उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘अतः मेरे शोध-प्रबन्ध का प्रथम अध्याय इसी विषय पर लिखा गया है। मैंने वर्तमान विज्ञान की धारणा में प्रमाण हीनता तथा युक्ति विहीनता का निरूपण किया है।’’
‘‘सब युक्तियां और प्रमाण तो मैं समय के अभाव के कारण आपके समक्ष वर्णन नहीं कर सकती। केवल एक युक्ति और एक प्रमाण ही रखूंगी।
‘‘प्रमाण तो यह है कि जब जन्तुओं और वनस्पतियों में ‘क्रासब्रीडिंग (अन्तर्जातीय संयोग) से सन्तान निर्माण की गयी है। उस मिश्र जाति का बीज निर्माण नही हो सका। घोड़े और गधे के संयोग से खच्चर उत्पन्न कर, खच्चर से खच्चर उत्पन्न नहीं हो सकता अथवा कलमी पौधों का बीज निर्माण नहीं हो सकता। इससे यह परिणाम निकलता है कि प्रकृति में एक जाति से दूसरी जाति की सृष्टि नहीं हो सकती।
‘‘युक्ति भी प्राचीन विचार की ही पुष्टि करती है। जब प्रकृति छोटे-छोटे जीवों को बना सकती है तो बड़ों को भी बना सकती है। जो कहते हैं कि छोटे जीव पहले बने, वे भी आज उन छोटे-जीवों की उत्पत्ति जड़ पदार्थों से होती दिखा नहीं सकते। इसी प्रकार बड़े-बड़े जीव आरम्भ में ही बने। ये भी, बिना माता-पिता के, जीवों की सृष्टि आज नहीं दिखा सकते। अतः आरम्भ में कैसे हुआ, यह अनुमान जिसे अंग्रेज़ी में ‘इनफरेन्स’ कहते हैं, से ही आज पता चलता है। वह अनुमान यह है कि सृष्टि-क्रम आज भी वही है जो आदि सृष्टि में होना चाहिए। प्रकृति में माता और पिता के गुणों वाले तत्त्व कहां हैं? इसे ढूंढना पड़ेगा। ये नाईट्रोजन और हाईड्रोजन में तो है नहीं। हां, इनका आभास सूर्य किरण और भू-गर्भ में दिखाई देता है।’’
‘सूर्य और पृथ्वी के गर्भ से आज भी माता और पिता का कार्य करने वाले तत्त्वों का आभास मिलता है।’’
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