते हुए श्रीहरि ने वेद और शब्द दोनों के आवेश से युक्त विश्वात्मा शिव का चिन्तन किया। तब वहाँ एक ऋषि प्रकट हुए, जो ऋषि-समूह के परम साररूप माने जाते हैं। उन्हीं ऋषि के द्वारा परमेश्वर श्रीविष्णु ने जाना कि इस शब्दब्रह्ममय शरीरवाले परमलिंग के रूप में साक्षात् परब्रह्मस्वरूप महादेवजी ही यहाँ प्रकट हुए हैं। ये चिन्तारहित (अथवा अचिन्त्य) रुद्र हैं। जहाँ जाकर मनसहित वाणी उसे प्राप्त किये बिना ही लौट आती है उस परब्रह्म परमात्मा शिव का वाचक एकाक्षर ॐ (प्रणव) ही है वे इसके वाच्यार्थरूप हैं। वह परम कारण, ऋत, सत्य, आनन्द एवं अमृतस्वरूप परात्पर परब्रह्म एकाक्षर का बाच्य है। प्रणव के एक अक्षर अकार से जगत् के बीजभूत अण्डजन्मा भगवान् ब्रह्मा का बोध होता है। उसके दूसरे एक अक्षर उकार से परम कारणरूप श्रीहरि का बोध होता है और तीसरे एक अक्षर मकार से भगवान् नील-लोहित शिव का ज्ञान होता है। अकार सृष्टिकर्ता है उकार मोह में डालनेवाला है और मकार नित्य अनुग्रह करनेवाला है। मकार-बोध्य सर्वव्यापी शिव बीजी (बीजमात्र के स्वामी) हैं और 'अकार' संज्ञक मुझ ब्रह्मा को 'बीज' कहते हैं। 'उकार' नामधारी श्रीहरि योनि हैं। प्रधान और पुरुष के भी ईश्वर जो महेश्वर हैं वे बीजी, बीज और योनि भी हैं। उन्हीं को 'नाद' कहा गया है। (उनके भीतर सब का समावेश है।) बीजी अपनी इच्छा से ही अपने बीज को अनेक रूपों में विभक्त करके स्थित हैं।

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