उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘रात के खाने का समय हो गया था। मुश्ताक आया और बोला, ‘बड़े साहब ने कहला भेजा है कि वह आपके साथ खाना लेंगे। आप तैयार हो जाइए। वह आने ही वाले हैं।’’
‘‘मैं अपने बैड रूम सें चली गई और अपने सूटकेस में से वस्त्र निकाल बदलने लगी। अभी तैयार ही हो रही थी कि बाहर घण्टी बजी और मुश्ताक की आवाज आई, ‘हुजूर! चलिए।’’
‘‘खाने पर बैठे तो गवर्नर जनरल बहादुर माँ के विषय में पूछते रहे। उन्होंने पूछा, ‘तुम्हारी माँ क्या काम करती है आजकल, और क्या वह अपने जीवन से प्रसन्न है?’’
‘‘मैंने बताया, माँ घर पर ही रहती हैं। बहुत कम बाहर निकलती है। सप्ताह में एक दिन शॉपिंग के लिए जाती हैं। रविवार के दिन गिरजाघर भी जाती हैं। परन्तु उसे वह सोशल फंक्शन से अधिक नहीं मानतीं। एक दिन बता रही थीं कि किसी क्लब में जाने के स्थान पर वह गिरजाघर में जाने वालों से मेलजोल अधिक पसन्द करती हैं।’’
‘और तुम भी गिरजाघर में जाती हो?’
‘कभी कभार! जब मुझे वहां अपनी किसी सखी से मिलना होता है। वैसे अपनी ‘लौकेलिटी’ में एक ‘फ्रेंण्ड्स’ के नाम की क्लब है। मैं उसकी सदस्य हूं। मेरे प्रायः मित्र क्लब के सदस्य हैं।’
‘तुम अब विश्वविद्यालय छोड़ने के उपरान्त क्या करती हो?’’
‘‘मुझे सर्विस करने की आवश्यकता नहीं है। साथ ही मेरी रुचि किसी की नौकरी करने में नहीं है। मैंने घर पर एक छोटा-सा पुस्तकालय बनाना आरम्भ कर दिया है और एक लेखिका बनने की अभिलाषा रखती हूं। एक वर्ष में मेरे केवल दो लेख वहां की एक मैगज़ीन ‘ट्रैंड’ में छपे हैं। मैंने एक लेख इतिहास की पत्रिका ‘दि वर्ल्ड’ में भी भेजा है। आशा करती हूं कि वह प्रकाशित हो जायेगा।’’
|