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उपन्यास >> आशा निराशा

आशा निराशा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7595

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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...


‘‘अंग्रेंज़ी की एक कहावत है कि युद्ध में और प्रेम के विषय में प्रत्येक प्रकार का व्यवहार क्षम्य है।’’

‘‘परन्तु माँ के सम्मुख तो युद्ध और प्रेम हो सकता ही नहीं। मैंने इसी कारण इनको आपसे बात करने के लिए कहा है। जिससे कि यह अपने सत्य हृदय की बात कह और कर सकें।’’

‘‘मैंने इसे कभी झूठ कहते नहीं सुना। परन्तु मैं तुम्हारे अपने मन की बात ही पूछ रही हूं।’’

‘‘मैंने इसे कभी झूठ कहते नहीं सुना। परन्तु मैं तुम्हारे अपने मन की बात ही पूछ रही हूं।’’

‘‘माताजी! मैंने तो इनके कहने पर ही कहा है कि पहले माता जी का आशीर्वाद प्राप्त कर लेना चाहिए।’’

यशोदा ने अपने सामने रखा दलिया खाते हुए विचार करना आरम्भ कर दिया। उसे परिणाम पर पहुंचते में दो मिनट ही लगे। उसने कहा, ‘‘मैं समझती हूं कि तेज और मैं भी इंग्लैंड तो चल ही रहे हैं। यदि विवाह इसके पिता के सामने हो सके तो ठीक रहेगा।

‘‘तेज के विवाह के समाचार पर तो शकुन्तला भी इंग्लैंड जाने की इच्छा करने लगेगी। शकुन्तला जायेगी तो उसका पति भी जाएगा। इस कारण पूर्ण परिवार की उपस्थिति में ही विवाह हो सकेगा।’’

इसमें उत्तर देने को कुछ नहीं था। मैत्रेयी चुपचाप दलिया लेती रही। तेजकृष्ण भी चुपचाप अल्पाहार ले रहा था। एकाएक यशोदा ने कह दिया, ‘‘मैं अभी शकुन्तला को पार दे देती हूं कि तेज के विवाह पर उसे निमन्त्रण है और वह इंग्लैंड चलने के लिए तैयार होकर आये।’’

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