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शिव पुराण भाग-2 - रुद्र संहिता

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :812
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2079

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भगवान शिव की महिमा का वर्णन...

नारद! पहले के पाद्मकल्प की बात है मुझ ब्रह्मा के मानस पुत्र पुलस्त्य से विश्रवा का जन्म हुआ और विश्रवा के पुत्र वैश्रवण (कुबेर) हुए। उन्होंने पूर्वकाल में अत्यन्त उग्र तपस्या के द्वारा त्रिनेत्रधारी महादेव की आराधना करके विश्वकर्मा की बनायी हुई इस अलकापुरी का उपभोग किया। जब वह कल्प व्यतीत हो गया और मेघवाहन कल्प आरम्भ हुआ, उस समय वह यज्ञदत्त का पुत्र, जो प्रकाश का दान करनेवाला था, कुबेर के रूप में अत्यन्त दुस्सह तपस्या करने लगा। दीपदान मात्र से मिलने वाली शिव-भक्ति के प्रभाव को जानकर वह शिव की चित्प्रकाशिका काशिकापुरी में गया और अपने चित्तरूपी रत्नमय प्रदीपों से ग्यारह रुद्रों को उद्बोधित करके अनन्यभक्ति एवं स्नेह से सम्पन्न हो वह तन्मयतापूर्वक शिव के ध्यान में मग्न हो निश्चलभाव से बैठ गया। जो शिव की एकता का महान् पात्र है तपरूपी अग्नि से बढ़ा हुआ है, काम- क्रोधादि महाविघ्नरूपी पतंगों के आघात से शून्य है, प्राणनिरोधरूपी वायुशून्य स्थान में निश्चलभाव से प्रकाशित है, निर्मल दृष्टि के कारण स्वरूप से भी निर्मल है तथा सद्भावरूपी पुष्पों से जिसकी पूजा की गयी है ऐसे शिवलिंग की प्रतिष्ठा करके वह तबतक तपस्या में लगा रहा, जबतक उसके शरीर में केवल अस्थि और चर्ममात्र अवशिष्ट नहीं रह गये। इस प्रकार उसने दस हजार वर्षों तक तपस्या की। तदनन्तर विशालाक्षी पार्वतीदेवी के साथ विश्वनाथ कुबेर के पास आये। प्रसन्नचित्त से अलकापति की ओर देखा। वे शिवलिंग में मन को एकाग्र करके ढूँठे काठ भांति स्थिरभाव से बैठे थे। 

भगवान् शिव ने उनसे कहा- 'अलकापते! मैं वर देने के लिये उद्यत हूँ। तुम अपना मनोरथ बताओ।'

यह वाणी सुनकर तपस्या के धनी कुबेर ने ज्यों ही आँखें खोलकर देखा, त्यों ही उमावल्लभ भगवान् श्रीकण्ठ सामने खड़े दिखायी दिये। वे उदयकाल के सहस्त्रों सूर्यों से भी अधिक तेजस्वी थे और उनके मस्तक पर चन्द्रमा अपनी चाँदनी बिखेर थे। भगवान् शंकरके तेज से उनकी आखें चौंधिया गयीं। उनका तेज प्रतिहत हो गया और वे नेत्र बंद करके मनोरथ से भी परे विराजमान देवदेवेश्वर शिव से बोले- 'नाथ! मेरे नेत्रों को वह दृष्टिशक्ति दीजिये, जिससे आपके चरणारविन्दों का दर्शन हो सके। स्वामिन्! आपका प्रत्यक्ष दर्शन हो, यही मेरे लिये सबसे बड़ा वर है। ईश! दूसरे किसी वर से मेरा क्या प्रयोजन है। चन्द्रशेखर! आपको नमस्कार है।'

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