उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘नहीं। वही कर रही हूं। मैं तुमसे मिलने ही आयी थी। जब इतने दिन तक तुम्हारा कोई पत्र नहीं आया तो विचार आया कि पता करना चाहिये। इस कारण ही यहीं आयी हूँ और तुमसे भेट अभी समाप्त नहीं हुई।’’
‘‘आप टैक्सी छोड़ दीजिये। आवश्यकता पर टैक्सी मंगवायी जा सकती है।’’
यशोदा बाहर गयी और टैक्सी का भाड़ा दे आयी। इतने समय तक मैत्रेयी ने फ्लैट में लगे टेलीफोन से कैन्टीन में चाय इत्यादि का आर्डर कर दिया।
यशोदा आयी तो मैत्रेयी ने कहा, ‘‘माताजी! मैं समझी थी, कि आपसे सम्पर्क एक स्वप्न था जो व्यतीत हो चुका है। परन्तु अब आपके इतनी दूर केवल मुझसे मिलने के लिए आने पर यह अनुभव होने लगा है कि वह स्वप्न नहीं था। जो कुछ उन पन्द्रह-सोलह दिन में आपके घर में रहते हुए हुआ था, वह वास्तविक घटना थी।’’
‘‘और उस वास्तविक घटना में तेज भी तो था।’’
‘‘हां! वास्तविक जीवन में भी तो कभी-कभी ऐसे लोगों से सम्पर्क बन जाता है जिनसे सम्पर्क होने पर पश्चात्ताप लगता है। परन्तु आपके सुपुत्र की छाया में आप भी विस्मरण हो गयी थीं। मैं आपसे क्षमा माँगती हूं।’’
‘‘कुछ हानि नहीं हुई। तुम मिल गयी हो और देखने से यह समझी हूं कि स्वस्थ और सानन्द हो।’’
इस समय कैन्टीन का आदमी ट्रे में चाय और साथ-केक-पेस्ट्री और ‘स्नैक्स’ ले आया।
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