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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


यह समझते ही उसने साधु को गरदन से पकड़ा और उसके हृदयस्थल पर छुरा घोंप दिया। साधु को वहीं गिरता छोड़कर वह अपने पिता की ओर भागा। वहाँ जाकर उसने देखा कि वे वहाँ पर नहीं हैं। वह समझ गया कि पिता जीवित हैं और झोंपड़े को चले गए हैं। इससे पुनः वह वहाँ गया जहाँ साधु को पड़ा छोड़ आया था। उसने देखा कि वह तो समाप्त हो चुका है। बात को छिपाने के लिए उसके शव को लेकर वह नदी की ओर चल पड़ा। शव को नदी के गहरे जल में छोड़, वह लौट आया।

अपनी माँ को अपने पिता के कन्धे पर पट्टी बाँधते देख वह समझ गया कि सब ठीक है।

अगले दिन साधु लापता था और चौधरी घायल। एक ने साधु के झोंपड़े के समीप रक्त के छींटे देखे। कबीले के लोगों को समझने में देर नहीं लगी कि चौधरी और साधु में झगड़ा हुआ है और साधु मार डाला गया है।

पंचायत बुलाने का ढोल बज गया। बँधे कन्धे के साथ झोंपड़े से निकल चौधरी पंचायत में जा बैठा। पंचायत मन्दिर के बाहर जमा थी। कबीले के सब प्रौढ़ व्यक्ति उसमें सम्मिलित थे। चौधरी सरपंच था, किन्तु उसको अपराधी मान उसके स्थान पर नहीं बैठने दिया गया; और एक अन्य व्यक्ति को सरपंच के स्थान पर बैठा दिया गया।

सरपंच ने घोषणा कर दी, ‘‘साधु लापता है। उसके झोंपड़े के बाहर बहुत-सा रक्त बिखरा पड़ा है। चौधरी धनिक के कन्धे पर घाव है। इस कारण मैं चौधरी से ही पूछता हूँ कि बात क्या है?’’

चौधरी ने खड़े होकर कहा, ‘‘कल गदरे की बेटी बिन्दू मेरी पत्नी के पास आकर कह गई थी कि साधु उसको सज्ञान होने की घोषणा नहीं करता और वह विवाह करना चाहती है।

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