उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘मैं इसे इतना चंचल स्वभाव नहीं समझता था; प्रत्युत् मैं तो इसे एक ‘टिंडिम’ माँ का ‘टिमिड’ बच्चा समझा करता था। यहां तो यह लड़कियों से भागता मालूम देता था।’’
यशोदा और मैत्रेयी परेशानी में एक दूसरे का मुख देख रही थीं। एकाएक मैत्रेयी ने कहा, ‘‘माताजी! मैं ऑक्सफोर्ड जा रही हूं। मैं समझती हूं कि मुझे वहां अपने पहुँचने की सूचना देनी चाहिए।’’
इस पर मिस्टर बागड़िया ने कह दिया, ‘‘ठहरो! गाड़ी को वापस आ जाने दो। यह हमारी सब कल्पना मात्र हो सकती है।’’
मैत्रेयी अपना ब्रीफ केस ले एक सोफा पर जा बैठी और ब्रीफ केस खोल अपने कागज-पत्र देखने लगी। वास्तव में वह अपने मन की चंचलता को छुपाने का यत्न कर रही थी।
यशोदा उसके पास जा बैठी और पूछने लगी, ‘‘देखो बेटी! मैं तेज को इतना दुर्बल मन वाला नहीं समझती। कदाचित् अभी भी हमारा विचार गलत ही सिद्ध हो।
‘‘कुछ भी हो। तुम मेरी बेटी ही रहोगी। शकुन्तला के समान ही तुम मुझे प्रिय होगी। इस पर भी अभी ठहरो। ड्राइवर के लौटने की प्रतीक्षा करो और तब तक चाय इत्यादि का प्रबन्ध हो जाता है।’’
शकुन्तला तो बाथ रूम में चली गई और मोहनचन्द अपने श्वसुर से अपने कलकत्ता में व्यापार की बातें कर समय व्यतीत करने लगा।
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