उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘अतः मेरे निबन्ध का प्रथम अध्याय सृष्टि-रचना पर है। दूसरा अध्याय वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने पर है। यह ज्ञान सृष्टि रचना से पहले भी था। ईश्वर अनादि है तो उसका ज्ञान आदि और अन्त वाला नहीं हो सकता। ऐसा न मानने से कभी ईश्वर को अज्ञानी भी मानना होगा। अतः पृथ्वी पर सृष्टि उत्पन्न होने के समय ईश्वरीय ज्ञान विश्व में तरंगों के रूप में प्रसारित हो रहा था। इसे विद्वान् मनुष्यों ने सुना, समझा और मानवी में वर्णन कर दिया। यह वेद हैं। वेद पुराने होने के साथ सर्वश्रेष्ठ और सत्य भी हैं।’’
‘‘तीसरा अध्याय है मानवकृत ग्रन्थ। वे वेदों से घटिया हैं। ऐसा होना भी चाहिए। मानव अल्प ज्ञानवान होने से पूर्ण ज्ञान तथा सदा सत्य सिद्ध होने वाली बात नहीं कह सकता।
‘‘बाह्मण ग्रन्थ, उपनिषद् और ज़िन्दावस्था, अंजील, कुरान इत्यादि, ग्रन्थ मनुष्य कृत होने से अधूरे ज्ञान का ही वर्णन करते हैं।
‘‘इस प्रकार मेरे निबन्ध के अन्तिम शब्द यह हैं कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है। इनके समझने से सत्य ज्ञान का परिचय प्राप्त होता है। समझने के लिए बुद्धि का निर्मल होना आवश्यक है। बुद्धि योगाभ्यास से निर्मल होती है।’’
मैत्रेयी ने अपना वक्तव्य समाप्त किया तो एक अश्विनीकुमार, जो स्थानीय समाचार-पत्र के प्रतिनिधि थे, ने कह दिया, ‘‘मैडम! यह सब ठीक है, परन्तु इसमें समाचार के योग्य सामग्री तो है नहीं?’’
‘‘तो आप मुझसे समाचार पूछ रहे थे?’’
‘‘मुझे तो तेजकृष्णजी के कथन से यही समझ में आया था कि हमें कल समाचार-पत्र में देने के लिए कुछ आपसे प्राप्त हो सकेगा।’’
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