उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
|
203 पाठक हैं |
जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘तो आप आशा करती थीं कि उस व्यवहार के उपरान्त जो आपके पुत्र ने मेरे साथ किया है, मैं आपको पत्र लिखूंगी?’’
‘‘परन्तु मैत्रेयी! तुम्हें वहां से चलते समय मैंने कुछ कहा था जो तुम भूल गयी प्रतीत होती हो।’’
‘‘माताजी! स्मरण है। आपने कहा था कि मैं आपके लिये शकुन्तला के समान ही आपकी लड़की रहूंगी। परन्तु मैं समझती हूं कि बहन भी भाई की इस प्रकार की अवहेलना सहन न करती।
‘‘माताजी! यह विवाह की ही बात नहीं थी। यह उनके पहले सोलह-सत्रह दिनों के सौजन्यतापूर्ण व्यवहार के उपरान्त एकाएक अनजान बन, भाग जाने की बात थी।’’
‘‘परन्तु मैं तो अपने विषय में कह रही हूं। इस समय दोनों फ्लैट के ‘सिटिंग रूम’ में आ सोफा पर बैठ गयीं थी। यशोदा ने पूछ लिया, ‘‘क्या लड़की भाई से झगड़ा होने पर माँ से झगड़ा कर लेती है।’’
‘‘आप यह बताइये। कहां ठहरी हैं?’’
‘‘मैं ठहरी तो होटल में हूं। यहां टैक्सी पर आयी हूं। पहले विश्वविद्यालय के इण्डौलोजी के विभाग में गयी और वहां से पता पाकर यहां गयी हूं।’’
‘‘और आप ऑक्सफोर्ड में किसी काम से आयी हैं?’’
‘‘हां।
‘‘तो काम हो चुका है?’’
|