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शिवसहस्रनाम

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :16
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2096

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भगवान शिव के सहस्त्रनाम...


सुखानिल: सुनिष्पन्न: सुरभि: शिशिरात्मक:।
वसन्तो माधवो ग्रीष्मो नभस्यो बीजवाहन:।।८१।।

६३३ सुखानिल: - सुखदायक वायु को प्रकट करने वाले शरत्कालरूप, ६३४ सुनिष्पन्न: - जिसमें अन्त का सुन्दर रूप से परिपाक होता है वह हेमन्तकालरूप, ६३५ सुरभि: शिशिरात्मक: - सुगन्धित मलयानिल से युक्त शिशिर-ऋतुरूप, ६३६ वसन्तो माधव: - चैत्र-वैशाख-इन दो मासों से युक्त वसन्त रूप, ६३७ ग्रीष्म: - ग्रीष्म-अनुरूप, ६३८ नभस्य: - भाद्रपद मास रूप, ६३९ बीजवाहन: - धान आदि के बीजों की प्राप्ति करानेवाला शरत्काल ।।८१।।

अंगिरा गुरुरात्रेयो विमलो विश्ववाहन:।
पावन: सुमतिर्विद्वांस्त्रैविद्यो वरवाहन:।।८२।।

६४० अंगिरा गुरु: - अंगिरा नामक ऋषि तथा उनके पुत्र देवगुरु बृहस्पति, ६४१ आत्रेय: - अत्रिकुमार दुर्वासा, ६४२ विमल: - निर्मल, ६४३ विश्ववाहन: - सम्पूर्ण जगत्‌ का निर्वाह करानेवाले, ६४४ पावन: - पवित्र करनेवाले, ६४५ सुमतिर्विद्वान् - उत्तम बुद्धिवाले विद्वान्, ६४६ त्रैविद्य: - तीनों वेदों के विद्वान् अथवा तीनों वेदों के द्वारा प्रतिपादित, ६४७ वरवाहन: - वृषभरूप श्रेष्ठ वाहन वाले ।।८२।।

मनोबुद्धिरहङ्कार: क्षेत्रज्ञ: क्षेत्रपालक:।
जमदग्निर्बलनिधिर्विगालो विश्वगालव:।।८३।।

६४८ मनोबुद्धिरहंकार: - मन, बुद्धि और अहंकार स्वरूप, ६४१ क्षेत्रज्ञ: - आत्मा, ६५० क्षेत्रपालक: - शरीररूपी क्षेत्र का पालन करनेवाले परमात्मा, ६५१ जमदग्नि: - जमदग्नि नामक ऋषिरूप, ६५२ बलनिधि: - अनन्त बल के सागर, ६५३ विगाल: - अपनी जटा से गंगाजी के जल को टपकाने वाले, ६५४ विश्वगालव: - विश्वविख्यात गालव मुनि अथवा प्रलयकाल में कालाग्निस्वरूप से जगत्‌ को निगल जाने वाले।।८३।।

अघोरोऽनुत्तरो यज्ञ: श्रेष्ठो नि:श्रेयसप्रद:।
शैलो गगनकुन्दाभो दानवारिररिंदम:।।८४।।

६५५ अघोर: - सौम्यरूपवाले, ६५६ अनुतर: - सर्वश्रेष्ठ, ६५७ यज्ञ: श्रेष्ठ: - श्रेष्ठ यज्ञरूप, ६५८ नि:श्रेयसप्रद: -कल्याणदाता, ६५९ शैल: - शिलामय लिंगरूप, ६६० गगनकुन्दाभ: - आकाशकुन्द-चन्द्रमा के समान गौर कान्तिवाले, ६६१ दानवारि: - दानव-शत्रु, ६६२ अरिंदम: - शत्रुओं का दमन करनेवाले।।८४।।

रजनीजनकश्चारुर्निःशल्यो लोकशल्यधृक्।
चतुर्वेदश्चतुर्भावश्चतुरश्चतुरप्रिय:।।८५।।

६६३ रजनीजनकश्चारुः - सुन्दर निशाकर-रूप, ६६४ नि:शल्य: - निष्कण्टक, ६६५ लोकशल्यधृक् - शरणागतजनों के शोक-शल्य को निकालकर स्वयं धारण करनेवाले, ६६६ चतुर्वेद: - चारों वेदों के द्वारा जानने योग्य, ६६७ चतुर्भाव: -चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करानेवाले, ६६८ चतुरश्चतुरप्रिय: -चतुर एवं चतुर पुरूषों के प्रिय।।८५।।

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