ई-पुस्तकें >> शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिताहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...
इन बीजी भगवान् महेश्वर के लिंग से अकार रूप बीज प्रकट हुआ, जो उकार रूप योनि में स्थापित होकर सब ओर बढ़ने लगा। वह सुवर्णमय अण्ड के रूप में ही बताने योग्य था। उसका और कोई विशेष लक्षण नहीं लक्षित होता था। वह दिव्य अण्ड अनेक वर्षों तक जल में ही स्थित रहा। तदनन्तर एक हजार वर्ष के बाद उस अण्ड के दो टुकड़े हो गये। जल में स्थित हुआ वह अण्ड अजन्मा ब्रह्माजी की उत्पत्ति का स्थान था और साक्षात् महेश्वर के आघात से ही फूटकर दो भागों में बँट गया था। उस अवस्था में उसका ऊपर स्थित हुआ सुवर्णमय कपाल बड़ी शोभा पाने लगा। वही द्युलोक के रूप में प्रकट हुआ तथा जो उसका दूसरा नीचेवाला कपाल था, वही यह पाँच लक्षणों से युक्त पृथिवी है। उस अण्ड से चतुर्मुख ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिनकी 'क' संज्ञा है। वे समस्त लोकों के स्रष्टा हैं। इस प्रकार वे भगवान् महेश्वर ही 'अ, 'उ' और 'म्' इन त्रिविध रूपों में वर्णित हुए हैं। इसी अभिप्राय से उन ज्योतिर्लिंगस्वरूप सदाशिव ने 'ओ३म्' ओ३म्' ऐसा कहा- यह बात यजुर्वेद के श्रेष्ठ मन्त्र कहते हैं। यजुर्वेद के श्रेष्ठ मन्त्रों का यह कथन सुनकर ऋचाओं और साममन्त्रों ने भी हमसे आदरपूर्वक कहा- 'हे हरे! हे ब्रह्मन्! यह बात ऐसी ही है।' इस तरह देवेश्वरशिव को जानकर श्रीहरि ने शक्तिसम्भूत मन्त्रों द्वारा उत्तम एवं महान् अभ्युदय से शोभित होनेवाले उन महेश्वरदेव का स्तवन किया। इसी बीच में मेरे साथ विश्वपालक भगवान् विष्णु ने एक और भी अद्भुत एवं सुन्दर रूप देखा। मुने! वह रूप पाँच मुखों और दस भुजाओं से अलंकृत था। उसकी कान्ति कर्पूर के समान गौर थी। वह नाना प्रकार की छटाओं से छविमान् और भाँति-भाँति के आभूषणों से विभूषित था। उस परम उदार, महापराक्रमी और महापुरुष के लक्षणों से सम्पन्न अत्यन्त उत्कृष्ट रूप का दर्शन करके मैं और श्री हरि दोनों कृतार्थ हो गये।
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