उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘इतना कह वह एकाएक गली से निकल गई। इसके बाद एक दिन मेरे पिताजी मुझ से मुश्ताक के पते पर मिलने आये। मैं उनसे मिली। पिताजी ने कहां, ‘‘अब तुम भ्रष्ट हो चुकी हो। तुम अब हमारे लायक नहीं रहीं। इस पर भी तुम खाती-पीती मालूम होती हो। इससे हम प्रसन्न हैं।’’
‘‘मैं बाज़ार में माँ को देखकर और घर पर अपने पिताजी को देख-कर भी रोती रही थी। यह लाचारी के आंसू थे।’’
‘‘यह कहानी सुन मैं परेशानी अनुभव करती थी। मैंने पूछा, ‘मगर तुम अब तो प्रसन्न हो?’’
‘‘हुजूर! मुझे किसी किस्म की जिस्मानी तलकीफ नहीं। इस पर भी मेरा मन अति दुःखी है। माँ-बाप, भाई-बहन सब छूट गये हैं और खाविन्द का परिवार भी नहीं बना। भगवान की दृष्टि में यह ठीक नहीं हुआ। यदि यह उसकी इच्छानुसार होती तो इस विवाह का कुछ तो फल निकलता।’
‘‘मुझे दिखाई दिया कि यह औरत मुश्ताक अहमद से अधिक समझदार और साफ-सुथरी है। मैंने पूछ लिया, ‘कुछ पढी-लिखी भी हो क्या?’
‘जब मेरा अपहरण हुआ था तब मैं स्कूल की आठवीं श्रेणी में पढ़ती थी। मगर खाविन्द के घर में उस पढ़ाई का कुछ भी काम नहीं रहा। इस कारण अब सब कुछ भूल गई हूं।’
‘अच्छा, अब देर हो गई है। मैं तुमसे फिर मिलूंगी। बताओ, आ सकोगी न?’
‘खाविन्द की रजामन्दी से ही आ सकती हूं।’
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