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शिवसहस्रनाम

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :16
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2096

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भगवान शिव के सहस्त्रनाम...


आम्नायोऽथ समाम्नायस्तीर्थदेवशिवालय:।
बहुरूपो महारूप: सर्वरूपश्चराचर:।।८६।।

६६१ आम्नाय: - वेदस्वरूप, ६७० समाम्नाय: - अक्षरसमाम्नाय-शिवसूत्ररूप, ६७१ तीर्थदेवशिवालय: - तीर्थों के देवता और शिवालय रूप, ६७२ बहुरूप: - अनेक रूपवाले, ६७३ महारूप: - विराट्-रूपधारी, ६७४ सर्वरूपश्चराचर: - चर और अचर सम्पूर्ण रूपवाले।।८६।।

न्यायनिर्मायको न्यायी न्यायगम्यो निरञ्जन:।
सहसमूर्द्धा देवेन्द्र: सर्वशम्भुप्रभञ्जन:।।८७।।

६७५ न्यायनिर्मायको न्यायी - न्यायकर्ता तथा न्यायशील, ६७६ न्यायगम्य: - न्याययुक्त आचरण से प्राप्त होने योग्य, ६७७ निरञ्जन: - निर्मल, ६७८ सहसमूर्द्धा - सहस्रों सिरवाले, ६७९ देवेन्द्र: - देवताओं के स्वामी, ६८० सर्वशम्भुप्रभञ्जन: - विपक्षी योद्धाओं के सम्पूर्ण शस्त्रों को नष्ट कर देनेवाले।।८७।।

मुण्डो विरूपो विक्रान्तो दण्डी दान्तो गुणोत्तम:।
पिङ्गलाक्षो जनाध्यक्षो नीलग्रीवो निरामय:।।८८।।

६८१ मुण्ड: - मुँडे हुए सिरवाले संन्यासी, ६८२ विरूप: - विविध रूपवाले, ६८३ विक्रान्त: - विक्रमशील, ६८४ दण्डी - दण्डधारी, ६८५ दान्त: - मन और इन्द्रियों का दमन करनेवाले, ६८६ गुणोत्तम: - गुणों में सबसे श्रेष्ठ, ६८७ पिङ्गलाक्षः - पिंगल नेत्रवाले, ६८८ जनाध्यक्ष: - जीवमात्र के साक्षी, ६८१ नीलग्रीव: - नीलकण्ठ, ६९० निरामय: - नीरोग।।८८।।

सहस्रबाहु: सर्वेश: शरण्य: सर्वलोकधृक्।
पद्यासन: परं ज्योति: पारम्पर्य्यफलप्रद:।।८९।।

६९१ सहस्रबाहु: - सहस्रों भुजाओं से युक्त, ६९२ सर्वेश: - सबके स्वामी, ६९३ शरण्य: - शरणागत हितैषी, ६९४ सर्वलोकधृक् - सम्पूर्ण लोकों को धारण करनेवाले, ६९५ पद्मासन: - कमल के आसन पर विराजमान, ६९६ परं ज्योति: - परम प्रकाशस्वरूप, ६९७ पारम्पर्य्यफलप्रद: - परम्परागत फल की प्राप्ति करानेवाले।।८९।।

पद्मगर्भो महागर्भो विश्वगर्भो विचक्षण:।
परावरज्ञो वरदो वरेण्यश्च महास्बन:।। ९०।।

६९८ पद्मगर्भ: - अपनी नाभि से कमल को प्रकट करने वाले विष्णुरूप, ६१९ महागर्भ: - विराट् ब्रह्माण्ड को गर्भ में धारण करने के कारण महान् गर्भवाले, ७०० विश्वगर्भ: - सम्पूर्ण जगत्‌ को अपने उदर में धारण करनेवाले, ७०१ विचक्षण: - चतुर, ७०२ परावरज्ञः - कारण और कार्य के ज्ञाता, ७०३ वरद: - अभीष्ट वर देने वाले, ७०४ वरेण्य: - वरणीय अथवा श्रेष्ठ, ७०५ महास्वन: - डमरू का गम्भीर नाद करनेवाले।।१०।।

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