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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘भगवान से उसका सिर माँगने के लिए, जो मुझे पापी कह रहा है।’’

‘‘मैं तुमसे भाव-ताव करने के लिए आया हूँ। पचीस रुपए लोगे?’’

‘‘अब एक सौ। पचास लड़के-लड़की के विवाह से पूर्व मिलन को छिपाने के लिए और पचास बड़ौज के मुझको पापी कहने के बदले में।’’

‘‘परन्तु पापी तो तुम हो ही। रुपया लेकर तुम भगवान की बात बदलना चाहते हो?’’

‘‘नही, तुम झूठ बोलते हो। यह तो तुम्हारे बेटे का पाप छिपाने के लिए माँग रहा हूँ।’’

झगड़ा बढ़ गया। चौधरी ने साधु के मुख पर एक घूँसा दे मारा। साधु ने कमर से बँधे हुए छुरे को निकालकर चौधरी पर वार कर दिया। वार तो हृदयस्थल पर किया गया था, परन्तु चौधरी उसको दूसरा मुक्का मारने के लिए कुछ समीप हो गया था इस कारण छुरा कन्धे पर लगा।

चौधरी ‘हा!’ कहकर वहीं बैठ गया। साधु ने समझा कि मर गया है। अतः वह वहाँ से टल जाने के लिए अपने झोंपड़े की ओर लौटा। इस समय तक बड़ौज वहाँ पहुँच गया था। उसने एक को भूमि पर ढेर हुए देखा और दूसरे को लौटाते। अँधेरे में पहचानने में कठिनाई हुई कि किसने किसको मार डाला है। वह पहचान के लिए जीवित के पीछे-पीछे चल पड़ा। जीवित को साधु के झोंपड़े की ओर जाते देख वह समझ गया कि उसके पिता की हत्या हो गई है।

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